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सोमवार, 23 अप्रैल 2012

आंध्र के महान भक्त कवि


भूमिका

भारतीय साहित्य की श्रेष्ठतम अभिव्यक्तियाँ भक्ति साहित्य में सुरक्षित हैं. तेलुगु साहित्य का इसमें अप्रतिम योगदान रहा है. यों तो हिंदी के पाठक तेलुगु के भक्ति साहित्य से कुछ सीमा तक परिचित हैं लेकिन यह परिचय उतना प्रगाढ़ नहीं है जितना कि होना चाहिए. इस प्रगाढ़ता के लिए आवश्यक है कि तेलुगु के विभिन्न भक्त कवियों के व्यक्तित्व, जीवन और कृतित्व को अधिक निकट से जाना जाए तथा उससे अंतरंगता स्थापित की जाए. यह तभी संभव है जब इन रचनाकारों के विषय में हिंदी में विस्तृत और प्रामाणिक अध्ययन उपलब्ध हों. ‘’आंध्र के महान भक्त कवि’’  शीर्षक प्रस्तुत दो-खंडीय ग्रंथमाला इस दिशा में एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रयास है. इसके पहले खंड में अन्नामाचार्य, रामदास और क्षेत्रैया तथा दूसरे खंड में पोतना, मोल्ला और वेंगमाम्बा के जीवन परिचय से लेकर उनके भक्ति और साहित्य के क्षेत्र में प्रदेय तक पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है. इस ग्रंथ को पढ़कर भक्ति आंदोलन की हमारी समझ वास्तव में अधिक उदात्त और समृद्ध हो सकती है.

इस ग्रंथ के रचनाकार एस. शंकराचार्लु (१९४२) हिंदी और तेलुगु भाषा और साहित्य के समर्पित मौन साधक हैं. उन्होंने भ्रमरगीत सार और बिहारी सतसई जैसी महान हिंदी काव्यकृतियों  का तो तेलुगु में अनुवाद किया ही है, तेलुगु के युग प्रवर्तक महान साहित्यकार वेमना के साहित्य का भी हिंदी में अनुवाद किया है. इस प्रकार वे हिंदी और तेलुगु इन दोनों भाषाओँ पर अपना अधिकार प्रमाणित कर चुके हैं. उभयमुखी अनुवाद कर्म के बाद अब वे तेलुगु भक्ति साहित्य के अपने अध्ययन का सार इस दो-खंडीय ग्रंथमाला के रूप में हिंदी जगत को समर्पित कर रहे हैं जिससे इस विषय संबंधी बड़े अभाव की पूर्ति होना सुनिश्चित है.

तेलुगु पद साहित्य के प्रवर्तक अन्नमाचार्य के संबंध में इस ग्रंथ में जहाँ एक ओर लोकप्रचलित किंवदंतियों पर चर्चा की गई है वहीं जनसमाज को उनकी देन पर भी भली प्रकार प्रकाश डाला गया है. दूसरे भक्त कवि रामदास को आंध्र प्रदेश के जयदेव और लीलाशुक माना जाता है. कुछ लोग उन्हें कबीर का शिष्य भी मानते हैं. उनका जीवन चरित किसी दंतकथा की तरह पूरे आंध्र प्रदेश में प्रचलित है. लोगों का विश्वास है कि उन्हें तानाशाह की जेल से स्वयं राम ने मुक्ति दिलाई तथा उनके हठ के सामने काल को भी झुकना पड़ा – उनके मृत पुत्र को जीवन प्रदान करना पड़ा. ऐसी ही परम प्रेम रूपा भक्ति तीसरे कवि क्षेत्रैया की भी है. उन्होंने कृष्ण का आदेश पाकर विभिन्न स्थानों पर घूमघूमकर प्रेम तत्व का प्रचार किया. कहते हैं कि उन्होंने साक्षात लक्ष्मी के भी दर्शन किए. अभिप्राय यह है कि प्रस्तुत ग्रंथमाला के पहले भाग के तीनों भक्त कवियों के साथ अनेक चमत्कार, लोकविश्वास और दंतकथाएँ जुड़ी हुई हैं. इन तीनों की ही भक्ति माधुर्य भाव से परिपूर्ण है और संपूर्ण समर्पण का प्रतीक है. तीनों ही संगीत के सिद्ध आचार्य हैं. दरअसल भक्ति साहित्य को जन जन तक पहुंचाने के लिए सभी भाषाओं के साहित्यकारों ने संगीत का सहारा लिया है. साथ ही नाद ब्रह्म में लीन होकर परमानंद का भी अनुभव किया है. स्मरणीय है कि अन्नामाचार्य ने अपने भक्ति संगीत के माध्यम से लोक साहित्य को कवित्व की सिद्धि प्रदान की और सामाजिक आदर दिलवाया. इसी प्रकार रामदास ने अपने कीर्तनों के माध्यम से एक प्रकार से भजन मंडली की नींव रखी और बारह वर्ष की कठोर जेल यातनाओं को सहते हुए एक तरफ आर्ति तथा दूसरी तरफ उपालंभ के स्वरों से माधुर्य भक्ति को अभिमंडित किया. जब वे राम से निराश होकर सीता के समक्ष जाते हैं तो पाठक को बरबस तुलसी की ‘विनयपत्रिका’ याद आ जाती है. भक्ति संगीत की इस उच्छल धारा को चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया क्षेत्रैया ने. उनके पद साहित्य, संगीत और नृत्य की त्रिवेणी हैं जिसमें काम से अध्यात्म की ओर जाने का उनका अपना जीवनानुभव झलक रहा है.

अन्नमाचार्य, रामदास और क्षेत्रैया की त्रयी के बाद आते हैं महान राम भक्त पोतना जिन्होंने ‘भागवत’ का अनुवाद तेलुगु में किया. स्मरणीय है कि ‘वाल्मीकि रामायण’ का आंध्रीकरण भास्कर और रंगनाथ आदि अनेक कवियों ने किया है तथा ‘महाभारत’ के आंध्रीकरण का श्रेय नन्नैया, तिक्कन्ना और एर्राप्रगडा को जाता है. इसी प्रकार ‘भागवत’ को आंध्र में घर घर पहुंचाने का श्रेय पोतना को जाता है. यह भी उल्लेखनीय है कि इन भक्त कवियों ने भाषा के सरल सहज लोकप्रिय मुहावरे को अपनाया. यही कारण है कि पोतना कृत ‘भागवत’ की उक्तियाँ आंध्र प्रदेश में जन सामान्य में आज भी प्रचलित हैं. कहा जाता है कि पोतना ने कविता रुपी दूध में भक्ति रूपी शक्कर मिलाकर ऐसी मिठास प्रदान कर दी कि हर कोई उसका आस्वादन करना चाहता है. प्रस्तुत ग्रंथमाला के दूसरे भाग में लेखक ने विस्तार से पोतना के योगी, विरागी, भक्त और चिंतक रूप का दर्शन कराया है. वे जब गरीब किसान होते हुए भी राज्याश्रय को अस्वीकार करते हैं तो पाठक को सहज ही ‘संतन कहा सीकरी सों काम’ वाले फक्कडपन की याद आ जाती है.

इस ग्रंथमाला का दूसरा खंड इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि इसमें दो महान महिला भक्तों के चरित और प्रदेय का भी मूल्यांकन किया गया है. ये हैं मोल्ला और वेंगमाम्बा. यह भी ध्यान खींचने वाली बात है कि मोल्ला को स्त्री के ही रूप में नहीं बल्कि निम्नवर्णीय होने के नाम पर भी पुरुषसत्तात्मक समाज की उपेक्षा का शिकार होना पड़ा. अपने जातिगत अहंकार में उच्च वर्ण वालों ने जब तुलसी को ही नहीं बक्शा तो मोल्ला को कैसे छोड़ देते? शूद्रकाव्य कहकर उनकी रचनाओं का तिरस्कार किया गया लेकिन इस अवहेलना से मोल्ला किंचित भी हतोत्साहित नहीं हुईं, उन्होंने सरल, सुबोध तेलुगु गद्य-पद्य में रामकथा गाई जो लोक जीवन के अनुभवों और लोक तत्वों से संयुक्त होकर अन्य रामायणों की तुलना में सर्वथा विशिष्ट रचना बन गई. सहज पंडिता मोल्ला ने अपनी कल्पना शक्ति द्वारा राम कथा में जो मौलिक उद्भावनाएँ की हैं उनके मूल में एक ओर जहाँ स्त्री का अपना अनुभव संसार है वहीं दूसरी ओर राम को अपना मानने का परम वैष्णव भाव भी है.


पाठकों को बार बार मीरा के बचपन, वैवाहिक जीवन, कृष्ण भक्ति और सघर्ष की याद आएगी जब वे तरिगोंड वेंगमाम्बा के भक्त चरित्र को पढ़ेंगे. वेंकटेश स्वामी की इस परम भक्त को बचपन से ही भगवत्प्रेम की अनुभूति हो गई थी. इस भगवत्प्रेम को उन्होंने जब गीत, संगीत और नृत्य के माध्यम से व्यक्त करना आरंभ किया तो इनके पिता को यह सब रास नहीं आया. उन्होंने पहले तो वेंगमाम्बा को गृह कार्यों में फँसा दिया और बाद में उनकी शादी कर दी. मीरा की तरह वेंगमाम्बा भी बहुत कम समय में ही विधवा हो गईं परंतु उनकी दृष्टि में वह व्यक्ति तो उनका पति था ही नहीं. वे वेंकटेश स्वामी को ही अपना पति मानती थीं इसलिए पति के निधन पर उन्होंने सुहाग चिह्न नहीं त्यागे. ऐसी विद्रोहिणी स्त्री का सब ओर से विरोध होना ही था. परिणामस्वरूप उन्हें भी मीरा की भाँति घर छोड़ना पड़ा. उनके साथ भी कई तरह की चमत्कारी घटनाएं जुड़ी हुई हैं जो यह सूचित करती हैं कि वे जनप्रचलित कथाओं की नायिका हैं.

अंत में यह कहना भी जरूरी है कि आंध्र के इन सभी महान भक्तों ने भक्ति का चरमलक्ष्य ईश्वर की अनुकंपा और सायुज्य को उपलब्ध करना माना है. इसके लिए शरणागति और माधुर्य भाव को इन सभी ने अपने जीवन में चरितार्थ किया. परंतु ध्यान देने की बात यह है कि ये सारे भक्त केवेल व्यक्तिगत मुक्ति की एकांतिक साधना करते नहीं दीखते बल्कि अपने साहित्य को संगीत के माध्यम से लोक कल्याण के निमित्त लोक हृदय में प्रवाहित करते दिखाई देते हैं. ये छहों रचनाकार भाषा के लोकसिद्ध रूप के सहज प्रयोक्ता रचनाकार हैं और जन सामान्य तथा जन भाषा को प्रतिष्ठा प्रदान करनेवाले साहित्यकार हैं. ये सभी मनुष्य और मनुष्य के बीच किसी भी प्रकार के भेदभाव को अमानुषिक मानते हैं, जाति, वर्ण, लिंग और जन्म के आधार पर किसी को भी ईश्वराराधन से वंचित करना इन्हें स्वीकार नहीं. यदि यह कहा जाए कि तेलुगु के इन महान भक्त कवियों ने आंध्र प्रदेश में भक्ति भावना के लोकतंत्र की स्थापना की तो यह अनुचित न होगा.

लेखक एस. शंकराचार्लु ने अत्यंत श्रद्धा और श्रमपूर्वक यह ग्रंथ तैयार किया है जिसके लिए वे अभिनन्दन के पात्र है. आशा है, हिंदी जगत में उनके इस कार्य को समुचित सम्मान और यश प्राप्त होगा!

शुभकामनाओं सहित
22 अप्रैल , 2012                                                                                            - ऋषभ देव शर्मा 

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

न जाने कितनों ने पुल का कार्य किया है, भाषा और संस्कृतियों के बीच..