पुस्तक चर्चा : ऋषभ देव शर्मा
खिलना ‘जंगल जुही’ का
आक्षितिज अभ्रभेदी शिलाओं के कुंज में
हैदराबाद. आप यहाँ आएँ, रहें, घूमे-फिरें, लौट जाएँ. और कुछ याद
रहे न रहे भीतर बाहर सर्वत्र फैला चट्टानों का म्युज़ियम जरूर याद रहेगा. कई बार तो
ऐसा लगता है कि तमाम प्राणिजगत इन प्रस्तर शिलाओं की गोद में खेल रहा है यहाँ. कवि-कथाकार-चिंतक
रमेशचंद्र शाह इसीलिए इस शहर को अलविदा कहते वक्त बस इतना ही कह पाते हैं – ‘अलविदा
आक्षितिज अभ्रभेदी शिलाओं के पुंज हैदराबाद!’
रमेशचंद्र शाह (1937) के दर्शन दो दशक पूर्व भोपाल
में आदरणीय कैलाशचंद्र पंत की कृपा से हुए थे. गांधी पर उनके व्याख्यान ने
प्रभावित ही नहीं आतंकित भी किया था. पिछले दिनों (2012) में उनके दर्शन का फिर से
सौभाग्य मिला – वे केंद्रीय हैदराबाद विश्वविद्यालय में एस. राधाकृष्णन पीठ के
बहाने कुछ महीनों के लिए यहाँ आए थे. विद्वानों और बड़े लेखकों से मुझे बचपन से ही डर
लगता रहा है – कस्बाई मानसिकता से आज भी ग्रस्त हूँ न! सो, जब प्रो. एम.
वेंकटेश्वर और डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने गेस्ट हाउस में उनसे मिलने जाने का
कार्यक्रम बनाया तो मैं हीले हवाले करने लगा. पर वेंकटेश्वर जी के आगे किसी की चली
है? दिन ढले हम लोग पहुँचे. घंटे भर दुनिया जहान की बातें हुईं – लगा यह कोई गोमुख
है जिससे निरंतर ज्ञान की गंगा झरती है. पर यह ग्लेशियर उतना भी ठंडा नहीं था – बल्कि
बिल्कुम भी ठंडा नहीं : गरमाहट से भरा हुआ, ऊर्जा से भरपूर. खुद उन्होंने अपने
हाथों से चाय बनाकर पिलाई, फोटो खींचे-खिंचवाए. अरे! ये तो बिल्कुल आदमी निकले – हाड
मांस वाले; मैं तो ज्ञान की पाषाणमूर्ति समझकर आया था. अस्तु! हैदराबाद के अपने उस
प्रवास को रमेशचंद्र शाह ने अपनी डायरी में टाँककर अमर कर दिया है.
किताबघर ने उनकी डायरी के चतुर्थ भाग और यात्रावृत्त को ‘जंगल जुही’
(2014) के नाम से प्रकाशित किया है. प्रो. सुवास कुमार सहित हैदराबाद के तीन
सहचरों को समर्पित यह डायरी प्रकारांतर से हैदराबाद को ही समर्पित है. 2 खंड हैं :
पहले में डायरी – जंगल जुही, हैदराबाद (जुलाई-दिसंबर 2012). दूसरे में यात्रावृत्त
- हैदराबाद और प्राग प्रवास के.
डायरी हो या यात्रावृत्त - मूलतः रचनाकार ने दोनों में स्मृति में अंकित
हो गए अनुभवों को शब्दों में पुनः जिया है. यह ग्रहण किए हुए का, भावन किए हुए का,
व्यक्तिगत अनुभवों का, निजता की सीमाओं को लांघकर सार्वजनीकरण है. जो देखा, भोगा,
महसूसा उसे अपनी सौंदर्यदृष्टि से अभिमंडित करके सारे समाज को वापस लौटा दिया. इसे
आत्मदान कहें या प्रतिदान! खैर, कुछ भी हो, पर इसमें दो राय नहीं कि इस अकाल्पनिक
गद्य में लेखक का अंतस सहज अनावृत्त हुआ है. बड़ी ललक से, इसीलिए, यह गद्य पाठक की
ओर बढ़ता है और उसे अपने औदात्य के आभाचक्र में समेट लेता है. यानि ‘जंगल जुही’ का
गद्य सहज-प्रसन्न-उदात्त गद्य है : उत्फुल्ल भी, प्रशमित भी. गज़ब का संतुलन. गज़ब
का सम्मोहन.
‘जंगल जुही’ को संदर्भ संबलित और प्रसंग गर्भित अच्छे गद्य की तरह पढ़ने का अपना मजा है. विधा
का नाम कुछ भी हो लेकिन कवित्व और लालित्य इस गद्य में सर्वत्र विद्यमान है – दर्शन,
चिंतन और आत्मोद्घाटन के साथ. यही कारण है कि यह कृति जीवन के अर्थ की खोज की लेखकीय
व्याकुलता का भी पूरा बोध कराती है. अरविंद और गुर्जिएफ़ जैसे संत इस यात्रा में
लेखक के साथ साथ चलते हैं – और पाठक के भी. इसी कारण अंत तक पहुँचते पहुँचते यह
बात पुख्ता हो जाती है कि अपने प्रति और मानवीय बिरादरी के प्रति जवाबदेही के
निर्वाह से प्राप्य कृतार्थता का संतोष इस कृति से लेखक को अवश्य ही मिला होगा.
देखे गए देश और काल के विवरण तो सभी डायरियों और यात्रावृत्तों में होते हैं,
लेकिन डायरी और यात्रावृत्त को टूरिस्ट गाइड नहीं बनना होता है. इसलिए इन विवरणों
की तुलना में वे पक्ष अधिक महत्वपूर्ण होते हैं जहाँ लेखक की निजता और संवेदनशीलता,
वैचारिकता और भावुकता रमणीय अर्थ के साथ व्यंजित होती है. इसी भावाभिव्यंजना के
कारण ‘जंगल जुही’ का गद्य पठनीय, मर्मस्पर्शी और प्रीतिकर बन सका है. अनेक स्थलों
पर अपने विचार प्रवाह में रमेशचंद्र शाह पाठक को बहाए ले जाते हैं. उदाहरण के लिए जब
किसी अंतरराष्ट्रीय काव्योत्सव के बाहने वे पूछते हैं कि ‘पृथ्वी पर इतने देश हैं.
सभी में कविता होती है. पर सबको तो ऐसा चाव नहीं जगता *** क्या हमें सचमुच कविता
पर, उसकी आह्लादिनी शक्ति पर ही नहीं – उसकी ज्ञानदायिनी शक्ति पर भी इतना विश्वास
है?’ तो हमारे मन में भी यह सवाल उठता है कि ‘क्या यह महज हमारी उत्सवधर्मी
और प्रदर्शनप्रिय मानसिकता की ही एक और अभिव्यक्ति है? या कि इसके पीछे कोई गहरी
सृजनधर्मी सत्यान्वेषिणी चेतना सक्रिय है?’
यह जानना भी अच्छा लगा कि लेखक रमेशचंद्र शाह शास्त्र पर अंतिम विश्वास
नहीं करते. लोक में उनकी बड़ी आस्था है. रामटेक में अगस्त्य मुनि का आश्रम होने की
लोक मान्यता पर वे विस्मय अवश्य व्यक्त करते हैं, लेकिन अविश्वास नहीं. वाग्देवी
से कालिदास को प्रतिभा का वरदान मिलने की मान्यता भी ऐसी ही है. अन्यत्र, वे बड़ी
पते की बात कहते हैं ‘और किंवदंतियाँ हमारे देश में यूँ ही नहीं बन जातीं. उनके
पीछे कोई न कोई आधार अवश्य होता है.’ दशावतारों की कल्पना को वे इवोल्यूशन की
द्योतक मानते हैं. आंध्र प्रदेश भर में नृसिंह अवतार की प्रसन्न और उग्र मूर्तियों
की बड़ी महिमा है. यादगिरीगुट्टा की यात्रा में लेखक ने इस महिमा की विवेचना का
अवसर निकाल लिया – ‘नृसिंह अवतार तो विशेष रूप से हमारी मानवीय संरचना के आदिम और
परवर्ती विकास-स्तरों को आपस में जोड़ने वाला है और यह एक बात इस अवतार की विलक्षण
लोकप्रियता के रहस्य के मूल में है. हमारे यहाँ लोक और शास्त्र अन्योन्याश्रित रहे
हैं. लोकानुभव ही कालांतर में शास्त्र में रूपांतरित और उन्नीत होता रहा है.’ यह
लोक लेखक की धमनियों में निरंतर बजता रहता है. यही कारण है कि प्राग (चेक गणराज्य
की राजधानी) में ग्याकोमो पुसीनी के विश्वविख्यात ऑपेरा ‘ला बोहेमे’ को देखते समय उनके
भीतर अचानक लड़कपन की रामलीला और नौटंकियों के भूले बिसरे संस्मरण जाग उठते हैं और संबोधि
का यह पूर्वप्रश्न उभरता है – ‘तो क्या कला की दुनिया विचारधारा या धर्म विश्वास
की दुनिया की तुलना में कहीं अधिक व्यापक-मानवीय और कहीं अधिक सर्वनिष्ठ दुनिया
है?’
और अंत में बिना टिप्पणी के, 77 वर्षीय साहित्यकार की ये टिप्पणियाँ -–
- इस प्रतीति तक पहुँचने में ही एक पूरा जन्म खप गया./
- समकालीनों से मुझे क्या मिला है? सिवा एक निहायत औपचारिक अंतःकरण की नुमाइशी यारबाशी और उतनी ही ‘समझदार चुप्पियों’ के?/
- आजकल भूल जाता हूँ सब *** क्या यही वृद्धावस्था का पहला लक्षण है?/
- मैं तो इस जंगल जुही की प्राणशक्ति देखकर दंग हूँ./
- असुविधाजनक सत्य बोलना ही चाहिए सार्वजनिक स्थलों पर.
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Ø रमेशचंद्र शाह/ जंगल
जुही/
किताब घर, नई दिल्ली/ 2014/
पृष्ठ 182/ मूल्य – रु. 320/-
-ऋषभ देव शर्मा
भास्वर भारत / जून 2014 / पृष्ठ 59