हिंदी अनुवाद – ऋषभ देव शर्मा
उसका कोई गाँव नहीं था, बस
झोंपडपट्टी थी
उसका कोई नाम नहीं था, केवल
जाति हुआ करती थी
कोई सुख नहीं था उसके हिस्से,
बस मेहनत थी
वह हमारी बुआ थी – तुम उसकी
कहानी सुनोगे ?
बुआ कोई आम औरत नहीं थी;
पपीते के पेड़ सा लंबा–ऊंचा
कद
पीछे को न मुडती नदी सी चाल;
सरू के पेड़ की तरह आसमान को
चुनौती देती
हमारी बुआ
कसकर कोंछा मारे
हाथ में हँसिया उठाए
खेतों को जाती तो लगता
काली नागिन चली जा रही है - फन
फैलाए!
बुआ का रंग काला था – पक्का काला;
पके ढेरों जामुनों का काला
रंग
जुती हुई काली मिट्टी का
आबनूसी काला रंग
खेतों के बीच नालियों में
खिले काले कुमुदों का काला रंग !
और उसके माथे की वह लाल
बिंदी;
ताजी पकी लाल मिर्च के ढेर
सी सुर्ख लाल!
बुआ का रंग काला था,
पर मन एकदम गोरा – तरबूज के
फूल सा
एकदम नरम – सेमल की रुई सा
एकदम शीतल – रात के मांड सा
!
सृष्टि के आरंभ में जन्मी थी
हमारी बुआ
उसके बाद ही कामकाज पैदा हुआ,
मनुष्य भर नहीं थी हमारी बुआ
कामकाज का आदिम औज़ार थी.
पिछवाड़े रीठे के पेड़ पर
सुस्ताते कव्वे
पौ फटते हमारी बुआ से वक्त
पूछते
और जब वह आँगन बुहार कर
झाडू वाला हाथ ऊपर उठाती
तो अनुशासित ढंग से परे हट
जाते
बादलों के टुकड़ों समेत
आकाशगंगा के तारे;
भौंचक रह जाती भोर - साफ़
सुथरे आँगन को निहार !
पनघट पर जाती बुआ
तो छोटी छोटी मछलियों की तरह
चार सीढ़ियों नीचे से पानी
मचलने लगता,
चूमने लगता बुआ के पैरों की उँगलियाँ बार बार !
बरसात के आते ही
बरसी अनबरसी बदलियों के
टुकड़े
खुशी और गम से पिघले बिना
चुपचाप तैरते थे बुआ की
कजरारी आँखों में !
रोपाई के वक्त एक पौधा रोपती
बुआ
अपनी तर्जनी के पोरुवे से
तो सारे खेत लहलहा उठते
पाल्मूरू [महबूबनगर] के
विशाल वटवृक्ष [पिल्लल मर्रि] की तरह;
बुआ फिर भी
खेत में खड़ी दीखती ठुट्ट की तरह !
होते होंगे सुबह और शाम सूरज
के वास्ते
पर कभी न था आराम धनुषवत
कमेरी बुआ के वास्ते !
ग्रामदेवता के कल्याणोत्सव
में
और बच्चों के दोपहरी भोजन के
कार्यक्रम में
अचानक फूट पड़ते पक्षपात की
तरह
बुआ के घिस चुके चांदी के
कड़ों से
लाख बुझी बुझी सी झांकती
थी.!
जीवन भर बुआ बस बोझा ढोती
रही;
चावल की ढाई मन की बोरी की उसके आगे क्या बिसात थी?
मैं सोचता हूँ
नारियल को अपनी जंघाओं से
सटाकर
तीन वार में छील डालने वाली
हमारी बुआ ने [भेदभाव
ग्रस्त] ‘कारमचेडू’ में जनम क्यों नहीं लिया?
गाँव से मनमुटाव होने पर
आँचल में पिसी मिर्च और हाथ
में लालटेन लिए
रात रात भर नदी किनारे
चौकीदारी में घूमती
हमारी बुआ ने [अन्याय
ग्रस्त] ‘चुंडूर’ में जनम क्यों नहीं लिया?
मैं सोचता हूँ
हमारी बुआ को
कल नहीं, आज होना चाहिए था!!
4 टिप्पणियां:
मंगलमय नव वर्ष हो, फैले धवल उजास ।
आस पूर्ण होवें सभी, बढ़े आत्म-विश्वास ।
बढ़े आत्म-विश्वास, रास सन तेरह आये ।
शुभ शुभ हो हर घड़ी, जिन्दगी नित मुस्काये ।
रविकर की कामना, चतुर्दिक प्रेम हर्ष हो ।
सुख-शान्ति सौहार्द, मंगलमय नव वर्ष हो ।।
सच में, हमारी बुआ को आज होना चाहिये था..
हमारी आज की बुआओं को ऐसा बनना और बनाना पड़ेगा।
कविता मूल रचना लगती है। यदि कविता के आरंभ और अंत में टैग को हटा दें।
लोक संपृक्त कविता।
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