समरसता, एकता,
और बंधुता के लिए
'तेलुगु साहित्य का हिंदी
पाठ'
-प्रो. गोपाल
शर्मा
'तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ'(2013) हिंदी साहित्य के उन अध्येताओं के लिए संदर्भ ग्रंथ है जो
अनुवाद के माध्यम से भारत की विभिन्न भाषाओं के साहित्य से परिचय प्राप्त करना
चाहते हैं. यों तो तेलुगु भाषा का अपना समृद्ध साहित्य है
किंतु उससे परिचय तभी संभव है जब उस भाषा का ज्ञान हो इसलिए ‘तेलुगु साहित्य का
हिंदी पाठ’ (2013) उन पाठकों के लिए मार्गदर्शन है जो तेलुगु
नहीं जानते किंतु सहज जिज्ञासु हैं. ‘हिंदी पाठ’ से यहाँ
तात्पर्य है - हिंदी माध्यम से तेलुगु साहित्य का शास्त्रीय
ज्ञान प्राप्त करना; और यह इन अर्थों में है कि विभिन्न समयों में प्राचीन एवं समकालीन लेखकों
द्वारा लिखित पुस्तकों का विहंगावलोकन हो जाए. भक्ति से लेकर
स्त्री विमर्श तक और काव्य से लेकर काव्यशास्त्र तक जितनी भी विधाएँ हो सकती हैं
उनका स्थाली-पुलाक न्याय द्वारा आस्वादन इस पुस्तक के माध्यम
से संभव है.
पुस्तक का नाम -
लेखक -
ऋषभ देव शर्मा
विधा - निबंध / समीक्षा
प्रकाशक -
जगत भारती प्रकाशन,
सी-3-77, दूरवाणी नगर, ए.डी.ए.,
नैनी, इलाहाबाद- 211008.
फोन-09936079167, 08953954068.
(श्री साहिती प्रकाशन, हैदराबाद
की ओर से).
प्रथम संस्करण : 2013
पृष्ठ - 204
सजिल्द
मूल्य - 395 रुपए
ISBN - 978-93-5104-235-8.
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यदि छह खंडों में संजोई इस पुस्तक के अंतिम खंड से
बात प्रारंभ की जाए तो श्रेयस्कर होगा क्योंकि अपने आप में ‘तेलुगु साहित्य का
हिंदी अनुवाद :
परंपरा और प्रदेय’ शीर्षक से प्रस्तुत सामग्री शोधार्थियों के लिए
ही नहीं अपितु सर्वसाधारण के लिए पठनीय है. सामान्यतः
पुस्तकों का अंतिम अध्याय ‘भर्ती’ का हो जाया करता है किंतु यहाँ एक ओर तो शताधिक
पुस्तकों की सूची दी गई है दूसरी ओर अनुवाद की प्रमाणिकता और मूल साहित्यकारों
द्वारा अनेक सामाजिक-साहित्यिक परंपराओं और प्रथाओं के संबंध
में दी गई प्रामाणिक सूचनाएं आंध्रेतर पाठकों के लिए कौतूहल एवं आश्चर्य का विषय
हैं. (शोधार्थियों के लिए इस खंड को देखना फायदे का सौदा
रहेगा). तेलुगु साहित्य के हिंदी अनुवाद की परंपरा का उल्लेख
करते हुए लेखक ने यह बताया है कि प्रारंभ से ही अनुवादक यह मानकर चल रहे थे कि वे
अनुवाद के माध्यम से भारतीय साहित्य के निर्माण की प्रक्रिया में योगदान दे रहे
हैं इसलिए बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में स्वतंत्रता के पश्चात अनुवाद की
प्रचुर सामग्री प्राप्त होती है. उपन्यास, काव्य, कथा ही नहीं बल्कि नाटक, जीवनी, निबंध, हास्य, इतिहास आदि विधाओं में भी अनुवाद हुए. यह भी
उल्लेखनीय है कि अनुवाद सिद्धांत पर तेलुगु में जो कार्य हुआ उस पर भी यहाँ हिंदी
में सामग्री उपलब्ध है. कहना न होगा कि इस विस्तृत खंड में
हिंदी में आए तेलुगु साहित्य के कुछ पाठों से ही ज्ञात हो जाता है कि तेलुगु भाषा
समाज की सांस्कृतिक विशेषताएं एक ओर तो समग्र भारत के समान हैं और दूसरी ओर इसमें
किंचित इन्द्रधनुषी विभिन्नताएं भी हैं. तेलुगु भाषी लेखक
समय-समय पर तेलुगु जीवन शैली का विवरण-विश्लेषण
भी करते जाते हैं और हिंदी के पाठक समझ जाते हैं कि आंध्र जीवन शैली में किन-किन सांस्कृतिक चिह्नों का प्रयोग आज भी हो रहा है. इस
प्रकार के तुलनात्मक समाजभाषावैज्ञानिक अध्ययन की हिंदी में यह पहली मिसाल देखने
में आई है.
पाँचवे अध्याय में तेलुगु साहित्य का परिवर्तनशील
परिदृश्य विवेचनात्मक अध्ययन के लिए पाठक के सामने उपस्थित होता है. निखिलेश्वर
और डॉ. आई एन चंद्रशेखर रेड्डी के तेलुगु साहित्येतिहास के
कुछ पक्षों, डॉ. शकीला खानम के
तुलनात्मक शोध कार्य और हिंदी में दक्षिण भारतीय साहित्य का परिचयात्मक अध्ययन इस
खंड में मिल जाता है. पाठक यह भी समझ जाता है कि तेलुगु
साहित्य भी निरंतर परिवर्तनशील और विकासोन्मुख है.
चतुर्थ खंड में प्रचुर गति से विलुप्त होती जा रही
नाट्य विधा को लक्ष्य कर डॉ. डी. विजय भास्कर के इस क्षेत्र में योगदान और नंदिराजु सुब्बाराव
के लघुनाटक ‘अक्षर’ की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है. हिंदी
के पाठक तेलुगु नाटक की दशा और दिशा से भी चिंतित हों, ऐसा
इस खंड का उद्देश्य प्रतीत होता है. 21वीं शताब्दी में
उपन्यास और कथाएँ अधिक मात्रा में लिखे जा रहे हैं.
तृतीय खंड में समकालीन तेलुगु कहानियों के अनुवाद
और तेलुगु उपन्यासों पर समीक्षात्मक लेखन किया गया है. लघुकथाएँ
भी तेलुगु समाज पर सशक्त टिप्पणियाँ करती हैं. यहाँ यह कहना
भी आवश्यक होगा कि तेलंगाना के प्रश्न को रेखांकित करती हुई रचनाएं तेलुगु साहित्य
में अब नगण्य नहीं है बल्कि आम आदमी की त्रासदी को रेखांकित करते हुए कई रचनाकार
इस क्षेत्र में राजनेताओं समेत सभी को यह बता रहे हैं कि परिस्थितियां बेहद भयावह
अवश्य हैं किंतु भविष्य के प्रति आस्था कम नहीं है. तेलुगु
संस्कृति और समाज की सच्चाई का बयान करती कहानियों से भी हिंदी पाठक रूबरू हों,
यह लक्ष्य है.
जब हम ग्रंथ के दूसरे खंड की ओर आते हैं तो यह
देखकर संतोष होता है कि समकालीन कविता के प्रमुख सरोकारों में तेलंगाना का प्रश्न
भी मुखर है.
उदाहरण के लिए डॉ.एस.वी.
सत्यनारायण की कविताएँ तेलंगाना की आक्रामक अभिव्यक्ति ही हैं.
कई लंबी कविताएँ, जैसे ‘न्यागरा’, तेलुगु कविता की नई मुद्रा को भी सामने लाती हैं. ग्लोबल
को बेचैनी के फेविकोल से लोकल से जोड़कर 'ग्लोकल' बनाने की कला की बानगी 'उत्तरशती' की कविताओं में भी है और 'आधुनिक तेलुगु काव्य सौरभ'
में भी. स्त्री विमर्श, पर्यावरण
विमर्श, मुस्लिम विमर्श, दलित विमर्श
आदि विमर्शों का समकालीन तेलुगु काव्य में समय-समय पर
प्रस्तुतीकरण होता रहा है. द्वितीय खंड में ऐसे ही काव्यों
की समीक्षा की गई है. तेलुगु से हिंदी में अनुवाद एक बात है
किंतु हिंदी से तेलुगु में दूसरी. अनुवाद समीक्षा की दृष्टि
से जब ‘कामायनी’ (जयशंकर प्रसाद) और
‘विश्वंभरा’ (सी.नारायण रेड्डी)
को देखा जाता है तो ज्ञात होता है कि तुलनात्मक अनुवाद समीक्षा भी
रोचक है.
कहते हैं 'भक्ति द्राविड उपजी'; और इसी भक्ति का विवेचन प्रथम खंड के प्रथम निबंध में यहाँ प्रस्तुत हैं.
इसके अलावा आंध्र के महान कवि वेमना और शक्ति व मुक्ति के कवि श्रीश्री
हिंदी साहित्य के लिए भी काफ़ी परिचित नाम है क्योंकि उन्हें अनुवाद के माध्यम से
सुलभ किया गया है. लेखक ने इन अनुवादों का भी यहाँ विवेचन
किया है.
अनुवाद समीक्षा, तुलनात्मक अनुवाद, समाजभाषाविज्ञान, सांस्कृतिक अध्ययन और साहित्य
अध्ययन के अनेक विषय क्षेत्रों को समेटते हुए प्रो. ऋषभ देव
शर्मा (1957) की यह पुस्तक भारतीय संदर्भ में हिंदी भाषा के
माध्यम से तेलुगु भाषा, साहित्य और संस्कृति को हस्तामवलक के
रूप में प्रस्तुत करती है. तेलगु साहित्य के प्रति सहज
जिज्ञासा से आगे बढ़कर हिंदी माध्यम से गहन अध्ययन करने वाले शोधार्थी और अध्यापक ही नहीं बल्कि सामान्य पाठक भी इस
ग्रंथ को पठनीय पाएँगे.
मेरा यह मानना है कि तेलुगु साहित्य के इस हिंदी
पाठ की भाषा इतनी सहज और संप्रेषणीय है कि पाठक इसे एक ही बैठक में भी पढ़ सकता है
और उसके पश्चात बार-बार भी इसके पास संदर्भ के लिए जाना चाहेगा. भारतीय साहित्य में समरसता, एकता और बंधुता बनाए
रखने के लिए आज ऐसी ही दृष्टि की आवश्यकता है. इसमें कोई
आश्चर्य नहीं होगा कि ‘तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ’ पुस्तक पढ़कर भारत की अन्यान्य
भाषाओं के विद्वान उन भाषाओं के साहित्य का भी हिंदी पाठ प्रस्तुत करने का अनुष्ठान प्रारंभ करेंगे.
- प्रो. गोपाल
शर्मा
जयपुर नेशनल यूनिवर्सिटी, जयपुर
07/12/2013
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