वैष्णव
धर्म के मूल में एक बड़ी समन्वय चेष्टा निहित है. इसके अंतर्गत वैदिक विष्णु, द्रविड़
मूल के नारायण और वृष्णि जनजाति के देवता वासुदेव कृष्ण का समाहार हुआ तथा भक्ति
को लोकधर्म के रूप में स्वीकृति प्राप्त हुई. भक्ति और निष्ठा भारतीयों की जीवन
शैली के ऐसे मूल्यों के रूप में उभरीं जिन्होंने वैविध्यपूर्ण समाज को एक सूत्र में
बाँधने का बड़ा काम किया. यह वैष्णव भक्ति ही मध्यकाल में जागरण और आंदोलन के रूप
में पूरे भारत में छोटे मोटे नाम भेद के साथ प्रचारित-प्रसारित हुई. विष्णु के अवतारों
में विशेष रूप से राम और कृष्ण परात्पर ब्रह्म के रूप में इस भक्ति आंदोलन के
केंद्र में रहे – निर्गुण भी सगुण भी. राम का लोक रक्षक और कृष्ण का लोक रंजक रूप भक्तों
को बहुत भाया. इन रूपों का लीला गायन जिन भक्त कवियों ने अत्यंत मनोयोगपूर्वक किया
उनमें सूरदास अपनी तरह के अनोखे कवि हैं.
सूरदास
15वीं-16वीं शताब्दी में हुए. यह ऐसा समय था जब नाथ पंथियों के प्रभाव से समाज में
लोक विमुखता और आत्मकेंद्रिकता जड़ें जमा रही थीं. इस लोक विरोधी प्रवृत्ति को
निशाने पर रखकर सूरदास ने गोपियों के कृष्ण प्रेम के सहारे लोक सम्मत प्रेमाभक्ति का
आदर्श समाज के सामने रखा. प्रेमाभक्ति का यह आदर्श सूरदास को महाप्रभु वल्लभाचार्य
से प्राप्त हुआ था. कहा जाता है कि सूरदास ने जब आगरा और मथुरा के बीच यमुना तट पर
स्थित गउघाट पर महाप्रभु वल्लभाचार्य को विनय के दो पद सुनाए तो महाप्रभु ने
उन्हें हरी लीला वर्णन करने का आदेश दिया. सूर के असमर्थता जताने पर उन्होंने उन्हें
भागवत का दिव्य ज्ञान दिया. इस ज्ञान बीज का अपनी कल्पना शक्ति से विस्तार करते
हुए सूर ने कृष्ण की बाल लीलाओं और प्रेम लीलाओं का वल्लभाचार्य के पुष्टिमार्ग के
अनुरूप भक्तिपगा मधुर वर्णन किया. यहाँ यह याद रखना होगा कि वल्लभाचार्य को दार्शनिक
परंपरा में शुद्धाद्वैतवाद और भक्ति परंपरा में रागानुगा, प्रेमा, माधुर्य भक्ति की
स्थापना करने का श्रेया है. उनकी भक्ति पद्धति को पुष्टिमार्ग के नाम से जाना जाता
है. सूरदास को ‘पुष्टिमार्ग का जहाज’ कहा जाता है जो इस तथ्य का द्योतक है कि शुद्धाद्वैत
दर्शन को रसपूर्ण काव्य के रूप में ढालने में सूरदास अद्वितीय है. प्रायः विचार या
दर्शन कविता का शत्रु होता है, अतः किसी दर्शन को कालजयी काव्य के रूप में लोकग्राह्य
बनाकर प्रस्तुत करना बहुत बड़ी चुनौती का काम है. सूर ने इस चुनौती को स्वीकार ही
नहीं किया बल्कि यह दिखा दिया कि कोई रससिद्ध कवि किसी दर्शन को रचा पचाकर किस प्रकार
सहज संप्रेषणीय काव्य की रचना कर सकता है.
उल्लेखनीय
है कि पुष्टिमार्ग के संस्थापक महाप्रभु वल्लभाचार्य के चार और उनके पुत्र
विट्ठलनाथ के चार प्रधान शिष्यों को अष्टछाप के नाम से जाना जाता है. अष्टछाप में
सूरदास के अलावा कुम्भनदास, कृष्णदास, परमानंद दास, गोविन्द दास, छीतस्वामी,
नंददास और चतुर्भुज दास जैसे उत्कृष्ट कवि कीर्तनकार सम्मिलत थे जो इस संप्रदाय के
इष्ट देव श्रीनाथ जी की सखा भाव से प्रेमाभक्ति में अनुरक्त थे. इन्हें अष्टसखा भी
कहा जाता है. इनमें से सूरदास ने हजारों पदों में कृष्ण लीला का गायन किया जिसे पुष्टिमार्ग
ने शास्त्र के रूप में मान्यता प्रदान की. डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा ने लिखा है कि सूरदास
के पदों द्वारा पुष्टिमार्ग का जितना विशद परिचय होता है उतना किसी अन्य स्रोत से
संभव नहीं है. वे कहते हैं कि आश्चर्य यह है कि सूरदास ने प्रत्यक्षतः पुष्टिमार्गीय
भक्ति पद्धति पर कुछ भी नहीं लिखा, यहाँ तक कि उन्होंने गुरु की प्रशंसा में भी पद
रचना नहीं की. इसके बावजूद उनके काव्य में पुष्टिमार्ग की सभी मान्यताओं का कृष्ण
लीला के माध्यम से सहज समावेश आज भी भक्तों और सहृदयों को मोहित और चमत्कृत करता
है.
वल्लभाचार्य
ने शंकराचार्य के मायावाद को निरस्त करते हुए शुद्धात्वैदवाद का प्रवर्तन किया. इस
सिद्धांत में ब्रह्म को माया संबंध से रहित अर्थात शुद्ध माना गया है. माया रहित
ब्रह्म ही वह अद्वैत तत्व है, सारा जगत जिसकी लीला का विकास है. उन्होंने अपने दर्शन
का आधार प्रमाण चतुष्टय को बनाया जिसमें वेद (उपनिषद सहित), गीता, ब्रह्म सूत्र और
भागवत सम्मिलित हैं. वल्लभाचार्य ने ब्रह्म को सत्-चित-आनंद रूप माना, जीव को सत्-चित
रूप तथा जगत को सत् रूप. वे जगत को माया नहीं मानते बल्कि ब्रह्म के सत् अंश का प्रकट
रूप मानते हुए उसे भी ब्रह्म ही कहते हैं. जीव भी उनके मतानुसार ब्रह्म का ही रूप
है – बस आनंद की कमी है. इस आनंद को पाते ही वह स्वयं ब्रह्म हो जाता है. आनंद की
उपलब्धि परम प्रेमरूपा भक्ति द्वारा संभव है और भक्ति की प्राप्ति स्वयं ब्रह्म के
अनुग्रह से ही होती है. यह अनुग्रह ही पोषण अथवा पुष्टि है – पोषणम् तदनुग्रहे.
कृष्ण
को वल्लभ ने परब्रह्म, ईश्वर या परमात्मा माना. वे सविशेष हैं पर निर्विशेष भी हैं;
सगुण हैं पर निर्गुण भी हैं. अणु हैं पर महान भी हैं. चल हैं पर अचल भी हैं. गम्य
हैं पर अगम्य भी हैं. वे विरुद्ध गुणों के आश्रय हैं. उनके सभी गुण उनसे स्वभावतः अभिन्न
हैं – वे उनकी शक्ति या माया नहीं हैं. आचार्य वल्लभ ने ब्रह्म के तीन रूप माने
हैं – परब्रह्म, अंतर्यामी और अक्षरब्रह्म. इनमें अक्षरब्रह्म को अनेक जीवन और जगत
का उसकी प्रकार स्रोत माना गया है जैसे अग्नि अनेक चिंगारियों का स्रोत है. इस
प्रकार सब कुछ को विशुद्ध ब्रह्म का ही लीला विलास मानने वाले इस मत में परब्रह्म
के अनुग्रह पर विशेष बल दिया गया है. ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग को कठिन मानते हुए
वल्लभ ने सर्वसुलभ भक्ति के रूप में पुष्टिमार्ग की शिक्षा दी.
महाप्रभु वल्लभाचार्य मानते हैं कि जीव तीन
प्रकार के हैं. जो जीव निरुद्धेश्य जीवन बिताते हैं और कभी ईश्वर का चिंतन नहीं
करते वे प्रवाह जीव हैं. जो वेद विहित मार्ग से ईश्वर की पूजा करते हैं वे मर्यादा
जीव हैं. जिन जीवों पर ईश्वर कृपा करता है, अपनी शरण में लेता है और जो ईश्वर से अनन्य
प्रेम करते हैं वे पुष्टि जीव हैं. इनकी भक्ति में ईश्वर प्रेम ही सारे आध्यात्मिक
कार्यकलापों का सार और लक्ष्य है. इस भक्ति में भगवान से अमित प्रेम करने के
अतिरिक्त और कुछ नहीं किया जाता. भगवान के द्वारा भक्त में स्थापित की जाने वाली और
भक्त का सर्वस्व बन जाने वाली इस भक्ति को शुद्धपुष्टि भक्ति कहा गया है.
शुद्धपुष्टि भक्ति के उदाहरण के रूप में
गोपियों की भक्ति उल्लेखनीय है. उनके लिए योग
मार्ग से लेकर सायुज्य मुक्ति तक भी त्याज्य है. उनके लिए तो भगवान की रासलीला में
भाग लेना ही परम मुक्ति है. पुष्टिमार्ग में परब्रह्म कृष्ण रस, आनंद और सुंदर हैं.
वे सभी रसों को प्रकाशित करते हैं. उनमें भी शृंगार का विशेष स्थान है. अपने भक्तों
के संबंध में कृष्ण संयोग और विप्रलम्ब दोनों की अभिव्यक्ति करते हैं. इन्हीं पर ध्यान
करना पुष्टिमार्ग का लक्ष्य है. आचार्य वल्लभ ने बाल कृष्ण और उनकी सखी राधा की उपासना
का विधान बनाया क्योंकि रासलीला भगवान के इसी रूप में विशेष है. यही कारण है कि सूरदास
ने अनेकानेक पदों में तन्मयतापूर्वक गोपी भाव से रासलीला, बाललीला, गोकुल वर्णन, यशोधा
के वात्सल्य, गोपियों के साथ कृष्ण की अनेक लीलाओं और भ्रमरगीत प्रसंग का विशद
वर्णन किया है. जैसा कि डॉ. हाजारी प्रसाद द्विवेदी ने लक्ष्य किया है कि सूरदास
ने लीलागान में भी प्रेम को अपना मुख्य कथ्य बनाया. उनका सूरसागर माता के प्रेम,
पुत्र के प्रेम, गोप-गोपियों के प्रेम, प्रिय और प्रिया के प्रेम तथा पति और पत्नी
के प्रेम जैसी बातों से भरा पड़ा है. यह प्रेम संयोग के समय सोलह आना संयोगमय है और
वियोग के समय सोलह आना वियोगमय. ऐसा प्रतीत होता है कि भक्त सूरदास एक निश्चल बालक
का हृदय लेकर सारी कृष्ण लीला का वर्णन कर रहे हैं. बालक का यह हृदय अपने प्रिय के
क्षणिक वियोग में भी अधीर हो जाता है और क्षणिक मिलन में ही सब कुछ भूलकर
किलकारियां मारने लगता है. द्विवेदी जी तो यहाँ तक मानते हैं कि सूर द्वारा
निरूपित राधा और कृष्ण का सारा प्रेम व्यापार “बालकों का
प्रेम व्यापार है. वही चुहल, वही लापरवाही, वही मस्ती, वही मौज. न तो इस प्रेम में
कोई पारिवारिक रसबोध ही है और न आमुष्मिक (जिसका फल परलोक में मिले) संबंध ही.
सारी लीला साफ़, सीधी और सहज है. जैसा कि उनके गुरु वल्लभाचार्य ने बताया है, लीला
का कोई प्रयोजन नहीं है बल्कि लीला ही स्वयं प्रयोजन है. सूरदास इस लीला को ही चरम
साध्य मानते हैं.”
सूर की राधा भी सरल बालिका ही हैं. उन्हें
चंडीदास की राधा की तरह सास-ननद का डर नहीं सताता, उनमें विद्यापति की राधिका जैसी
चतुराई नहीं है. है तो बस बाल सुलभ प्रेम की सरलता, निश्चलता, निष्कलुषता. अविगत गति
और निर्गुण के देश को जानने के मार्ग को असहज पाकर ही सूर ने पुष्टिमार्ग की सरलता
को स्वीकार किया. पुष्टिमार्ग में ‘पूजा’ के स्थान पर ‘सेवा’ पर बल दिया जाता है. व्रजाधिप
श्री कृष्ण की निरपेक्ष भाव से सेवा ही पुष्टिमार्ग का सार है. इस मार्ग में यह
माना गया है कि लौकिक तथा वैदिक सिद्धि प्रभु कृपा से ही प्राप्त होती है – अनुग्रहेणैव
सिद्धिःलौकिकी यत्र वैदिकी. इस मार्ग में लोक और वेद से प्राप्त होने वाले किसी भी
फल की कामना नहीं की जाती बल्कि जहाँ केवल ‘तत्सुख’ (प्रभु के सुख) की प्रधानता
है. वही शुद्धपुष्टि मार्ग है – सापेक्षता स्वामिसुखे पुष्टिमार्गःस कथ्यते. यही
कारण है कि वल्लभाचार्य ने श्रीनाथ की आठ प्रहर की सेवा की विधिवत व्यवस्था मंगला
से लेकर शयन तक के लिए की थी. इन सेवाओं के समय अनुराग, खंडिता भाव, दधिमंथन,
बालरूप, सख्य भाव, गोचारण, माखन चोरी, ऐश्वर्य माधुरी, क्रीड़ा माधुरी, वेणु
माधुरी, विग्रह माधुरी और गोपी भाव से निकुंज लीला के पदों के गायन की व्यवस्था
की. सूरदास ने इन सभी लीलाओं के पद रचे हैं और वात्सल्य, प्रेम तथा भक्ति के रूप
में संपूर्ण जीवन को काव्यात्मक अभिव्यक्ति प्रदान की है. गोपी भाव की चरम उपलब्धि
कृष्ण से भेंटने में है. यह भेंट भौतिक या दैहिक भेंट नहीं है बल्कि ऐसी
आध्यात्मिक भेंट है जिसमें दैहिक रूप से दूर रहकर भी गोलोक में निरंतर राधा माधव नितनूतन
रासलीला रचाते हैं –
राधा माधव भेंट भई.
राधा माधव माधव राधा
कीट भृंग गति ह्वै जु गई.
माधव राधा के रंग
राँचे राधा माधव रंग रई.
माधव राधा प्रीती
निरंतर रसना करि सो कहि न गई.
बिहँसि कह्यौ हम तुम नहिं
अंतर यह कहिकै उन ब्रज पठई.
सूरदास प्रभु राधा
माधव ब्रज बिहार नित नई नई.
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