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बुधवार, 22 जनवरी 2014

हिंदी के विकास में भारतीय भाषाओं का योगदान



हिंदी अकादमी, हैदराबाद
अध्यक्ष : डॉ. ऋषभदेव शर्मा / अध्यक्षीय टिप्पणी के मुख्य बिंदु 

विषय : हिंदी के विकास में भारतीय भाषाओं का योगदान

@ हिंदी अकादमी – प्रो. बैजनाथ चतुर्वेदी और मधुसूदन चतुर्वेदी.

@ संकल्य – प्रो. वसंत चक्रवर्ती, संपादक के रूप में मेरा जुडाव. सम्प्रति- प्रो. मोहन सिंह, प्रो. शुभदा वांजपे. प्रकाशक- डॉ. गोरखनाथ तिवारी. विशेषांक – बच्चन, केदार/नागार्जुन, दलित विमर्श, जनजातीय विमर्श.

@ व्याख्यानमाला :  प्रो. एम. वेंकटेश्वर, मैं, प्रो.गंगाप्रसाद विमल. आज – डॉ. राम चंद्र राय.


1. बहुभाषिकता = सहज भारतीय भाषिक यथार्थ. चंदरबरदाई षड्भाषाप्रवीण. नारायण भट्ट संस्कृत, प्राकृत, पैशाची, आंध्र, कन्नड़. श्रीनाथ संस्कृत, प्राकृत, शौरसेनी.

2. आंध्र की देन : कुमारिल भट्ट, मल्लिनाथ, पंडितराज जगन्नाथ, नागार्जुन, नारायण तीर्थ (श्रीकृष्ण तरंगिणी), हाल. वल्लभाचार्य, गोरक्षनाथ(न.नागप्पा),

3. राधा<नप्पिन्ने.

4. भक्ति द्राविडी उपजी की तरह ही शृंगार भी द्रविड़मूलीय ( डॉ. एम. शेषन).

5. हिंदी आदि में द्रविड़ मूल के 450 से अधिक शब्द – अक्का, अत्ता, अटवी, अम्बा, कला, कुटि, कूल, मीन, नीर, नाना, पत्तन.

6. हिंदी कृदंत रूपों के अंत में समापक क्रिया जोड़ने की प्रवृत्ति < द्रविड़ प्रभाव : करना पडा, करना चाहिए.

7. (संस्कृत में गद्यकाव्य का वाक्यारम्भ क्रिया से.) हिंदी वाक्य निर्माण पर द्रविड़ प्रभाव : कर्ता - कर्म - क्रिया.

8. अनुवाद :  हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के विकास का अन्योन्याश्रय संबंध.

9. तुलनात्मक साहित्य / भारतीय साहित्य

10. अंतर्विद्यावर्ती अध्ययन.

11. कई उत्तरआधुनिक विमर्शों का उदय इतर भारतीय भाषाओं के प्रभाव से हिंदी में.

12. हिंदीतर भाषी हिंदी साहित्यकारों की सुदीर्घ परंपरा :

सोमवार, 20 जनवरी 2014

‘तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ’ पढ़ते हुए

[हैदराबाद के हिंदी दैनिक 'मिलाप' ने 19 जनवरी 2014 के अपने रविवारीय परिशिष्ट 'फुर्सत का पन्ना' में यह समीक्षा स्थानाभाव के कारण अंग-भंग करके छापी है. नीचे पूरा आलेख प्रस्तुत है.]

‘तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ’ पढ़ते हुए 



तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ

 ऋषभ देव शर्मा


2013

 पृष्ठ – 204

 मूल्य – रु. 395
 जगत भारती प्रकाशन, सी-3-77, दूरवाणी नगर, 
ए डी ए, नैनी, इलाहाबाद – 211008 (उत्तर प्रदेश )

डॉ. ऋषभ देव शर्मा (1957) कई दशक से दक्षिण भारत में रहकर निष्ठापूर्वक हिंदी भाषा और साहित्य की सेवा कर रहे हैं. इस अवधि में आपने एक सफल अध्यापक, जिज्ञासु अनुसंधानकर्ता, सुधी समीक्षक, विवेकशील संपादक और ओजस्वी वक्ता के रूप में ख्याति अर्जित की है. आपकी काव्य कृतियों में तेवरी (1982), तरकश (1996), ताकि सनद रहे (2002), देहरी (स्त्री पक्षीय कविताएँ, 2011), प्रेम बना रहे (2012) और सूँ साँ माणस गंध (2013), आलोचना कृतियों में तेवरी चर्चा (1987), हिंदी कविता : आठवाँ-नवाँ दशक (1994), साहित्येतर हिंदी अनुवाद विमर्श (2000) और कविता का समकाल (2011) तथा संपादित ग्रंथों में अनुवाद का सामयिक परिप्रेक्ष्य (1999, 2009), भारतीय भाषा पत्रकारिता (2000), अनुवाद : नई पीठिका नए संदर्भ (2003), स्त्री सशक्तीकरण के विविध आयाम (2004), प्रेमचंद की भाषाई चेतना (2006) एवं भाषा की भीतरी परतें (2012) जैसी पुस्तकें बहुप्रशंसित रही हैं. एक खास बात जो डॉ. शर्मा को अपने अनेक समकालीन और समशील रचनाकारों से अलग करती है वह यह है कि आप निरंतर नई प्रतिभाओं को प्रेरित और पोषित करते हैं. शायद यही कारण है कि उन्हें हिंदीतरभाषी हिंदीसेवियों का बड़ा स्नेह मिला है. लगभग एक दशक पूर्व प्रो. दिलीप सिंह ने उनके संबंध में ठीक ही लिखा था कि “हैदराबाद के हिंदी जगत् में ऋषभदेव जी अत्यंत लोकप्रिय हैं. सब उनका साथ चाहते हैं, और वे भी किसी को निराश नहीं करते.” यह लोकप्रियता उन्होंने तेलुगु भाषा और साहित्य के प्रति अपने प्रेम के बल पर अर्जित की है. इस प्रेम की ही परिणति है उनका सद्यःप्रकाशित निबंध संग्रह ‘तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ’ (2013).

इस पुस्तक (तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ) में छह खंड हैं जिनमें 36 आलेख और 1 विस्तृत शोधपत्र सम्मिलित हैं. पहले खंड में आंध्र के महान भक्त कवियों अन्नमाचार्य, रामदास, क्षेत्रय्या, पोतना, मोल्ला और वेंगमाम्बा तथा संत कवि वेमना पर केंद्रित हिंदी पुस्तकों का विवेचन करते हुए भारतीय साहित्य में भक्ति आंदोलन के योगदान पर कुछ टिप्पणियाँ शामिल हैं. दूसरा खंड आधुनिक तेलुगु कविता को समर्पित है. इसमें जिन अनेक तेलुगु कवियों की अनूदित कृतियों की विवेचना की गई है उनमें श्रीश्री, डॉ. सी. नारायण रेड्डी, कालोजी, दिगंबर कविगण (नग्नमुनि, निखिलेश्वर, चेरबंड राजु, महास्वप्न, ज्वालामुखी और भैरवय्या), पेर्वारम, अजंता, वासा प्रभावती, डॉ. एस. शरत ज्योत्स्ना रानी, मुस्लिमवादी कविगण (एस. ए. अज़ीम, अली, ख्वाजा, आजम, दिलावर, शाहजहाना, सिकिंदर, गौस मोहिउद्दीन और स्काई बाबा), डॉ. एन. गोपि, डॉ. शिखामणि, डॉ. सी. भवानी देवी, डॉ. पी. विजयलक्ष्मी पंडित, वाणी रंगाराव, डॉ. मसन चेन्नप्पा और डॉ. एस. वी. सत्यनारायण के नाम शामिल हैं. इसी प्रकार तीसरे और चौथे खंड में कथा साहित्य और नाट्य साहित्य के अनुवादों की तटस्थ समीक्षा देखी जा सकती है. यहाँ विवेचित कृतियाँ हैं बैरिस्टर पार्वतीशम (मोक्कपाटी नरसिंह शास्त्री), द्रौपदी (डॉ. यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद), नई इमारत के खंडहर (सय्यद सलीम), अहल्या (चलसानी वसुमती), सोने की वर्षा (डॉ. भार्गवी राव), बारिश थम गई (एल. आर. स्वामी), आक्रमण कब का हो चुका (पेद्दिन्टि अशोक कुमार), पंचामृत (डॉ. डी. विजय भास्कर) तथा अक्षर (नंदि राजु सुब्बाराव). साथ ही, आरंभिक भारतीय उपन्यासों पर एक शोधग्रंथ (आर. एस. सर्राजू) और प्रतिनिधि तेलुगु कहानियों के 2 संकलनों की भी विवेचना की गई है जिसके कारण तेलुगु कथा साहित्य के संपूर्ण परिदृश्य का विहंगम अवलोकन संभव हो सका है. पाँचवे खंड में 4 आलेख हैं – तेलुगु साहित्य का परिवर्तनशील परिदृश्य, बीसवीं सदी का तेलुगु साहित्य, हिंदी तेलुगु तुलना और हिंदी में दक्षिण भारतीय साहित्य जिनमें क्रमशः निखिलेश्वर, डॉ. आई. एन. चंद्रशेखर रेड्डी, डॉ. शकीला खानम और डॉ. विजय राघव रेड्डी की हिंदी पुस्तकों के बहाने तेलुगु साहित्य के इतिहास, आलोचना और अनुवाद पक्ष की चर्चा की गई है. पुस्तक के छठे खंड में तेलुगु साहित्य के हिंदी अनुवाद की परंपरा और उसके प्रदेय पर केंद्रित 56 पृष्ठों का एक सुविस्तृत शोधपत्र प्रकाशित किया गया है. मुझे भी सहलेखक के रूप में इस शोधपत्र के लिए काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है. यह अपनी प्रकार का शायद पहला शोधपत्र है जिसमें अनुवाद परंपरा की चर्चा के बाद तेलुगु से अनूदित पाठों का गहराई से विश्लेषण करते हुए यह प्रतिपादित किया गया है कि हिंदी के भाषा समाज को ये अनुवाद किस प्रकार सामाजिक, सांस्कृतिक, भाषिक और साहित्यिक स्तर पर समृद्ध करते हैं. ‘भास्वर भारत’ (दिसंबर 2013) में प्रो. गोपाल शर्मा ने इस खंड को इस पुस्तक का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंश मानते हुए लिखा है “कहना न होगा कि इस विस्तृत खंड में हिंदी में आए तेलुगु साहित्य के कुछ पाठों से ही ज्ञात हो जाता है कि तेलुगु भाषासमाज की सांस्कृतिक विशेषताएं एक ओर तो समग्र भारत के समान है और दूसरी ओर इसमें किंचित इंद्रधनुषी विभिन्नताएँ भी हैं. तेलुगुभाषी लेखक समय-समय पर तेलुगु जीवन शैली का विवरण-विश्लेषण भी करते जाते हैं और हिंदी के पाठक समझ जाते हैं कि आंध्र जीवनशैली में किन-किन सांस्कृतिक चिह्नों का प्रयोग आज भी हो रहा है. इस प्रकार के तुलनात्मक समाजभाषावैज्ञानिक अध्ययन की हिंदी में यह पहली मिसाल देखने में आई है.” वस्तुतः यह अनुवाद का सेतुधर्म है और प्रो. शर्मा की यह पुस्तक इस सेतुधर्म को ही विशेष रूप से रेखांकित करती है. 

तेलुगु और हिंदी के भाषासमाजों के बीच इस साहित्यिक सेतु के निर्माण में मूल रचनाकारों और प्रस्तुत ग्रंथकार का संवाद अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. परंतु यहाँ यह कहना जरूरी है कि यह संवाद अनुवादकों के बल पर ही संभव हुआ है. प्रो. ऋषभ देव शर्मा ने इस पुस्तक में जिन 23 अनुवादकों के द्वारा अनूदित सामग्री का विवेचन किया है वे हैं डॉ. भीमसेन निर्मल, डॉ. एम. बी. वी. आई. आर. शर्मा, डॉ. निर्मलानंद वात्स्यायन, डॉ. एम. रंगैया, डॉ. पी. माणिक्यांबा, डॉ. जे.एल. रेड्डी, डॉ. टी. मोहन सिंह, प्रो. पी. आदेश्वर राव, डॉ. विजय राघव रेड्डी, डॉ. भागवतुल सीता कुमारी, डॉ. वाई. वेंकटरमण राव, आर. शांता सुंदरी, एस. शंकराचार्लु, निखिलेश्वर, पारनंदि निर्मला, डॉ. आर. सुमनलता, डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, जी. परमेश्वर, डॉ. म. लक्ष्मणाचारी, डॉ. वेन्ना वल्लभ राव, डॉ. के. श्याम सुंदर, डॉ. संतोष अलेक्स एवं डॉ. बी. विश्वनाथाचारी. वस्तुतः, जैसा कि प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने ‘भूमिका’ में निर्दिष्ट किया है, “यह ग्रंथ अनूदित साहित्य के प्रति ऋषभ देव शर्मा की सहज संवेदना को प्रदर्शित करता है. भारतीय संदर्भ में हिंदी में इतर भाषा से अनूदित साहित्य मूल भाषासमाज की सांस्कृतिक अस्मिता को समझने के लिए वृहत पाठक वर्ग को अवसर प्रदान करता है. यह ग्रंथ हिंदीभाषी पाठकों एवं शोधार्थियों के लिए तेलुगु साहित्य के गणनीय हिस्से को समझने में न केवल सहायक होगा बल्कि यह शोध के क्षेत्र में नई संभावनाओं को भी विकसित करेगा. तेलुगु साहित्य के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करने के लिए यह ग्रंथ उत्प्रेरक की भूमिका अवश्य निभाएगा.” 



अंत में, मैं यह उल्लेख करना चाहूँगी कि इस पुस्तक का समर्पण-वाक्य अत्यंत भावपूर्ण और श्लाघनीय है “समकालीन भारतीय कविता के उन्नायक ‘नानीलु’ के प्रवर्तक परम आत्मीय अग्रज कवि प्रो. एन. गोपि को सादर” समर्पित यह कृति हिंदी और तेलुगु साहित्यकारों के बीच भावपूर्ण स्नेह-संबंध की प्रतीक और प्रतिमान बन गई है. इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि प्रो. ऋषभ देव शर्मा की इस आलोचना कृति को हिंदी के साथ साथ तेलुगु समाज का भी भरपूर स्नेह प्राप्त होगा.
- गुर्रमकोंडा नीरजा  

बुधवार, 15 जनवरी 2014

भारतेंदु के नाट्यमूल्य

गगनांचल (जुलाई-अक्टूबर 2013) - भारतेंदु विशेषांक - में
प्रकाशित निबंध (पृष्ठ 159-161)


भारतेंदु हरिश्चंद्र (9 सितंबर, 1850 – 7 जनवरी, 1885) आधुनिक संदर्भ में हिंदी के पहले साहित्यशास्त्री, आचार्य और आलोचक हैं. उन्होंने सैद्धांतिक और व्यावहारिक आलोचना का सूत्रपात्र किया. ‘नाटक अथवा दृश्यकाव्य सिद्धांत विवेचन’ शीर्षक पुस्तक में उन्होंने अपने साहित्य सिद्धांतों को साफ़ सुथरे ढंग से पेश किया है. वे स्वयं प्रयोगधर्मी ना-टककार थे अतः उन्होंने देशकाल के अनुरूप हिंदी नाटक के लिए उपादेय सिद्धांत स्थिर करने का प्रयास किया. इन सिद्धांतों को संस्कृत और अंग्रेजी दोनों के नाट्यग्रंथों के आधार पर तैयार किया गया है. उन्होंने ‘उपक्रम’ में यह सूचना भी दी है कि इसके लिखित विषय दशरूपक, भारतीय नाट्यशास्त्र, साहित्यदर्पण, काव्यप्रकाश, विल्सन्स हिंदू थियेटर्स, लाइफ ऑफ द एमिनेंट पर्सन्स, ड्रमेटिस्टस एंड नोवेलिस्ट्स, हिस्ट्री ऑफ द इटालिक थियेटर्स और आर्यदर्शन से लिए गए हैं. उन्होंने यह आशा भी जताई है कि हिंदी भाषा में नाटक बनाने वालों के लिए यह ग्रन्थ बहुत ही उपयोगी होगा.

संसार-नाटक के रचनाकार मायाजवनिकाच्छन्न जगन्नाटकसूत्रधार मदंगरंगनायक नटनागर को समर्पित यह विवेचन नाटक के अर्थ और प्रकारों की चर्चा के साथ आरंभ होता है. अत्यंत सरल परिभाषा देते हैं भारतेंदु जी – नाटक शब्द का अर्थ है नट लोगों की क्रिया. इसी प्रकार दृश्य काव्य वह है जो कवि की वाणी को उसके हृदयगत आशय और हावभाव सहित प्रत्यक्ष दिखला दे. वे बताते हैं कि प्राचीन समय में अभिनय, नाट्य, नृत्य, नृत्त, तांडव और लास्य इन पाँच भेदों में बँटा हुआ था. इनमें नाट्य में नाटक का समावेश है जिसे उन्होंने ‘काव्य का सर्वगुण संयुक्त खेल’ कहा है और इसके भेदों की चर्चा की है.

भारतेंदु नाटक के भरतमुनि-प्रोक्त प्रकारों से संतुष्ट नहीं दिखाई देते और नवीन भेद प्रस्तावित करते हैं. यूरोप और बंगदेश के प्रभाव से हिंदी में रचे जा रहे अपने समकालीन नाटकों को ध्यान में रखते हुए भारतेंदु ने नवीन नाटकों के दो भेद बताए हैं – नाटक और गीतिरूपक. फिर इनके भी भेद हैं – संयोगांत, वियोगांत और मिश्र. भारतेंदु ने यह लक्षित किया कि प्राचीन नाटकों की अपेक्षा नवीन नाटकों की परम मुख्यता बारंबार दृश्यों के बदलने में है और इसी हेतु एक अंक में अनेक अनेक गर्भांकों की कल्पना की जाती है क्योंकि इस समय में नाटक के खेलों के साथ विविध दृश्यों का दिखलाना भी आवश्यक समझा गया है.

भारतेंदु हरिश्चंद्र हिंदी नवजागरण के पुरोधा थे. वे नाटक सहित समस्त साहित्य और लोकसाहित्य का उपयोग बूढ़े भारत की नसों में सोई हुई जवानी को जगाने के लिए करना चाहते थे. एक शास्त्रकार के रूप में भी उनकी यह मौलिक दृष्टि निरंतर सक्रिय दिखाई देती है – और नाट्यकार के रूप में भी. इसी कारण उन्होंने नवीन नाटकों की रचना के पाँच प्रयोजन निर्धारित किए और उन्हें स्वयं अपने नाटकों में चरितार्थ करके दिखाया – 1. शृंगार, 2. हास्य, 3. कौतुक, 4. समाजसंस्कार और 5. देशवत्सलता. कहना न होगा कि इनमें अंतिम दो प्रयोजन भारतेंदु की देशकाल-सापेक्ष प्रतिभा की मौलिक देन हैं. वे स्पष्ट करते हैं कि “’’समाजसंस्कार के लिए  नाटकों में देश की कुरीतियों का दिखलाना मुख्य कर्तव्य कर्म है. यथा शिक्षा की उन्नति, विवाह संबंधी कुरीति निवारण अथवा धर्म संबंधी अन्यान्य विषयों में संशोधन इत्यादि. किसी प्राचीन कथा भाग का इस बुद्धि से संगठन कि देश की उससे कुछ उन्नति हो, इसी प्रकार के अंतर्गत है. (इसके उदाहरण सावित्री चरित्र, दुःखिनीबाला, बालविवाह विदूषक, जैसा काम वैसा ही परिणाम, जय नारसिंह की, चक्षुदान इत्यादि.). देशवत्सल नाटकों का उद्देश्य पढ़ने वालों या देखने वालों के हृदय में स्वदेशानुराग उत्पन्न करना है और ये प्रायः करुणा और वीर रस के होते हैं. (उदाहरण भारत जननी, नीलदेवी, भारत दुर्दशा इत्यादि).’’” दरअसल समाज संस्कार और देशवत्सलता ही भारतेंदु और उनके युग के साहित्य को समझने की कुंजी है.

‘नाटक’ में आगे भारतेंदु ने नाटक रचना पर प्रकाश डालते हुए निरंतर सामाजिक (दर्शक/ पाठक) को केंद्र में रखा है. क्योंकि अंततः रचना का उद्देश्य उसे ही तो संस्कारित करना है. भारतेंदु सामाजिकों की रुचि के परिवर्तन को लक्षित करते हैं और चाहते हैं कि नाटक की रीति में भी तदनुकूल परिवर्तन हो. एक बड़ा काम उन्होंने यह किया कि नाटक को सामाजिक यथार्थ के साथ जोड़ा. वे चाहते थे कि आज के नाटक में ‘लोकातीत असंभव कार्य की अवतारणा’ से गुरेज किया जाए तथा ‘अस्वाभाविक सामग्री’ और ‘अलौकिक विषय’ के स्थान पर स्वाभाविक रचना की जाए. स्पष्ट है कि वे नाट्यवस्तु के लौकिक संभाव्य और यथार्थपरक होने की माँग कर रहे थे. नाट्य लेखन और प्रस्तुतीकरण की रूढ़ियों को भी उन्होंने तोड़ा. “’’अब नाटक में आशीः प्रभृति नाट्यालंकार, कहीं ‘प्रकरी’, कहीं ‘विलोभन’, कहीं ‘सम्फेट’, ‘पंचसंधि’, वा ऐसे ही अन्य विषयों की कोई आवश्यकता नहीं बाकी रही. संस्कृत नाटक की भाँति हिंदी नाटक में इनका अनुसंधान करना, वा किसी नाटकांग में इनको यत्नपूर्वक रखकर हिंदी नाटक लिखना व्यर्थ है’’.”

आगे प्रतिकृति (scenes), जवनिका (drop scene), प्रस्तावना और उसके भेद, वृत्ति, उद्देश्यबीज, वस्तु, अभिनय आदि की चर्चा के उपरांत नाटक में निषिद्ध विषयों (विरोधक) की भी चर्चा की गई है. नायक-नायिका के गुणों के बाद परिच्छद विवेक अर्थात वे औचित्य का उल्लेख है. नाटक रचना प्रणाली की सोदाहरण व्याख्या की गई है. कालिदास, भवभूति और शेक्सपियर की श्रेष्ठता की चर्चा भी यहाँ है. भारतेंदु ने इन नाटककारों की कालजयी कीर्ति का आधार ‘मनुष्य प्रकृति’ की इनकी समझ को माना है. और नाटककार को यह परामर्श दिया है कि ‘’“मानवप्रकृति की समालोचना करनी हो तो नाना प्रकार के लोगों के साथ कुछ दिन वास करै. तथा नाना प्रकार के समाज में गमन करके विविध लोगों का आलाप सुनै तथा नाना प्रकार के ग्रंथ अध्ययन करै, वरंच समय में अश्वरक्षक, गोरक्षक, दास, दासी, ग्रामीण, दस्यु प्रभृति नीच प्रकृति और सामान्य लोगों के साथ कथोपकथन करै. यह न करने से मानवप्रकृति समालोचित नहीं होती. मनुष्य लोगों की मानसिक वृत्ति परस्पर जिस प्रकार अदृश्य है उन लोगों के हृदयस्थभाव भी उसी रूप अप्रत्यक्ष हैं. केवल बुद्धि वृत्ति की परिचालना द्वारा तथा जगत के कतिपय बाह्य कार्य पर सूक्ष्म दृष्टि रखकर उसके अनुशीलन में प्रवृत्त होना होता है. और किसी उपकरण द्वारा नाटक लिखना झख मारना है. राजनीति, धर्म्मनीति, आन्वीक्षिकी, दंडनीति, संधि, विग्रह प्रभृति राजगुण, मंत्रणा चातुरी, आद्य, करुणा प्रभृति रस, विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी भाव तथा सात्विक भाव तथा व्यय, वृद्धि, स्थान प्रभृति त्रिवर्ग की समालोचना में सम्यक रूप समर्थ हो - तब नाटक लिखने को लेखनी धारण करैं.”’’  आगे रस वर्णन किया गया है. इस संबंध में यह विचारणीय है कि भारतेंदु ने भरत-प्रणीत रसों के अतिरिक्त भक्ति, सख्य, वात्सल्य और आनंद – ये चार रस और माने हैं. ‘कविवचन सुधा’ में प्रकाशित एक पत्र में भारतेंदु ने नए रसों की संकल्पना को स्वीकार न करने वालों की आलोचना करते हुए इन चारों नए रसों का पृथक पृथक स्थापन किया है.इसके अलावा ‘नाटक’ में रस विरोध पर विचार करते हुए करुणा और शृंगार के संबंध की भी चर्चा की गई है. साथ ही यह प्रतिपादित किया गया है कि “’’हाँ, नवीन (ट्रेजडी) वियोगांत नाटक लेखक तो इस रस विरोध करने को बाधित हैं.”’’

‘अन्य स्फुट विषय’ के अंतर्गत कुछ नायिका भेद और अलंकारशास्त्र जानने की आवश्यकता के अलावा यह कहा गया है कि आजकल की सभ्यता के अनुसार नाटक रचना में उद्देश्यफल उत्तम निकलना आवश्यक है. इसका अर्थ है कि वे नाटक का उपयोग समकालीन संदर्भ में लोकशिक्षा के लिए करना चाहते थे. नाटक की कथा, पात्रों के स्वर, पात्रों की दृष्टि, पात्रों के भाव, पात्रों का फिरना और पात्रों का परस्पर कथोपकथन संबंधी नियम भी एक कुशल नाट्य निर्देशक की तरह भारतेंदु ने निर्धारित किए हैं. यथा (1) प्रारंभ में ही कहानी के मध्य या अंत का बोध न हो, (2) स्वर का आरोह-अवरोह भाव के अनुरूप हो, (3) संवाद इस तरह न बोले जाएँ जैसे कि दर्शकों से बात की जा रही हो, (4) नृत्य की भांति रंगस्थल पर पात्रों को हस्तक भाव व मुख-नेत्र-भ्रू  के सूक्ष्मतर भाव दिखलाने की आवश्यकता नहीं, (5) स्वर भाव और यथायोग्य स्थान पर अंग-भंगी भाव ही दिखलानी चाहिए [अर्थात नाटक में नृत्य की भाँति मुद्राओं और भंगिमाओं का प्रयोग अस्वाभाविक है. अतः स्वाभाविक देहभाषा ही स्वीकार्य है],(6) यथासंभव दर्शकों की ओर पीठ न हो, (7) संवादों में काव्यत्व के स्थान पर हृदय के भावबोधक वाक्यों का प्रयोग ही उचित है. कहना न होगा कि ये नियम नाटक को जनपदसुखबोध्य बनाने के साथ साथ उसे सामाजिकों को संबोधित करने का सशक्त माध्यम भी बनाने की दृष्टि से निर्धारित किए गए हैं. इसके बाद भारतेंदु ने नाटकों के इतिहास पर प्रकाश डाला है और ‘भाषा नाटक’ शीर्षक खंड में आरंभिक हिंदी नाटकों पर चर्चा के अनंतर यूरोप में नाटकों के प्रचार पर भी टिप्पणी की है.

नाटक संबंधी भारतेंदु के इस विवेचन को उनके एक और छोटे से आलेख के साथ जोड़कर देखा जाए तो समाजसंस्कार तथा देशवत्सलता की उनकी धारणा और अधिक स्पष्ट हो सकती है. ‘जातीय संगीत’ शीर्षक इस लेख से भारतेंदु की लोकव्यापी दृष्टि और सामान्य जन से उनके लगाव का पता चलता है. हमारे यहाँ सबसे पहले ग्रामगीतों का महत्व शायद भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ही समझा था. वे लोकगीतों को समाजसंस्कार के लिए इस्तेमाल करने की वकालत करते थे. उनके नाटकों में लोकशैली का प्रयोग उनकी इसी मान्यता का परिणाम है. वे बड़े बड़े लेखों और काव्यों की तुलना में लोकगीतों और ग्रामगीतों को भारतीय जनता से जुड़ने का सबसे सार्थक माध्यम मानते थे. इस व्यापक लोक-माध्यम को ही उन्होंने ‘जातीय संगीत’ की संज्ञा दी. वे चाहते थे कि इस माध्यम का उपयोग अर्धशिक्षितों और अशिक्षितों तक समाजसंस्कार और देशवत्सलता के संदेश को पहुँचाने के लिए किया जाए. एक यथार्थवादी समाजचेता देशवत्सल सिद्धांतकार के रूप में उन्होंने ‘जातीय संगीत’ का उपयोग करने के लिए ऐसे विषयों पर नाटक, उपन्यास या काव्य रचना का आग्रह किया जो जनता के जागरण का हेतु बन सकें. बड़ी रचनाओं की तुलना में उन्होंने छोटे छोटे ‘सरल देशभाषा’ में रचित गीतों और छंदों को प्राथमिकता दी है. ऐसे जातीय साहित्य के लिए भारतेंदु ने कुछ विषयों की सूची भी दी है जो इस प्रकार है –
Ø  “बाल्य विवाह – इसमें स्त्री का बालक पति होने का दुःख, फिर परस्पर मन न मिलने का वर्णन, उससे अनेक भावी अमंगल और अप्रीतिजनक परिणाम.
Ø  जन्मपत्री की विधि – इससे बिना मन मिले स्त्री-पुरुष का विवाह और इसकी अशास्त्रता.
Ø  बालकों की शिक्षा – इसकी आवश्यकता, प्रणाली, शिष्टाचारशिक्षा, व्यवहारशिक्षा आदि.
Ø  बालकों से बर्ताव – इसमें बालकों के योग्य रीति पर बर्ताव न करने में उनका नाश होना.
Ø  अंगरेजी फैशन – इससे बिगड़कर बालकों का मद्यादि सेवन और स्वधर्म विस्मरण.
Ø  स्वधर्मचिंता – इसकी आवश्यकता.
Ø  भ्रूणहत्या और शिशुहत्या – इसके प्रचार के कारण, उसके मिटाने के उपाय.
Ø  फूट और बैर – इसके दुर्गुण, इसके कारण भारत की क्या क्या हानि हुई इसका वर्णन.
Ø  मैत्री और ऐक्य – इसके बढ़ने के उपाय, इसके शुभ फल.
Ø  बहुजातित्व और बहुभक्तित्व – के दोष, इससे परस्पर चित्त का न मिलना, इसी से एक दूसरे के सहाय में असमर्थ होना.
Ø  योग्यता – अर्थात केवल वाणी का विस्तार न करके सब कामों के करने की योग्यता पहुँचाना और उदाहरण दिखलाने का विषय.
Ø  पूर्व्वज आर्यों की स्तुति – इसमें उनके शौर्य्य, औदार्य्य, सत्य, चातुर्य्य, विद्यादि गुणों का वर्णन.
Ø  जन्मभूमि – इससे स्नेह और इसके सुधारने की आवश्यकता का वर्णन.
Ø  आलस्य और संतोष – इनकी संसार के विषय में निंदा और इससे हानि.
Ø  व्यापार की उन्नति – इसकी आवश्यकता और उपाय.
Ø  नशा – इसकी निंदा इत्यादि.
Ø  अदालत – इसमें रुपया व्यय करके नाश होना और आपस में न समझने का परिणाम.
Ø  हिंदुस्तान की वस्तु हिंदुस्तानियों को व्यवहार करना – इसकी आवश्यकता, इसके गुण, इसके न होने से हानि का वर्णन.
Ø  भारतवर्ष के दुर्भाग्य का वर्णन – करुणा रस संवलित.”

जातीय संगीत के ये वांछित विषय भारतीय साहित्य अथवा राष्ट्रीय साहित्य की संकल्पना के भी आधार-बिंदु बन सकते हैं. इस विषयसूची को अगर भारतेंदु के नाट्यमूल्यों के साथ जोड़कर देखा जाए तो यह कहने में कोई अत्युक्ति नहीं होगी कि भारतेंदु हरिश्चंद्र हिंदी में केवल आधुनिकता ही नहीं बल्कि उत्तरआधुनिकता के भी पुरोधा थे. उन्होंने साहित्य, समाज और जीवन की निकटता पर सबसे अधिक जोर दिया और भारतीय व पाश्चात्य नाट्य परंपराओं का विखंडन करके अपने समय की आवश्यकता के अनुरूप हिंदी के नाट्यशास्त्र की रचना की. वे सही अर्थों में समाजभाषावैज्ञानिक भी थे. प्रमाण के रूप में निज भाषा की उन्नति को सब उन्नति का मूल मानने वाले भारतेंदु के ‘हिंदी भाषा’ शीर्षक लेख (1883 ई) को देखा जा सकता है जिसमें उन्होंने लिखा है कि ‘’भाषा के तीन विभाग होते हैं. यथा घर में बोलने की भाषा, कविता की भाषा और लिखने की भाषा.’’ साथ ही उन्होंने विभिन्न बोलियों, कजली की कविता, बंग भाषा की कविता, नई भाषा की कविता आदि के नमूनों के बाद लिखने की भाषा के विविध नमूने देते हुए शुद्ध हिंदी, मिश्रित हिंदी और उर्दू ही नहीं कलकत्ता, काशी व दक्षिण के लोगों की हिंदी, अंग्रेजों की हिंदी और रेलवे की भाषा जैसे विभिन्न वैविध्यों और प्रयुक्तियों की भी सोदाहरण चर्चा की है. इन तमाम भाषारूपों के बीच उन्होंने ऐसी भाषा को लेखकों के लिए ग्राह्य माना है जिसमें संस्कृत के शब्द थोड़े हों और जिसका आधार तद्भवप्रधान जनप्रचलित हिंदी हो. स्पष्ट है कि नाटक सहित समस्त साहित्य की कसौटी भारतेंदु के लिए समाजसंस्कार और देशवत्सलता ही थी तथा वस्तु, तकनीक और भाषा तीनों के चयन का आधार भी उन्होंने इन्हें ही बनाया.



·         डॉ ऋषभदेव शर्मा, आचार्य एवं अध्यक्ष, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद, हैदराबाद – 500004, मोबाइल – 08121435033, ईमेल – rishabhadeosharma@yahoo.com

भारतीय टेलीविजन पर नया प्रयोग – ‘24’




मीडिया विमर्श 
भारतीय टेलीविजन पर नया प्रयोग – ‘24’
                                                   - ऋषभ देव शर्मा 


भारतीय टेलीविजन के लिए रहस्य, रोमांच और जासूसी धारवाहिक कोई नई चीज नहीं है. सच तो यह है कि नब्बे प्रतिशत धारावहिक किसी न किसी प्रकार इसी श्रेणी में आते हैं. 15 बरस से अधिक समय से ‘सी आई डी’ तो पूरे परिदृश्य पर छाया हुआ है ही, उसके पहले भी बासु चटर्जी और रजत कपूर का ‘ब्योमकेश बख्शी’ तथा शेखर कपूर और विजय आनंद का ‘तहकीकात’ भारतीय टेलीविजन के श्रेष्ठ धारावहिकों में जगह बना चुके हैं. लेकिन ये सभी रोमांचकारी और जासूसी (थ्रिलर) धारावाहिक एक या उससे कुछ अधिक कड़ियों में समाप्त हो जाने वाली कथाओं के समुच्चय रहे हैं. इसके विपरीत ‘24’ के रूप में भारतीय भाषाओं के दर्शक को एक ऐसा थ्रिलर देखने को मिला जो निरंतर 24 कड़ियों तक एक ही कथा को रूपायित करता है. यही कारण है कि इसे भारतीय टेलीविजन पर एक अभिनव प्रयोग के रूप में देखा गया. पारिवारिक–ऐतिहासिक-पौराणिक धारावाहिकों की निरंतरता एक प्रकार की होती है जबकि थ्रिलर की निरंतरता दूसरे प्रकार की है क्योंकि इसमें जिज्ञासा, उत्सुकता, उत्कंठा, सिहरन, रहस्य, संघर्ष और रोमांच को निरंतर बनाए रखने की चुनौती का सामना करना पड़ता है. 

एक और खास बात जो ‘24’ को आज के अन्य तमाम सफल धारावहिकों से अलग करती है इसके लक्ष्य दर्शक समूह से जुड़ी है. ‘24’ के प्रस्तुतकर्ताओं ने इसे कॉर्पोरेट जगत के युवा, शहरी दर्शक (Young Urban Professionals - YUPPIES) को ध्यान में रखकर बनाया है. आम तौर से यह ऐसा समूह है जो प्रायः हिंदी टेलीविजन नहीं देखता अतः ‘24’ की यह बड़ी सफलता है कि उसने इस नव अभिजात दर्शक वर्ग को हिंदी टेलीविजन की ओर आकर्षित किया. यों तो सभी धारावाहिक कुछ नया देने की साधारण प्रतिज्ञा के साथ आरंभ होते हैं लेकिन धीरे धीरे सामान्य धारावाहिकों की मुख्य धारा में बह निकलते हैं. दूसरी ओर ‘24’ ने अपनी जो विशिष्ट धारा प्रवाहित की उसका रास्ता अंत तक बदला नहीं. बदलना संभव भी नहीं था क्योंकि अनंत काल तक चलने को अभिशप्त अन्य धारावहिकों की तरह उसका फॉर्मेट खुला हुआ और लचीला नहीं है. बल्कि 24 कड़ियों में अपने चरमोत्कर्ष को प्राप्त करके फलागम तक पहुँचना ही उसकी नियति है. कड़ियों की सीमित संख्या के इस अनुशासन के कारण ‘24’ में गत्वरता और पैनापन बना रहता है, दूसरे धारावाहिकों की सी ठहरी हुई झीलें नहीं बनतीं. इसका श्रेय समय के दोहरे दबाव को दिया जा सकता है. एक दबाव 24 घंटे में खत्म होने का. दूसरा दबाव कम से कम समय में तमाम संकटों और अवरोधों को पार करके लिए गए टास्क को संपन्न करने का. 

बेशक यह धारावाहिक टेलीविजन थ्रिलर के क्षेत्र में ऋतु (seasons) की संकल्पना को प्रवर्तित करने वाला पहला थ्रिलर साबित हुआ है. क्योंकि इसकी दूसरी ऋतु (season - 2) का अनुमोदन हो चुका है. इसकी पहली कड़ी देखकर ही दर्शकों को यह पता चल गया था कि यह भारतीय टेलीविजन पर रोमांचक कथा प्रस्तुति के क्षेत्र में वैसा ही बड़ा कारनामा साबित होगा जैसा यथार्थ प्रदर्शनों (Reality Shows) के क्षेत्र में ‘कौन बनेगा करोड़पति’ और एनिमेशन के क्षेत्र में ‘डक टेल्स’ साबित हुए थे. ऐसा इसलिए नहीं कि इसकी कहानी बड़ी श्रेष्ठ है बल्कि इसलिए भी कि यह बहुत महँगा उत्पाद है. इसमें संदेह नहीं कि प्रति एपिसोड की दृष्टि से यह अब तक का सबसे महँगा भारतीय धारावाहिक है. 

विशिष्ट दर्शक समूह को संबोधित होने के बावजूद ‘24’ व्यावसायिक दृष्टि से इसलिए सफल धारावाहिक है कि इसे जो दर्शक एक बार मिला वह इसे छोड़कर कहीं और गया नहीं. यह जगजाहिर है कि गृहिणियों को लक्षित पारिवारिक धारावाहिकों आदि का दर्शक व्यावसायिक अंतराल (विज्ञापन) आने पर तेजी से चैनल बदलने लगता है – अपनी पसंद का वैसा ही कोई और रोने-पीटने या चीखने-चिल्लाने वाले किसी और धारावाहिक का दृश्य पकड़ने के लिए. लेकिन ‘24’ का यह विशिष्ट दर्शक उस सबमें रुचि नहीं रखता. इसलिए अंतराल में विज्ञापन भी देखता है. यही कारण है कि आरंभ से ही विज्ञापनदाताओं में ‘24’ के लिए होड़ रही. सर्वेक्षणों से पता चला है कि इस धारावाहिक के 1/3 दर्शक दिल्ली और मुंबई के नव अभिजात वर्ग के हैं जो विज्ञापनदाताओं के लिए बेहतर लक्ष्य दर्शक समूह है. लेकिन यहाँ यह भी कहना होगा कि शुक्रवार और शनिवार को रात 10 से 11 बजे का जो समय इस धारावाहिक को दिया गया, वह ठीक नहीं है. क्योंकि इसके लक्ष्य दर्शक समूह के लिए ये दिन और समय पार्टी के लिए नियत हैं. संभवतः यह बात अब प्रस्तुतकर्ताओं की समझ में आ गई है क्योंकि इसकी दूसरी ऋतु के लिए मुख्य दिनों को ही चुनने की घोषणा की जा चुकी है. 

अब तक की बातों से कहीं आप यह न समझ बैठें कि ‘24’ की सफलता का आधार इसका महँगा होना भर है. नहीं, बिलकुल नहीं. दरअसल पारिवारिक धारावाहिकों ने जो दशक भर से अधिक से एक विशेष प्रकार की टेलीविजन मानसिकता का जड़ीभूत रूप तैयार कर दिया है ‘24’ की सफलता का रहस्य उसकी बर्फ तोड़ने में है. हम-आप बरसों बरस देखते आ रहे हैं ऐसे सहज में पहचाने जाने वाले चरित्रों को जो किसी ‘घराने’ से संबंध रखते हैं, बड़े अमीर हैं और बड़े महत्वाकांक्षी भी – जैसा बनाने का सपना सामान्य भारतीय मध्य वर्ग आजीवन देखता रहता है. हम और आप बरसों से देखते चले आ रहे हैं परंपरा और आधुनिकता का एक अजीब सा घालमेल और विचित्र सा संघर्ष जिसमें मानो कि सारा का सारा टेलीविजन उद्योग ‘संस्कार’ और ‘परंपरा’ को बचाने के अभियान में जुटा है – क्योंकि यही आम भारतीय मानसिकता है और इसी के कारण ये तमाम धारावाहिक दुधारू गाय बने हुए हैं. आने को छोटे परदे पर बड़े परदे की अनेक विभूतियाँ आई हैं, पर सलमान खान, शाहरूख खान, अक्षय कुमार, माधुरी दीक्षित, रवीना टंडन जैसी हस्तियाँ यथार्थ प्रदर्शनों में आईं जरूर लेकिन यथास्थिति को चुनौती तक नहीं दे सकीं. हाँ, आमिर खान जरूर एक नए और भिन्न प्रारूप (फॉर्मेट) को लेकर आए पर उससे भी भारतीय टेलीविजन के चेहरे और चरित्र में कोई बदलाव नहीं आया. समझा जा रहा है कि 2014 में प्रसारित होने वाला अनुराग कश्यप और अमिताभ बच्चन का शो शायद इस दशकों पुरानी धारा को बदलने वाला साबित होगा. वैसे ‘24’ ने इस बदलाव की नींव डाल दी है. 

‘24’ की सफलता का श्रेय इससे जुड़े हुए उत्कृष्ट मंडल (Team) को जाता है. इसके निर्माता और केंद्रीय चरित्र अनिल कपूर ने अपना जो मंडल बनाया है उसमें शामिल नामों को देखिए – रंग दे बसंती और कुर्बान के लेखक रेंसिल डी सिल्वा तथा लुटेरा और ब्लैक की लेखिका भवानी अय्यर जैसे दो लेखक, निर्देशक के रूप में डेल्ही बेल्ली के निर्देशक अभिनय देव तथा अभिनेताओं में टिस्का चोपड़ा, अनुपम खेर, शबाना आज़मी, अजिंक्य देव, राहुल खन्ना, मंदिरा बेदी, यूरी सूरी, पूजा रूपारेल, अधीर भट्ट और प्रियंका बोस आदि. प्रस्तुतीकरण की अभिनवता ने इस मंडल के साथ मिलकर वास्तव में चुंबकीय आभामंडल का निर्माण किया है. दृश्यांकन की भिन्न शैली में विभाजित परदे (Split Screen) और प्रतिक्षण भागती हुई घड़ी का प्रयोग दर्शक के दिल की धड़कनें बढ़ाने के लिए काफी है. कहना न होगा कि ‘24’ के दृश्यखंडों (Shot) की लंबाई भारतीय टेलीविजन के अब तक प्रदर्शित कार्यक्रमों में लघुतम है और एक साथ समानांतर चलते हुए अनेक कथासूत्रों की विद्यमानता भी अभूतपूर्व है. इसीलिए विभाजित परदे की तकनीक अत्यंत प्रभावी साबित हुई है. अलग अलग चार बाक्सों में एक ही क्षण में घटित होती चार घटनाएँ एक साथ देखना भारतीय टेलीविजन दर्शक के लिए नई और चमत्कृत करने वाली चीज है. घिसेपिटे लीकोंलीक चलने वाले पारिवारिक धारावाहिकों के दर्शक के लिए यह विस्मयकारी है कि आखिर क्यों और कैसे इतनी सारी चीजें एक साथ घटित हो रही हैं. और किसलिए तमाम खलपात्र अधबीच में रास्ते से हटा दिए जाते हैं और नए पात्र खल के रूप में सामने आ जाते हैं. यह मानना पड़ेगा कि लेखकों ने बेहद बढ़िया काम करके दिखाया है. उन्होंने बहुत ख़ूबसूरती से एक राजनैतिक परिवार के अंदरूनी घात-परिघात को आतंकवाद और जासूसी की आधिकारिक कथावस्तु के साथ जोड़कर तमाम तरह के मसालों का क्या खूब तड़का लगाया है! 

स्मरणीय है कि हिंदी का ‘24’ अमेरिकी दूरदर्शन के अतिशय लोकप्रिय ‘24’ का भारतीय संस्करण है. वह वाला ‘24’ अमेरिका में घटित 9/11 के कुछ सप्ताह बाद आरंभ हुआ था और 2010 तक उसकी आठ ऋतुओं का फेरा चला था. आठवी ऋतु में अनिल कपूर ने इस्लामी नेता उमर हसन की भूमिका निभाई थी और अमेरिकी दूरदर्शन की कार्यशैली को निकट से देखा समझा था. भारत में 26/11 के आतंकी हमले होने पर उनके मन-मस्तिष्क में भारत के लिए ‘24’ बनाने का विचार आया. ‘24’ की मूल अवधारणा यह रही है कि इसकी तमाम गतिविधि का केंद्र आतंकवाद विरोधी संगठन है जो 24 घंटे के भीतर किसी बड़े नेता की हत्या के आतंकी प्रयास को बेपर्दा और निष्फल करता है. ये 24 घंटे ही इस धारावाहिक की एक ऋतु का सृजन करते हैं. अर्थात 1 दिन = 1 ऋतु. ये 24 घंटे ही एक एक घंटे के 24 एपिसोड बनते हैं और निरंतर टिक टिक करती हुई घड़ी इन 24 घंटों के बीतने का बोध कराती रहती है. इसीलिए यह कहा गया है कि ‘24’ की समस्त घटनाएँ ‘वास्तविक समय’ में घटित होती हैं. हिंदी के ‘24’ ने इस मूल प्रारूप को ज्यों का त्यों अपनाया है. 

इस धारावहिक का आधिकारिक कथासूत्र तो इतना सा है कि भारत के युवा प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेने जा रहे जनप्रिय, ईमानदार और निष्ठावान नेता आदित्य सिंघानिया की नन्ही सी जान को लाख खतरे हैं और आतंक विरोधी इकाई (Anti Terrorist Unit - ATU) के चीफ जयसिंह राठौड़ (अनिल कपूर) को हर हाल में उनकी रक्षा करनी है. आदित्य सिंघानिया का परिवार तमाम तरह के राजनैतिक षड्यंत्रों में लिप्त है तो लंकाई आतंकी रवींद्रन अपने परिवार को खोकर अंधराष्ट्रवादी आतंककारी दैत्य में बदल चुका है. उसकी साँठ-गाँठ भावी प्रधानमंत्री के परिवार में भी है. इस सबसे अनजान जयसिंह राठौड़ बिखरे सूत्रों को समेटता फिरता है – उसे आदित्य को तो बचाना ही है अपने परिवार को भी बचाना है जिसमें उसकी पत्नी, बेटी और बेटा शामिल हैं. इस परिवारत्रयी के सहारे लेखकद्वय ने राजनैतिक थ्रिलर को पारवारिक संबंधों और भावनाओं के संघर्ष के साथ जोड़ा है जो निश्चय ही भारतीय दर्शक के मन को छूने वाला है. 

साथ ही इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि आदित्य सिंघानिया का परिवार दर्शक को राहुल गांधी के परिवार जैसा दिखाई देता है. लेकिन यह भी तय है कि इससे राहुल गांधी को किसी प्रकार का चुनावी लाभ नहीं मिल सकता क्योंकि यदि उनके जैसा दिखता आदित्य का पात्र बेहद सुलझा और साफ़ सुथरा है तो दूसरी ओर आदित्य का परिवार (जिसमें उनकी माँ से लेकर बहनोई तक शामिल हैं) साजिशों में लिप्त दिखाया गया है. लेखकद्वय ने नेहरु-गांधी परिवार और आदित्य सिंघानिया परिवार में समानताएँ खोजने को अनावश्यक बताते हुए यह साफ़ किया है कि उन्होंने अपने नेता या भावी प्रधानमंत्री को केवल इसलिए युवा चित्रित किया है क्योंकि उन्हें स्वयं देश के युवाओं से बड़ी उम्मीद है. इस प्रकार उन्होंने अपना रचनाधर्म निभाने का प्रयास किया है और एक जासूसी कथा को सामाजिक, राजनैतिक आदर्श परिप्रेक्ष्य प्रदान करने के लिए आदित्य सिंघानिया के रूप में एक ऐसा युवा प्रधानमंत्री रचा है जो आदर्शवादी है, जोड़तोड़ से घृणा करता है, सिद्धांतों पर अटल रहता है और मूल्याधारित राजनीति का पक्षधर है. प्रकारांतर से समसामयिक भारतीय जनमन की आवाज भी यही है. इस युगबोध और मूल्यबोध से संपृक्त होने के कारण ‘24’ की ग्राह्यता और प्रेष्यता बढ़ गई है. 

[*चित्र : ‘24’ में अपनाए गए विभाजित परदे के प्रयोग का एक उदाहरण]

                                                                        बहुब्रीहि/ अर्द्धवार्षिक/ जुलाई-दिसंबर 2013/ पृष्ठ 34-38.

गुरुवार, 2 जनवरी 2014

समरसता, एकता, और बंधुता के लिए 'तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ'



पुस्तक समीक्षा
समरसता, एकता, और बंधुता के लिए 
'तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ' 
-प्रो. गोपाल शर्मा

'तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ'(2013) हिंदी साहित्य के उन अध्येताओं के लिए संदर्भ ग्रंथ है जो अनुवाद के माध्यम से भारत की विभिन्न भाषाओं के साहित्य से परिचय प्राप्त करना चाहते हैं. यों तो तेलुगु भाषा का अपना समृद्ध साहित्य है किंतु उससे परिचय तभी संभव है जब उस भाषा का ज्ञान हो इसलिए ‘तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ’ (2013) उन पाठकों के लिए मार्गदर्शन है जो तेलुगु नहीं जानते किंतु सहज जिज्ञासु हैं. ‘हिंदी पाठ’ से यहाँ तात्पर्य है - हिंदी माध्यम से तेलुगु साहित्य का शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करनाऔर यह इन अर्थों में है कि विभिन्न समयों में प्राचीन एवं समकालीन लेखकों द्वारा लिखित पुस्तकों का विहंगावलोकन हो जाए. भक्ति से लेकर स्त्री विमर्श तक और काव्य से लेकर काव्यशास्त्र तक जितनी भी विधाएँ हो सकती हैं उनका स्थाली-पुलाक न्याय द्वारा आस्वादन इस पुस्तक के माध्यम से संभव है.


लेखक - 
ऋषभ देव शर्मा 

विधा - निबंध / समीक्षा 

प्रकाशक -
जगत भारती प्रकाशन,
 सी-3-77, दूरवाणी नगर, ए.डी.ए.,
 नैनी, इलाहाबाद- 211008. 
फोन-09936079167, 08953954068. 
(श्री साहिती प्रकाशन, हैदराबाद 
की ओर से).

प्रथम संस्करण : 2013

पृष्ठ - 204  
सजिल्द

मूल्य - 395 रुपए

ISBN - 978-93-5104-235-8.
यदि छह खंडों में संजोई इस पुस्तक के अंतिम खंड से बात प्रारंभ की जाए तो श्रेयस्कर होगा क्योंकि अपने आप में ‘तेलुगु साहित्य का हिंदी अनुवाद : परंपरा और प्रदेय’ शीर्षक से प्रस्तुत सामग्री शोधार्थियों के लिए ही नहीं अपितु सर्वसाधारण के लिए पठनीय है. सामान्यतः पुस्तकों का अंतिम अध्याय ‘भर्ती’ का हो जाया करता है किंतु यहाँ एक ओर तो शताधिक पुस्तकों की सूची दी गई है दूसरी ओर अनुवाद की प्रमाणिकता और मूल साहित्यकारों द्वारा अनेक सामाजिक-साहित्यिक परंपराओं और प्रथाओं के संबंध में दी गई प्रामाणिक सूचनाएं आंध्रेतर पाठकों के लिए कौतूहल एवं आश्चर्य का विषय हैं. (शोधार्थियों के लिए इस खंड को देखना फायदे का सौदा रहेगा). तेलुगु साहित्य के हिंदी अनुवाद की परंपरा का उल्लेख करते हुए लेखक ने यह बताया है कि प्रारंभ से ही अनुवादक यह मानकर चल रहे थे कि वे अनुवाद के माध्यम से भारतीय साहित्य के निर्माण की प्रक्रिया में योगदान दे रहे हैं इसलिए बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में स्वतंत्रता के पश्चात अनुवाद की प्रचुर सामग्री प्राप्त होती है. उपन्यास, काव्य, कथा ही नहीं बल्कि नाटक, जीवनी, निबंध, हास्य, इतिहास आदि विधाओं में भी अनुवाद हुए. यह भी उल्लेखनीय है कि अनुवाद सिद्धांत पर तेलुगु में जो कार्य हुआ उस पर भी यहाँ हिंदी में सामग्री उपलब्ध है. कहना न होगा कि इस विस्तृत खंड में हिंदी में आए तेलुगु साहित्य के कुछ पाठों से ही ज्ञात हो जाता है कि तेलुगु भाषा समाज की सांस्कृतिक विशेषताएं एक ओर तो समग्र भारत के समान हैं और दूसरी ओर इसमें किंचित इन्द्रधनुषी विभिन्नताएं भी हैं. तेलुगु भाषी लेखक समय-समय पर तेलुगु जीवन शैली का विवरण-विश्लेषण भी करते जाते हैं और हिंदी के पाठक समझ जाते हैं कि आंध्र जीवन शैली में किन-किन सांस्कृतिक चिह्नों का प्रयोग आज भी हो रहा है. इस प्रकार के तुलनात्मक समाजभाषावैज्ञानिक अध्ययन की हिंदी में यह पहली मिसाल देखने में आई है.

पाँचवे अध्याय में तेलुगु साहित्य का परिवर्तनशील परिदृश्य विवेचनात्मक अध्ययन के लिए पाठक के सामने उपस्थित होता है. निखिलेश्वर और डॉ. आई एन चंद्रशेखर रेड्डी के तेलुगु साहित्येतिहास के कुछ पक्षों, डॉ. शकीला खानम के तुलनात्मक शोध कार्य और हिंदी में दक्षिण भारतीय साहित्य का परिचयात्मक अध्ययन इस खंड में मिल जाता है. पाठक यह भी समझ जाता है कि तेलुगु साहित्य भी निरंतर परिवर्तनशील और विकासोन्मुख है.

चतुर्थ खंड में प्रचुर गति से विलुप्त होती जा रही नाट्य विधा को लक्ष्य कर डॉ. डी. विजय भास्कर के  इस क्षेत्र में योगदान और नंदिराजु सुब्बाराव के लघुनाटक ‘अक्षर’ की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है. हिंदी के पाठक तेलुगु नाटक की दशा और दिशा से भी चिंतित हों, ऐसा इस खंड का उद्देश्य प्रतीत होता है. 21वीं शताब्दी में उपन्यास और कथाएँ अधिक मात्रा में लिखे जा रहे हैं.

तृतीय खंड में समकालीन तेलुगु कहानियों के अनुवाद और तेलुगु उपन्यासों पर समीक्षात्मक लेखन किया गया है. लघुकथाएँ भी तेलुगु समाज पर सशक्त टिप्पणियाँ करती हैं. यहाँ यह कहना भी आवश्यक होगा कि तेलंगाना के प्रश्न को रेखांकित करती हुई रचनाएं तेलुगु साहित्य में अब नगण्य नहीं है बल्कि आम आदमी की त्रासदी को रेखांकित करते हुए कई रचनाकार इस क्षेत्र में राजनेताओं समेत सभी को यह बता रहे हैं कि परिस्थितियां बेहद भयावह अवश्य हैं किंतु भविष्य के प्रति आस्था कम नहीं है. तेलुगु संस्कृति और समाज की सच्चाई का बयान करती कहानियों से भी हिंदी पाठक रूबरू हों, यह लक्ष्य है.

जब हम ग्रंथ के दूसरे खंड की ओर आते हैं तो यह देखकर संतोष होता है कि समकालीन कविता के प्रमुख सरोकारों में तेलंगाना का प्रश्न भी मुखर है. उदाहरण के लिए डॉ.एस.वी. सत्यनारायण की कविताएँ तेलंगाना की आक्रामक अभिव्यक्ति ही हैं. कई लंबी कविताएँ, जैसे ‘न्यागरा’, तेलुगु कविता की नई मुद्रा को भी सामने लाती हैं. ग्लोबल को बेचैनी के फेविकोल से लोकल से जोड़कर 'ग्लोकल' बनाने की कला की बानगी 'उत्तरशती' की कविताओं में भी है और 'आधुनिक तेलुगु काव्य सौरभ' में भी. स्त्री विमर्श, पर्यावरण विमर्श, मुस्लिम विमर्श, दलित विमर्श आदि विमर्शों का समकालीन तेलुगु काव्य में समय-समय पर प्रस्तुतीकरण होता रहा है. द्वितीय खंड में ऐसे ही काव्यों की समीक्षा की गई है. तेलुगु से हिंदी में अनुवाद एक बात है किंतु हिंदी से तेलुगु में दूसरी. अनुवाद समीक्षा की दृष्टि से जब ‘कामायनी’ (जयशंकर प्रसाद) और ‘विश्वंभरा’ (सी.नारायण रेड्डी) को देखा जाता है तो ज्ञात होता है कि तुलनात्मक अनुवाद समीक्षा भी रोचक है.

कहते हैं 'भक्ति द्राविड उपजी'; और इसी भक्ति का विवेचन प्रथम खंड के प्रथम निबंध में यहाँ प्रस्तुत हैं. इसके अलावा आंध्र के महान कवि वेमना और शक्ति व मुक्ति के कवि श्रीश्री हिंदी साहित्य के लिए भी काफ़ी परिचित नाम है क्योंकि उन्हें अनुवाद के माध्यम से सुलभ किया गया है. लेखक ने इन अनुवादों का भी यहाँ विवेचन किया है.

अनुवाद समीक्षा, तुलनात्मक अनुवाद, समाजभाषाविज्ञान, सांस्कृतिक अध्ययन और साहित्य अध्ययन के अनेक विषय क्षेत्रों को समेटते हुए प्रो. ऋषभ देव शर्मा (1957) की यह पुस्तक भारतीय संदर्भ में हिंदी भाषा के माध्यम से तेलुगु भाषा, साहित्य और संस्कृति को हस्तामवलक के रूप में प्रस्तुत करती है. तेलगु साहित्य के प्रति सहज जिज्ञासा से आगे बढ़कर हिंदी माध्यम से गहन अध्ययन करने वाले शोधार्थी और  अध्यापक ही नहीं बल्कि सामान्य पाठक भी इस ग्रंथ को पठनीय पाएँगे.

मेरा यह मानना है कि तेलुगु साहित्य के इस हिंदी पाठ की भाषा इतनी सहज और संप्रेषणीय है कि पाठक इसे एक ही बैठक में भी पढ़ सकता है और उसके पश्चात बार-बार भी इसके पास संदर्भ के लिए जाना चाहेगा. भारतीय साहित्य में समरसता, एकता और बंधुता बनाए रखने के लिए आज ऐसी ही दृष्टि की आवश्यकता है. इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा कि ‘तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ’ पुस्तक पढ़कर भारत की अन्यान्य भाषाओं के विद्वान उन भाषाओं के साहित्य का भी हिंदी पाठ प्रस्तुत करने का  अनुष्ठान प्रारंभ करेंगे.  
-    प्रो. गोपाल शर्मा
जयपुर नेशनल यूनिवर्सिटी, जयपुर

07/12/2013