हिंदी भाषा का विकास : वर्तन बिंदु (turning points).
वैशिष्ट्य :
1. साधारणता की ओर : तद्भवता और देशजता की प्रवृत्ति
2. हर निबंध में सूत्र रूप में निर्भ्रांत लेखकीय स्थापनाएँ (शब्दों की मितव्ययिता)
3. काव्यभाषा में प्रतीक
4. काव्यभाषा में विशेषण
[1] हिंदी भाषा का विकास : तद्भवता / साधारणता की ओर प्रस्थान
काव्यभाषा के विकास में हिंदी के सभी उप-रूपों ने – खड़ीबोली, ब्रजभाषा, अवधी आदि – पूरा पूरा योग दिया है. काव्यभाषा के रूप में जनभाषा ही समय समय पर अपनाई गई जिसको अधिकांश कवियों ने ‘भाषा’ ही कहा. मध्यदेश के ही नहीं, भारतवर्ष के सभी अंचलों ने इसको आगे बढ़ाया है. (अपनी बात)
रोड़ा कृत राउलवेल :
निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि पश्चिमी रूपों की बहुलता के कारण यह रचना पश्चिमी हिंदी का पूर्व रूप है जिस पर अन्य प्रादेशिक रूपों की यत्र तत्र छाया है. (11 वीं शती)
Ø प्राकृत अपभ्रंश काल में व्यंजनों का लोप
हंसगइ (हंसगति), सरउ-जलय (शरद-जलद), रोमराइ (रोमराजि), रयणि (रजनी),
Ø हकार का प्राधान्य
सोह (शोभा), नाह (नाथ), मुह (मुख), पहिरणु (परिधान)
पृथ्वीराज रासो :
13 वीं शती
तत्कालीन ब्रजभाषा (पश्चिमी हिंदी)
चंदायन :
पुरानी अवधी
विद्यापति :
पदावली की भाषा ‘देशी’ ठहरती है = मैथिली = तत्कालीन जनभाषा
विद्यापति की भाषा जन जन की भाषा थी. तब ही तो ‘देसिल बअना’ का प्रयोग किया गया जो उन दिनों लोकजीवन में प्रचलित जनसाधारण की भाषा थी और आज की हिंदी का आदि रूप.
कबीर :
भाषा का अन्नकूट रूप – पूर्वी, खड़ीबोली, पंजाबी, ब्रजभाषा, राजस्थानी
वस्तुतः कबीर द्वारा प्रयुक्त पंचमेली सुधुक्कडीभाषा ही उस समय की जन जन की भाषा थी जिसमें पूर्वी रूपों की अपेक्षा पश्चिमी रूपों, ब्रजभाषा तथा खड़ीबोली की प्रधानता थी.
जायसी : पद्मावत :
ठेठ अवधी = जो बोली लोक में समझी जाती थी. (जनभाषा)
मानस की अवधी से भिन्न
कवि का भाषा पर असाधारण अधिकार
तुलसी :
मुख्य समस्या = संस्कृत बनाम लोकभाषा = दुशाला बनाम कमली
का भाषा का संस्कृत, प्रेम चाहिए सांच
काम जु आवे कामरी, का लै करिज कुमांच
सार्थक शब्द चयन :
हनुमान = वानर, मरकट, कपि, बंदर (उत्पात), मारुत सुत, पवन कुमार, पवन सुत (सम्मान), प्रभंजनजाया (पराक्रम की पराकाष्ठा)
सूर :
सूर शब्दकोश के निर्माण की आवश्यकता
किसी भाषा की श्रेष्ठता का मानदंड केवल यह है कि उस भाषा में हम सूक्ष्मातिसूक्ष्म भावों को व्यक्त कर सकें
= सूर और सूर की ब्रजभाषा दोनों समर्थ
देखना क्रिया :
अंग्रेजी = see, behold, look, perceive, watch, take notice
सूर = देखि, विलोक, निरखि, पलक, भुलोन, चितवति, दृष्टि रही, देख्यो, नैन भुलाने, झांकति, दर्शन, झखति आदि + नैन व्यापार पर 250 मुहावरे
v लोकोक्ति, मुहावरे – सैंकडों
ऊधो अब कुछ कहत न आवे /
सिर पर सौति हमारे कुबिजा /
चाम के दाम चलावे.
मीराँ :
तद्भव शब्दावली – 70-75%
सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक शब्दावली
बिहारी :
सूर, नंददास आदि अष्टछाप के कवियों ने जिस ब्रजभाषा को काव्य में चलते रूप में प्रयुक्त किया उसे बिहारी ने सुष्ठु एवं परिमार्जित किया.
गुरु गोबिंद सिंह :
टकसाली ब्रजभाषा + शैलीगत भेद : पंजाबी की विशेष छटा
चंडीचरित्र में पंजाबीपन तो इतना नहीं है पर खड़ीबोली की झलक स्थान स्थान पर अवश्य है जिसे कवि ने ‘रेखती शैली’ नाम दिया.
भाखा सुभ समकर हो घरि हो कृत्ति में
(ऐसी भाषा जो सबके लिए शुभ हो - का प्रयोग मैं अपनी कृति में कर रहा हूँ)
भाषा/ भाखा का आधार तद्भव शब्दावली है – पुरख, कालुख, बरखा, सीख, सिख, पुरुखत कुरुखेत
लोकोक्ति, मुहावरे
युद्ध वर्णन में सूदन, भयानक व रौद्र में भूषण, लालित्य में देव, अनुप्रास में पद्माकर, अभिव्यक्ति में घनानंद की भाषा का सा आनंद.
घनानंद :
लाक्षणिक उक्तियों और अभिव्यंजना कौशल के कारण रीतिकाल के सर्वश्रेष्ठ कवि
सूर ने जिस ब्रजभाषा को काव्य का माध्यम अपनाया उसी को घनानंद ने व्यवस्थित रूप दिया.
तद्भव प्रियता – अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नेकु सयानप बांक नहीं
लोक शब्दावली – घनानंद के हाथों में आकार साहित्यिक बन गई
§ सल (ज्ञान, मालूम), संजोअे (संध्या का अंतिम भाग), लघेरि (लपेटकर), उजैना (उद्यापन करना), न्यार (चारा), पैछर (पैर की आवाज), झारां (सब के सब), ओटपाय (उपद्रव), टेहुले (शुभावसर के अनुष्ठान), गरैंठी (पूरे भरे पात्र से कुछ कम) आदि
मुहावरे, कहावतें =जीवित भाषा के प्राण
घनानंद सिद्धहस्त उस्ताद हैं.
ब्रज की टकसाली भाषा के समर्थक.
मैथिलीशरण गुप्त :
आपने खड़ीबोली के खड़ेपन, कर्कशता तथा परुषत्व को दूर कर उसे मधुरता और कोमलता प्रदान की.
शुद्ध परिष्कृत काव्योचित बनाया
बोलचाल की सामान्य शब्दावली के साथ संस्कृत शब्दावली अपनाकर काव्य भाषा को समृद्ध किया.
लड़खड़ाती भाषा मिली थी – सौष्ठवमय बना दिया
सियारामशरण गुप्त :
एक साथ पद्य तथा गद्य में समान अधिकार रखने वाले सियारामशरण जी जैसे साहित्यकार कम हैं.
गद्य साहित्य में भी उनका कवि रूप छलका है.
जयशंकर प्रसाद :
तद्भव शब्दावली के प्रयोग से यदि भावाभिव्यक्ति में सरलता होती है तो आप तत्सम के स्थान पर तद्भव का प्रयोग ही अच्छा समझते थे.
परस (स्पर्श), नखत (नक्षत्र), किरन (किरण), पीर (पीड़ा), थिर (स्थिर), साँझ (संध्या), तीख (तीक्ष्ण), सपना (स्वप्न), निबल (निर्बल), सुहाग (सौभाग्य), रात (रात्रि), नाच (नृत्य) आदि
प्रारंभिक कृतियों में ब्रजभाषा
बाद में बनारसी प्रयोग अधिक.
निराला :
भावानुसार भाषा
भाषा का चलता रूप
लोक प्रचलित मुहावरों से युक्त भाषा प्रयोग में उनका व्यक्तित्व झांकता है
निराला की भाषा एक आदर्श भाषा है जिसने हिंदी के परिनिष्ठित रूप के विकास में पर्याप्त योग दिया.
अज्ञेय :
नई कविता की भाषा के लक्षण -
साधारण बोलचाल की भाषा
मुहावरे और पद विन्यास
सीधे जीवन से ली हुई तद्भव शब्दावली
देहात की भाषा का मुहावरा
तद्भव प्रयोग – दुःख सबको माँजता है (माँजना)
[2] निर्भ्रांत सूत्रात्मक लेखकीय स्थापनाएँ
रोडाकृत राउलवेल : शिलांकित काव्य – 11 वीं शती :
राजकुल विलास = राजभवन की रमणियों का वर्णन
हिंदी भाषा का विकास पथ और भी अधिक स्पष्ट करने में सहायक
विचारणीय प्रश्न = किस प्रदेश विशेष की भाषा
सर्वाधिक बाहुल्य पश्चिमी और मध्यवर्ती रूपों का. (पछाहीं अपभ्रंश का प्रभाव – शिवप्रसाद सिंह)
चंदवरदाई : पृथ्वीराज रासो – 13 वीं शती :
तत्कालीन ब्रजभाषा (पश्चिमी हिंदी) = प्राचीन ब्रजभाषा = पिंगल
प्राचीन प्राकृताभास शब्दों की बहुलता + अरबी फारसी का मिश्रण
मौलाना दाऊद चंदायन - 14 वीं शती :
पाठ संपादन से जुड़े रहे
चंदायन की भाषा पुरानी अवधी है जिस पर पश्चिमी हिंदी का प्रभाव है.
रत्नाकर : उद्धव शतक :
भाषा की कारीगरी
जयशंकर प्रसाद :
निराला के गीत संग्रह ‘गीतिका’ के प्रारंभ में प्रसाद ने काव्यभाषा की चार विशेषताएँ बताईं –
(1) नई पद योजना = वर्णों का भास्वर प्रयोग
(2) नई शैली = मूर्तिमती व्यंजना + नए प्रतीक
(3) नया वाक्य विन्यास = अपूर्ण वाक्य
(4) आभ्यंतर भावों के लिए शब्दों की नई भंगिमा -
शब्दों के नवीन सार्थक प्रयोग
अनेकार्थवाची शब्दों में से समुचित शब्द का प्रयोग
शब्दों के सटीक प्रयोग – संज्ञा, विशेषण, क्रिया आदि.
छायामयी वक्रता के लिए ‘सर्वनाम’ का प्रयोग
समुचित उपनामों का प्रयोग
वैदग्ध्यमयी वाग्भंगी जिसके द्वारा अर्थवैचित्र्य और चमत्कार की सृष्टि की जाती है.
निराला :
संस्कृत की तत्समप्रियता
सभी प्रकार की शैली में काव्य प्रणयन का अभ्यास
अनुप्रासमयता
चित्रमयता
ध्वन्यात्मकता
पंत :
भाषा में स्वरों का महत्व
स्वर = काव्य संगीत का मूल तंतु
पर्याय चयन
पहली बार बड़ी गंभीरता से पंत जी ने पर्यायों की अर्थछटाओं पर विचार किया
भ्रू = क्रोध की वक्रता
भ्रकुटि = कटाक्ष की चंचलता
भौंह = स्वाभाविक प्रसन्नता, ऋजुता
अनिल = कोमल शीतल वायु
वायु = निर्मल हवा
पवन, प्रभंजन = तेज हवा
प्रमुख विशेषता : समुचित शब्द चयन
पंत जी को खड़ीबोली अव्यवस्थित, क्षीण और दुर्बल रूप में मिली.
उन्होंने खड़ीबोली को संस्कृत के शब्द देकर खड़ा किया
खड़ीबोली काव्यभाषा को आर्द्रता, कोमलता, स्निग्धता, प्रांजलता, सहजता, मधुरता, रागात्मकता प्रदान करने का श्रेय पंत को है.
महादेवी :
खड़ीबोली हिंदी के स्पष्ट दो रूप –
(1) संस्कृतनिष्ठ हिंदी – प्रिय प्रवास,
(2) संस्कृत के शब्दों से युक्त होते हुए भी बड़े बड़े संधि समास से मुक्त रूप जिसमें समुचित तद्भव शब्दावली का प्रयोग भी = छायावादी युग की काव्यभाषा
छायावादी युग में सूक्ष्म एवं अमूर्त की अभिव्यंजना के साथ शैली अवश्य दुरूह हो गई
पर भाषा की शक्ति और सौंदर्य में विकास हुआ.
प्रतीकात्मकता
मुक्त प्रयोग
विविधता
अनेकार्थता
भाषा को सौष्ठव, साथ ही गांभीर्य प्रदान करने की दृष्टि से महादेवी जी का विशेष महत्व है.
दिनकर :
प्रारंभ से ही भाषा के प्रति सतर्क
छायावादी युग के प्रयोगों से शिक्षा
आक्रोश के लिए बलयुक्त भाषा
बलाघात के लिए ‘ही’ का प्रयोग -
मैं ही न हाय पहचान सकी
यह बात प्रभु पहले से ही कहते हैं
तुम्हें देखते ही मुझ में अजब भाव जगता
हम ही तुम्हें साकार नहीं तो छिपे हुए हैं
भाषा उनका चरम लक्ष्य था
अज्ञेय :
संस्कारी भाषा के पोषक
अर्थवान शब्द की समस्या
कवि उसी भाषा का प्रयोग करता है जिसे वह रोज जीता है. जब हम बोलचाल में संकर भाषा का प्रयोग करते हैं, सारा समाज संकर भाषा में जीता है तब कविता में उसे क्यों प्रवेश नहीं मिलेगा (जोग लिखी)
सांस्कृतिक बिंब-
दिन का आरंभ = द्वार पर पड़े हल्दी रंगे पत्र
धरती = सवत्सा काम धेनु
संध्या के बादल = कपूर और सिंदूर की गाँठ
भोर की पुकार = रात के रहस्यमय स्पंदित तिमिर की भेदती कटार-सी
नदियाँ = रंभाती हुई धेनुएँ
आज के युग की देन – विसंगति, अकेलापन, कुंठा, यांत्रिक जीवन आदि -
के अनुकूल भाषा तैयार करने में जहां अज्ञेय सफल रहे हैं
वहाँ प्रतीकों, बिंबों, अभिप्रायों आदि को प्रस्तुत करने में अद्वितीय.
[3] काव्यभाषा में प्रतीक विधान
कबीर :
प्रतीकात्मक भाषा : जनभाषा : लोक प्रचलित प्रतीकों का प्रयोग
चरखा = जो चरखा जरि जाय बड़ेया ना मरे/ मैं कातों सूत हजार चर्खुला जिन जरे
कुम्हार और मिट्टी
कुंआ और पनिहारिन
कोई शब्द निरर्थक नहीं : नाम के साथ विशेषण का प्रयोग : प्रतीक
हंस कबीर = मुक्तावस्था,
कह कबीर = स्वोक्ति,
कहै कबीर = अन्य व्यक्ति की उक्ति,
दास कबीर = ईश्वर का उपासक,
कबीरा = अज्ञानी
जयशंकर प्रसाद :
ज्योत्स्ना = प्रफुल्लता
स्वच्छंद सुमन = आकंक्षा, उन्मुक्त अभिलाषा
किरण = उत्साह, स्फूर्ति
बासी फूल = म्लान भाव
रजनी का पिछला प्रहर = किशोरावस्था के बाद का समय
मतवाली कोयल = हृदय का उल्लास
कलियाँ = नवीन भाव
ऊषा की लाली = यौवन
सोने के सपने = आनंदमय जीवन
ज्योत्स्ना निर्झर = अपार सौंदर्य
झंझा/ आंधी = हलचल/ क्षोभ
मरु ज्वाला = अनंत पीड़ा
पंत :
ऊषा = दिव्य माधुर्य
कली = नारी का बाल्यकाल
रजत = रूप, चंचलता/ चपलता
द्रौपदी के दुकूल = विरह की अनन्तता
घन = चिंताएं
गर्जन = वेदना
प्रभात = शैशव
बसंत = सुख
स्वर्ण = दीप्तिमान मानसिक सत्ता
गुलाब = जीवन एवं जगत
संध्या उषा = दुःख-सुख
दोपहर = यौवन
चांदनी = शीतलता
महादेवी :
अँधेरा (विषाद),
वर्षा (करुणा),
ग्रीष्म (क्रोध),
वसंत (आनंद),
पतझर (निराशा),
मकरंद (आँसू),
मधुशाला (विश्व),
लू (प्रेम का अंत),
बुद्बुद(क्षण)
[4] काव्य भाषा में विशेषण प्रयोग
घनानंद
विशेषण का सम्यक प्रयोग.
नेत्र व्यापर की विभिन्न अवस्थाएँ
छके दृग = प्रेम के मद से मस्त
ललित लाल चख = प्रेम के मद से मस्त होने के कारण लाल नेत्र
तृषित चखन = रूप जल के प्यासे नेत्र
अंखियानी निपेटिन की = पेटू या अत्यधिक खाने वाली!
रूपरस माधुर्य का पान करने की अत्यधिक अभिलाषी आँखें
अन्य :
‘आँखिन बानि अनोखी,
प्रीति पगी अंखियानि,
अँखिया दुखियानि कुबानि परी,
दीठि थकी अनुराग छकी,
लाजनि लपेटी चितवनि भेद भय भरि’ आदि
पंत :
विशेषणों का सम्यक प्रयोग -
उन्मन गुंजन,
महासंगीत
वन अकलुष,
अमृत सत्य
स्वप्निल मन,
अमृत प्रीति
तंद्रिल तन
श्यामल छवि
नील = नील विहग, नील गगन, नील जलज
मधु = मधु पत्र, मधुक्षण, मधुरस
स्वर्ण = स्वर्ण किरण, स्वर्णहंस, स्वर्णिम स्पर्श
दिनकर :
विशेषणों का सटीक प्रयोग / शोध की संभावना
भीगी तान, दहकती वायु, मीठी उमंग, चकित पुकार, तरंगित यौवन, अस्फुट यौवन, मीठी धूप, शीतल सुधा, शुचि स्मिति, मृदु स्मिति
रंग विशेषण –
शुभ्रमेघ, श्वेत फूल, सफ़ेद किरण,
नीलांतरिक्ष, नीले अँधियाले, नील कुसुम
विशेषण पदबंध –
इच्छा बहरे नयन,
कजरारे लोचन,
गले पिघले अनल,
व्यग्र व्याकुल प्राण,
अगम उत्ताल उच्छल सागर,
अज्ञेय :
विशेषणों का सम्यक प्रयोग -
तारों सजा फूहड़ निलज आकाश (इत्यलम)
लंबी अंधियाली किसी घाटी में (इंद्रधनु रौंदे हुए ये)
फुटकी की लहरिल उड़ान (इंद्रधनु रौंदे हुए ये)
मरोड़ी हुई देह वल्ली (आँगन के पार द्वार)
छरहरे पेड़ की नई रंगीली फुनगी (आँगन के पार द्वार)
लहलहाती हवा में कलगी छरहरी बाजरे की (हरी घास पर क्षण भर).
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* हम अपने ही भंडार से अवगत नहीं हैं.
आज आवश्यकता है कि हम साहित्य और लोक में बिखरे भाषा संबंधी इस खजाने को पहचानें. [सूर]
* तुलसी की भाषा का रूप समन्वयात्मक है.
कहीं उसे किसी शब्द से घृणा नहीं.
आज के लिए अनुकरणीय. [तुलसी]
* मौन तथा व्यंजना -
मौन भी अभिव्यंजना है:/ जितना तुम्हारा सच है/ उतना ही कहो. [अज्ञेय]'
O
* 29-30 मार्च 2014 को बेलगाम (कर्नाटक) में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी 'पुण्य स्मरण' में दूसरे दिन डॉ. दिलीप सिंह की अध्यक्षता में संपन्न डॉ. कैलाश चंद्र भाटिया पर केंद्रित विचार सत्र में प्रस्तुत डॉ. ऋषभ देव शर्मा के व्याख्यान की आधार-सामग्री.