गगनांचल (जुलाई-अक्टूबर 2013) - भारतेंदु विशेषांक - में
प्रकाशित निबंध (पृष्ठ 159-161)
भारतेंदु हरिश्चंद्र (9 सितंबर, 1850
– 7 जनवरी, 1885) आधुनिक संदर्भ में हिंदी के पहले साहित्यशास्त्री, आचार्य और आलोचक
हैं. उन्होंने सैद्धांतिक और व्यावहारिक आलोचना का सूत्रपात्र किया. ‘नाटक अथवा
दृश्यकाव्य सिद्धांत विवेचन’ शीर्षक पुस्तक में उन्होंने अपने साहित्य सिद्धांतों
को साफ़ सुथरे ढंग से पेश किया है. वे स्वयं प्रयोगधर्मी ना-टककार थे अतः उन्होंने
देशकाल के अनुरूप हिंदी नाटक के लिए उपादेय सिद्धांत स्थिर करने का प्रयास किया.
इन सिद्धांतों को संस्कृत और अंग्रेजी दोनों के नाट्यग्रंथों के आधार पर तैयार
किया गया है. उन्होंने ‘उपक्रम’ में यह सूचना भी दी है कि इसके लिखित विषय दशरूपक,
भारतीय नाट्यशास्त्र, साहित्यदर्पण, काव्यप्रकाश, विल्सन्स हिंदू थियेटर्स, लाइफ
ऑफ द एमिनेंट पर्सन्स, ड्रमेटिस्टस एंड नोवेलिस्ट्स, हिस्ट्री ऑफ द इटालिक
थियेटर्स और आर्यदर्शन से लिए गए हैं. उन्होंने यह आशा भी जताई है कि हिंदी भाषा
में नाटक बनाने वालों के लिए यह ग्रन्थ बहुत ही उपयोगी होगा.
संसार-नाटक के रचनाकार मायाजवनिकाच्छन्न
जगन्नाटकसूत्रधार मदंगरंगनायक नटनागर को समर्पित यह विवेचन नाटक के अर्थ और प्रकारों
की चर्चा के साथ आरंभ होता है. अत्यंत सरल परिभाषा देते हैं भारतेंदु जी – नाटक
शब्द का अर्थ है नट लोगों की क्रिया. इसी प्रकार दृश्य काव्य वह है जो कवि की वाणी
को उसके हृदयगत आशय और हावभाव सहित प्रत्यक्ष दिखला दे. वे बताते हैं कि प्राचीन
समय में अभिनय, नाट्य, नृत्य, नृत्त, तांडव और लास्य इन पाँच भेदों में बँटा हुआ
था. इनमें नाट्य में नाटक का समावेश है जिसे उन्होंने ‘काव्य का सर्वगुण संयुक्त
खेल’ कहा है और इसके भेदों की चर्चा की है.
भारतेंदु नाटक के भरतमुनि-प्रोक्त
प्रकारों से संतुष्ट नहीं दिखाई देते और नवीन भेद प्रस्तावित करते हैं. यूरोप और
बंगदेश के प्रभाव से हिंदी में रचे जा रहे अपने समकालीन नाटकों को ध्यान में रखते
हुए भारतेंदु ने नवीन नाटकों के दो भेद बताए हैं – नाटक और गीतिरूपक. फिर इनके भी
भेद हैं – संयोगांत, वियोगांत और मिश्र. भारतेंदु ने यह लक्षित किया कि प्राचीन
नाटकों की अपेक्षा नवीन नाटकों की परम मुख्यता बारंबार दृश्यों के बदलने में है और
इसी हेतु एक अंक में अनेक अनेक गर्भांकों की कल्पना की जाती है क्योंकि इस समय में
नाटक के खेलों के साथ विविध दृश्यों का दिखलाना भी आवश्यक समझा गया है.
भारतेंदु हरिश्चंद्र हिंदी नवजागरण
के पुरोधा थे. वे नाटक सहित समस्त साहित्य और लोकसाहित्य का उपयोग बूढ़े भारत की
नसों में सोई हुई जवानी को जगाने के लिए करना चाहते थे. एक शास्त्रकार के रूप में
भी उनकी यह मौलिक दृष्टि निरंतर सक्रिय दिखाई देती है – और नाट्यकार के रूप में
भी. इसी कारण उन्होंने नवीन नाटकों की रचना के पाँच प्रयोजन निर्धारित किए और
उन्हें स्वयं अपने नाटकों में चरितार्थ करके दिखाया – 1. शृंगार, 2. हास्य, 3.
कौतुक, 4. समाजसंस्कार और 5. देशवत्सलता. कहना न होगा कि इनमें अंतिम दो प्रयोजन भारतेंदु
की देशकाल-सापेक्ष प्रतिभा की मौलिक देन हैं. वे स्पष्ट करते हैं कि “’’समाजसंस्कार
के लिए नाटकों में देश की कुरीतियों का
दिखलाना मुख्य कर्तव्य कर्म है. यथा शिक्षा की उन्नति, विवाह संबंधी कुरीति निवारण
अथवा धर्म संबंधी अन्यान्य विषयों में संशोधन इत्यादि. किसी प्राचीन कथा भाग का इस
बुद्धि से संगठन कि देश की उससे कुछ उन्नति हो, इसी प्रकार के अंतर्गत है. (इसके
उदाहरण सावित्री चरित्र, दुःखिनीबाला, बालविवाह विदूषक, जैसा काम वैसा ही परिणाम,
जय नारसिंह की, चक्षुदान इत्यादि.). देशवत्सल नाटकों का उद्देश्य पढ़ने वालों या
देखने वालों के हृदय में स्वदेशानुराग उत्पन्न करना है और ये प्रायः करुणा और वीर
रस के होते हैं. (उदाहरण भारत जननी, नीलदेवी, भारत दुर्दशा इत्यादि).’’” दरअसल समाज
संस्कार और देशवत्सलता ही भारतेंदु और उनके युग के साहित्य को समझने की कुंजी है.
‘नाटक’ में आगे भारतेंदु ने नाटक
रचना पर प्रकाश डालते हुए निरंतर सामाजिक (दर्शक/ पाठक) को केंद्र में रखा है. क्योंकि
अंततः रचना का उद्देश्य उसे ही तो संस्कारित करना है. भारतेंदु सामाजिकों की रुचि के
परिवर्तन को लक्षित करते हैं और चाहते हैं कि नाटक की रीति में भी तदनुकूल
परिवर्तन हो. एक बड़ा काम उन्होंने यह किया कि नाटक को सामाजिक यथार्थ के साथ जोड़ा.
वे चाहते थे कि आज के नाटक में ‘लोकातीत असंभव कार्य की अवतारणा’ से गुरेज किया
जाए तथा ‘अस्वाभाविक सामग्री’ और ‘अलौकिक विषय’ के स्थान पर स्वाभाविक रचना की
जाए. स्पष्ट है कि वे नाट्यवस्तु के लौकिक संभाव्य और यथार्थपरक होने की माँग कर
रहे थे. नाट्य लेखन और प्रस्तुतीकरण की रूढ़ियों को भी उन्होंने तोड़ा. “’’अब नाटक
में आशीः प्रभृति नाट्यालंकार, कहीं ‘प्रकरी’, कहीं ‘विलोभन’, कहीं ‘सम्फेट’,
‘पंचसंधि’, वा ऐसे ही अन्य विषयों की कोई आवश्यकता नहीं बाकी रही. संस्कृत नाटक की
भाँति हिंदी नाटक में इनका अनुसंधान करना, वा किसी नाटकांग में इनको यत्नपूर्वक रखकर
हिंदी नाटक लिखना व्यर्थ है’’.”
आगे प्रतिकृति (scenes), जवनिका
(drop scene), प्रस्तावना और उसके भेद, वृत्ति,
उद्देश्यबीज, वस्तु, अभिनय आदि की चर्चा के उपरांत नाटक में निषिद्ध विषयों
(विरोधक) की भी चर्चा की गई है. नायक-नायिका के गुणों के बाद परिच्छद विवेक अर्थात
वेश औचित्य का उल्लेख है. नाटक रचना
प्रणाली की सोदाहरण व्याख्या की गई है. कालिदास, भवभूति और शेक्सपियर की श्रेष्ठता
की चर्चा भी यहाँ है. भारतेंदु ने इन नाटककारों की कालजयी कीर्ति का आधार ‘मनुष्य
प्रकृति’ की इनकी समझ को माना है. और नाटककार को यह परामर्श दिया है कि ‘’“मानवप्रकृति
की समालोचना करनी हो तो नाना प्रकार के लोगों के साथ कुछ दिन वास करै. तथा नाना
प्रकार के समाज में गमन करके विविध लोगों का आलाप सुनै तथा नाना प्रकार के ग्रंथ अध्ययन
करै, वरंच समय में अश्वरक्षक, गोरक्षक, दास, दासी, ग्रामीण, दस्यु प्रभृति नीच
प्रकृति और सामान्य लोगों के साथ कथोपकथन करै. यह न करने से मानवप्रकृति समालोचित नहीं
होती. मनुष्य लोगों की मानसिक वृत्ति परस्पर जिस प्रकार अदृश्य है उन लोगों के हृदयस्थभाव
भी उसी रूप अप्रत्यक्ष हैं. केवल बुद्धि वृत्ति की परिचालना द्वारा तथा जगत के
कतिपय बाह्य कार्य पर सूक्ष्म दृष्टि रखकर उसके अनुशीलन में प्रवृत्त होना होता
है. और किसी उपकरण द्वारा नाटक लिखना झख मारना है. राजनीति, धर्म्मनीति, आन्वीक्षिकी,
दंडनीति, संधि, विग्रह प्रभृति राजगुण, मंत्रणा चातुरी, आद्य, करुणा प्रभृति रस,
विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी भाव तथा सात्विक भाव तथा व्यय, वृद्धि, स्थान प्रभृति
त्रिवर्ग की समालोचना में सम्यक रूप समर्थ हो - तब नाटक लिखने को लेखनी धारण
करैं.”’’ आगे रस वर्णन किया गया है. इस
संबंध में यह विचारणीय है कि भारतेंदु ने भरत-प्रणीत रसों के अतिरिक्त भक्ति, सख्य,
वात्सल्य और आनंद – ये चार रस और माने हैं. ‘कविवचन सुधा’ में प्रकाशित एक पत्र
में भारतेंदु ने नए रसों की संकल्पना को स्वीकार न करने वालों की आलोचना करते हुए इन
चारों नए रसों का पृथक पृथक स्थापन किया है.इसके अलावा ‘नाटक’ में रस विरोध पर
विचार करते हुए करुणा और शृंगार के संबंध की भी चर्चा की गई है. साथ ही यह
प्रतिपादित किया गया है कि “’’हाँ, नवीन (ट्रेजडी) वियोगांत नाटक लेखक तो इस रस
विरोध करने को बाधित हैं.”’’
‘अन्य स्फुट विषय’ के अंतर्गत कुछ
नायिका भेद और अलंकारशास्त्र जानने की आवश्यकता के अलावा यह कहा गया है कि आजकल की
सभ्यता के अनुसार नाटक रचना में उद्देश्यफल उत्तम निकलना आवश्यक है. इसका अर्थ है
कि वे नाटक का उपयोग समकालीन संदर्भ में लोकशिक्षा के लिए करना चाहते थे. नाटक की
कथा, पात्रों के स्वर, पात्रों की दृष्टि, पात्रों के भाव, पात्रों का फिरना और पात्रों
का परस्पर कथोपकथन संबंधी नियम भी एक कुशल नाट्य निर्देशक की तरह भारतेंदु ने
निर्धारित किए हैं. यथा (1) प्रारंभ में ही कहानी के मध्य या अंत का बोध न हो, (2)
स्वर का आरोह-अवरोह भाव के अनुरूप हो, (3) संवाद इस तरह न बोले जाएँ जैसे कि दर्शकों
से बात की जा रही हो, (4) नृत्य की भांति रंगस्थल पर पात्रों को हस्तक भाव व मुख-नेत्र-भ्रू
के सूक्ष्मतर भाव दिखलाने की आवश्यकता
नहीं, (5) स्वर भाव और यथायोग्य स्थान पर अंग-भंगी भाव ही दिखलानी चाहिए [अर्थात नाटक
में नृत्य की भाँति मुद्राओं और भंगिमाओं का प्रयोग अस्वाभाविक है. अतः स्वाभाविक
देहभाषा ही स्वीकार्य है],(6) यथासंभव दर्शकों की ओर पीठ न हो, (7) संवादों में काव्यत्व
के स्थान पर हृदय के भावबोधक वाक्यों का प्रयोग ही उचित है. कहना न होगा कि ये
नियम नाटक को जनपदसुखबोध्य बनाने के साथ साथ उसे सामाजिकों को संबोधित करने का
सशक्त माध्यम भी बनाने की दृष्टि से निर्धारित किए गए हैं. इसके बाद भारतेंदु ने
नाटकों के इतिहास पर प्रकाश डाला है और ‘भाषा नाटक’ शीर्षक खंड में आरंभिक हिंदी
नाटकों पर चर्चा के अनंतर यूरोप में नाटकों के प्रचार पर भी टिप्पणी की है.
नाटक संबंधी भारतेंदु के इस विवेचन को उनके एक और छोटे से
आलेख के साथ जोड़कर देखा जाए तो समाजसंस्कार तथा देशवत्सलता की उनकी धारणा और अधिक स्पष्ट
हो सकती है. ‘जातीय संगीत’ शीर्षक इस लेख से भारतेंदु की लोकव्यापी दृष्टि और सामान्य
जन से उनके लगाव का पता चलता है. हमारे यहाँ सबसे पहले ग्रामगीतों का महत्व शायद भारतेंदु
हरिश्चंद्र ने ही समझा था. वे लोकगीतों को समाजसंस्कार के लिए इस्तेमाल करने की
वकालत करते थे. उनके नाटकों में लोकशैली का प्रयोग उनकी इसी मान्यता का परिणाम है.
वे बड़े बड़े लेखों और काव्यों की तुलना में लोकगीतों और ग्रामगीतों को भारतीय जनता
से जुड़ने का सबसे सार्थक माध्यम मानते थे. इस व्यापक लोक-माध्यम को ही उन्होंने ‘जातीय
संगीत’ की संज्ञा दी. वे चाहते थे कि इस माध्यम का उपयोग अर्धशिक्षितों और
अशिक्षितों तक समाजसंस्कार और देशवत्सलता के संदेश को पहुँचाने के लिए किया जाए. एक
यथार्थवादी समाजचेता देशवत्सल सिद्धांतकार के रूप में उन्होंने ‘जातीय संगीत’ का
उपयोग करने के लिए ऐसे विषयों पर नाटक, उपन्यास या काव्य रचना का आग्रह किया जो जनता
के जागरण का हेतु बन सकें. बड़ी रचनाओं की तुलना में उन्होंने छोटे छोटे ‘सरल देशभाषा’
में रचित गीतों और छंदों को प्राथमिकता दी है. ऐसे जातीय साहित्य के लिए भारतेंदु
ने कुछ विषयों की सूची भी दी है जो इस प्रकार है –
Ø “बाल्य
विवाह – इसमें स्त्री का बालक पति होने का दुःख, फिर परस्पर मन न मिलने का वर्णन, उससे
अनेक भावी अमंगल और अप्रीतिजनक परिणाम.
Ø जन्मपत्री
की विधि – इससे बिना मन मिले स्त्री-पुरुष का विवाह और इसकी अशास्त्रता.
Ø बालकों
की शिक्षा – इसकी आवश्यकता, प्रणाली, शिष्टाचारशिक्षा, व्यवहारशिक्षा आदि.
Ø बालकों
से बर्ताव – इसमें बालकों के योग्य रीति पर बर्ताव न करने में उनका नाश होना.
Ø अंगरेजी
फैशन – इससे बिगड़कर बालकों का मद्यादि सेवन और स्वधर्म विस्मरण.
Ø स्वधर्मचिंता
– इसकी आवश्यकता.
Ø भ्रूणहत्या
और शिशुहत्या – इसके प्रचार के कारण, उसके मिटाने के उपाय.
Ø फूट
और बैर – इसके दुर्गुण, इसके कारण भारत की क्या क्या हानि हुई इसका वर्णन.
Ø मैत्री
और ऐक्य – इसके बढ़ने के उपाय, इसके शुभ फल.
Ø बहुजातित्व
और बहुभक्तित्व – के दोष, इससे परस्पर चित्त का न मिलना, इसी से एक दूसरे के सहाय
में असमर्थ होना.
Ø योग्यता
– अर्थात केवल वाणी का विस्तार न करके सब कामों के करने की योग्यता पहुँचाना और
उदाहरण दिखलाने का विषय.
Ø पूर्व्वज
आर्यों की स्तुति – इसमें उनके शौर्य्य, औदार्य्य, सत्य, चातुर्य्य, विद्यादि
गुणों का वर्णन.
Ø जन्मभूमि
– इससे स्नेह और इसके सुधारने की आवश्यकता का वर्णन.
Ø आलस्य
और संतोष – इनकी संसार के विषय में निंदा और इससे हानि.
Ø व्यापार
की उन्नति – इसकी आवश्यकता और उपाय.
Ø नशा
– इसकी निंदा इत्यादि.
Ø अदालत
– इसमें रुपया व्यय करके नाश होना और आपस में न समझने का परिणाम.
Ø हिंदुस्तान
की वस्तु हिंदुस्तानियों को व्यवहार करना – इसकी आवश्यकता, इसके गुण, इसके न होने
से हानि का वर्णन.
Ø भारतवर्ष
के दुर्भाग्य का वर्णन – करुणा रस संवलित.”
जातीय संगीत के ये वांछित विषय भारतीय साहित्य अथवा राष्ट्रीय
साहित्य की संकल्पना के भी आधार-बिंदु बन सकते हैं. इस विषयसूची को अगर भारतेंदु
के नाट्यमूल्यों के साथ जोड़कर देखा जाए तो यह कहने में कोई अत्युक्ति नहीं होगी कि
भारतेंदु हरिश्चंद्र हिंदी में केवल आधुनिकता ही नहीं बल्कि उत्तरआधुनिकता के भी
पुरोधा थे. उन्होंने साहित्य, समाज और जीवन की निकटता पर सबसे अधिक जोर दिया और भारतीय
व पाश्चात्य नाट्य परंपराओं का विखंडन करके अपने समय की आवश्यकता के अनुरूप हिंदी
के नाट्यशास्त्र की रचना की. वे सही अर्थों में समाजभाषावैज्ञानिक भी थे. प्रमाण
के रूप में निज भाषा की उन्नति को सब उन्नति का मूल मानने वाले भारतेंदु के ‘हिंदी
भाषा’ शीर्षक लेख (1883 ई) को देखा जा सकता है जिसमें उन्होंने लिखा है कि ‘’भाषा
के तीन विभाग होते हैं. यथा घर में बोलने की भाषा, कविता की भाषा और लिखने की
भाषा.’’ साथ ही उन्होंने विभिन्न बोलियों, कजली की कविता, बंग भाषा की कविता, नई
भाषा की कविता आदि के नमूनों के बाद लिखने की भाषा के विविध नमूने देते हुए शुद्ध
हिंदी, मिश्रित हिंदी और उर्दू ही नहीं कलकत्ता, काशी व दक्षिण के लोगों की हिंदी,
अंग्रेजों की हिंदी और रेलवे की भाषा जैसे विभिन्न वैविध्यों और प्रयुक्तियों की
भी सोदाहरण चर्चा की है. इन तमाम भाषारूपों के बीच उन्होंने ऐसी भाषा को लेखकों के
लिए ग्राह्य माना है जिसमें संस्कृत के शब्द थोड़े हों और जिसका आधार तद्भवप्रधान जनप्रचलित
हिंदी हो. स्पष्ट है कि नाटक सहित समस्त साहित्य की कसौटी भारतेंदु के लिए समाजसंस्कार
और देशवत्सलता ही थी तथा वस्तु, तकनीक और भाषा तीनों के चयन का आधार भी उन्होंने
इन्हें ही बनाया.
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डॉ ऋषभदेव शर्मा, आचार्य
एवं अध्यक्ष, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद,
हैदराबाद – 500004, मोबाइल – 08121435033, ईमेल – rishabhadeosharma@yahoo.com