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रविवार, 21 जून 2009

भाषा की मर्यादा की रक्षा के लिए *




निस्संदेह समय बदल गया है और हम नवजागरण काल में नहीं उत्तरआधुनिक काल में जी रहे हैं , तथापि जिन कुछ चीज़ों की प्रासंगिकता आज भी नहीं बदली है उनमें एक है राष्ट्र और राष्ट्रभाषा का वह संबंध जिसे पारिभाषित करते हुए भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कहा था - निज भाषा उन्नति अहै , सब उन्नति कौ मूल / बिन निज भाषा ज्ञान के , मिटे न हिय कौ सूल. भारतेंदु की चिंता का आधार था हम भारत के लोगों का अंग्रेजी-मोह. वह अंग्रेजी-मोह अपने विकट रूप में आज भी जीवित है और भारतीय जीवनमूल्यों को हानि पहुँचाने के साथ हमारे भाषायी गौरव को लगातार क्षीण कर रहा है.यह देखकर किसी भी देशप्रेमी भारतीय को खेद ही हो सकता है कि हमारा भाषायी स्तर दिनोदिन गिरता जा रहा है तथा हमारे समाज की भाषायी समझ कुंठित हो रही है. इसमें संदेह नहीं कि हिंदी आज अंतरराष्ट्रीय भाषा है और वैधानिक रूप से विश्व भाषा की सारी योग्यताएँ उसमें हैं . प्रसन्नता की बात यह है कि अंग्रेजी - मोह के बावजूद हिंदी का प्रचार - प्रसार भी बढ रहा है. अधिक उचित यह कहना होगा कि आज के तकनीकी क्षेत्रों में उसका व्यवहार बढ़ रहा है, इससे एक बार फिर हिंदी को निर्भ्रांत रूप में व्याकरणसम्मत सिद्ध करने की चुनौती सामने है.

हिंदी भाषा के उज्ज्वल स्वरूप का भान कराने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी गुणवत्ता, क्षमता, शिल्प-कौशल और सौंदर्य का सही-सही आकलन किया जाए, इस आकलन में एक बड़ी बाधा यह रही है कि भाषा के स्वरूप का ज्ञान करानेवाला हमारा व्याकरण अंग्रेजी भाषा के व्याकरणिक ढाँचे से आवश्यकता से अधिक जकड़ा हुआ है. ज़रूरत इस चीज़ कि है कि हिंदी व्याकरण को इस प्रकार प्रस्तुत किया जाए कि वह अंग्रेजी की अनुकृति लगने के स्थान पर हिंदी की प्रकृति और प्रवृत्ति का आइना बन सके. यदि ऐसा किया जा सके तो सहज ही सब की समझ में यह आ जाएगा कि -

१. संसार की उन्नत भाषाओं में हिंदी सबसे अधिक व्यवस्थित भाषा है,
२. वह सब से अधिक सरल भाषा है,
३. वह सब से अधिक लचीली भाषा है,
४, वह एक मात्र ऐसी भाषा है जिसके अधिकतर नियम अपवादविहीन हैं तथा
५. वह सच्चे अर्थों में विश्व भाषा बनने की पूर्ण अधिकारी है.

लंबे समय से महसूस किए जा रहे इस अभाव की पूर्ति के लिए व्यक्तिगत और संस्थागत स्तर पर कई तरह के प्रयास हुए हैं , परंतु डॉ. बदरीनाथ कपूर द्वारा प्रस्तुत 'नवशती हिंदी व्याकरण' इस दिशा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण और सफल प्रतीत होता है. डॉ. बदरीनाथ कपूर हिंदी के वरिष्ठतम भाषाविदों में से हैं. वे प्रतिष्ठित कोशकार हैं तथा भाषाचिंतन के क्षेत्र में आज भी सक्रिय है. उन्होंने कई वर्ष के दीर्घ अध्यवसाय से यह व्याकरण तैयार किया है, यह जानना रोचक होगा कि कुछ समय पूर्व जब वे शारीरिक उत्पातों और व्याधियों से इस प्रकार त्रस्त थे कि ३-४ वर्ष तक उन्हें शय्याग्रस्त रहना पड़ा, तब उन्होंने व्याकरण सम्बन्धी चिंतन -मनन में ही संबल प्राप्त किया , कदाचित ऐसा संबल जिसने जीवनरक्षक औषधि का काम किया. इससे व्याकरण चिंतन के साथ उनके गहन तादात्म्य का अनुमान किया जा सकता है. विवेच्य पुस्तक उनके इसी चिंतन से प्रकट नवनीत है. यह आधुनिक हिंदी का वैज्ञानिक पद्धति से तैयार किया गया अकेला व्याकरण है जो नियमों और प्रयोगों को आमने सामने रख कर उदाहरणों के साथ सही और गलत भाषा व्यवहार की पहचान कराता है. डॉ. बदरीनाथ कपूर की यह स्थापना प्रेरणास्पद है कि -

"व्याकरण नियमों का पुलिंदा भर नहीं होता, वह भाषाभाषियों की ज्ञान गरिमा, बुद्धि वैभव , रचना कौशल, सौंदर्य बोध, सजग प्रवृत्ति और सर्जनक्षमता का भी परिचायक होता है. अकेली 'अष्टाध्यायी' ने संस्कृत भाषा को विश्व में जितना गौरव दिलाया उतना किसी अन्य विधा के ग्रंथ ने नहीं. अतः व्याकरण पर नाक-भौंह सिकोड़ना नहीं चाहिए बल्कि उसके प्रति पूज्य भाव रखना चाहिए. व्याकरण भाषा की मर्यादा की रक्षा के लिए समाज को प्रेरित करता है."

विवेच्य पुस्तक में कुल अस्सी पाठ हैं, जिनमें व्याकरण संबंधी सभी विषय और तथ्य समाहित हैं. खास बात यह है कि हर पाठ में बाएँ पृष्ठ पर नियम और उदाहरण हैं, तथा दाहिने पृष्ठ पर अभ्यास दिए गए हैं , जिसके कारण यह पुस्तक स्वयं-शिक्षक बन गई है. आरम्भ में ही 'कुछ नवीन तथ्य' शीर्षक से हिंदी की प्रक्रति और प्रवृत्ति के उस वैशिष्ट्य को उजागर किया गया है जो इस भाषा को संस्कृत और अंग्रेजी दोनों की रूढ़ व्यवस्थाओं से स्वतंत्र अपनी व्यवस्था के निर्माण के लिए प्रेरित करता है. चाहे कर्ता की पहचान हो या कर्म की, क्रियापदों के वर्गीकरण की बात हो या संयुक्त क्रियाओं की, वाच्य की चर्चा हो या काल की - इन सभी स्तरों पर हिंदी के निजीपन को रेखांकित और व्याख्यायित करने के कारण यह व्याकरण छात्रों और अध्यापकों के साथ ही सामान्य पाठकों के लिए भी हिंदी का ठीक प्रयोग सीखने में बहुत मददगार साबितहोगा, इसमें दो राय नहीं.

लेखक ने अब तक चले आ रहे व्याकरणों में दिए जाने वाले रूढ़ हो चुके उदाहरणों से आगे बढ़ कर हर पाठ में आधुनिक जीवन संदर्भ वाले ऐसे उदाहरण शामिल किए हैं जो पर्याप्त रोचक और सरस हैं. जैसे - वह हमारा सलामी बल्लेबाज है./वह हमारे देश की प्रधानमंत्री थीं/हमें ठंडी आइसक्रीम खाने के लिए नहीं मिली थी/मोबाइल काम कर रहा है/आतंकियों ने सिपाही पर गोली चलाई/जिनके घर जले, उन्होंने प्रदर्शन किया.

यद्यपि लेखक ने भाषा मिश्रण को खुले मन से स्वीकार किया है, तथापि ऐसे प्रयोगों की व्याकरणिकता पर भी विचार करने की आवश्यकता थी जो मानक के रूप में स्वीकृत न होते हुए भी शैलीभेद के रूप में प्रचुरता में प्रयुक्त हैं. ऐसे तमाम प्रयोगों को समेटे बिना हिंदी के बोलीय आधार को पूरी तरह संतुष्ट नहीं किया जा सकता. संभवत: चूक से ही सही पर एक ऐसा वाक्य पुस्तक में आ भी गया है -' क्रिकेट खेलने वाले देशों के लोग सचिन तेंदुलकर का नाम अवश्य सुने होंगे'.

पुस्तक की उपादेयता को तीन परिशिष्टों में दी गई शब्द सूचियों, अभ्यासों के उत्तर और विवेचित विषयों की अनुक्रमणिका ने और भी बढा दिया है. इस यथासंभव परिपूर्ण , नवीन, सरल और सरस व्याकरण को सामने लाने के लिए राजकमल प्रकाशन बधाई के पात्र हैं.

*नवशती हिंदी व्याकरण /
डॉ. बदरीनाथ कपूर /
राजकमल प्रकाशन , १-बी , नेताजी सुभाष मार्ग,
नई दिल्ली - ११० ००२ /
२००६ / ९५ रुपये / २३६ पृष्ठ.

Posted By Kavita Vachaknavee to "हिन्दी भारत" at 6/21/2009 12:01:00 AM

मंगलवार, 16 जून 2009

स्मरण : ओमप्रकाश ‘आदित्य’


जाना तो हर एक को है एक दिन जहान से
जाते जाते मेरा एक गीत गुनगुनाती जा।।



आठ जून। खंड प्रलय घटित हो गई मानो। इसे खंड प्रलय न कहें तो क्या कहें? एक ओर तो रंगकर्मी हबीब तनवीर की चिर विदाई तथा दूसरी ओर हिंदी काव्यमंच की तीन प्रतिभाओं का आकस्मिक तिरोधान। लाड़सिंह गूजर और नीरज पुरी के साथ ओमप्रकाश ‘आदित्य’ सूर्योदय की वेला में अस्त हो गए।

समाचार पढ़कर वे दिन याद आ गए जब कवि सम्मेलनों में जाना शुरू ही किया था। बहुत आकर्षित किया था किशोर मन को उन दिनों डॉ. ब्रजेंद्र अवस्थी, देवराज दिनेश और ओमप्रकाश ‘आदित्य’ की कविता प्रस्तुत करने की अपनी-अपनी भंगिमाओं ने। ब्रजेंद्र अवस्थी और देवराज दिनेश तो पहले ही चले गए अब ओमप्रकाश ‘आदित्य’ भी नहीं रहे। ‘स्वतंत्र वार्ता’ के संपादक डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने ‘आदित्य’ जी पर लिखने को कहा तो ‘दिनकर’ (‘आदित्य’ और ‘दिनकर’ दोनों सूर्य के पर्याय हैं ) की पंक्ति याद आ गई - ‘‘गीतकार मर गया, चाँद रोने आया!’’

ओमप्रकाश ‘आदित्य’ ऐसे ही कवि थे जिनके निधन पर सचमुच प्रकृति को भी रोना आ रहा होगा। मृत्यु तो ध्रुव सत्य है, निश्चित है; लेकिन वह कैसे घटित होगी, यह अनिश्चित है। कैसी विड़ंबना है कि इस महान हास्य-व्यंग्यकार को अपने चाहनेवालों को शब्दों की उँगलियों से गुदगुदाकर हँसी में लोट-पोट करके लौटते हुए सड़क दुर्घटना में जाना था। जिसकी कविता के लिए लोग रात-रात भर नींद से लड़ते थे, शायद वाहन चालक पर उतरी नींद का नशा उसकी मृत्यु का कारण बना। दुर्घटना, विड़ंबना और मृत्यु जैसे शब्द ओमप्रकाश ‘आदित्य’ की उस प्रसिद्ध कविता की याद दिलाते हैं जिसमें उन्होंने हिंदी के नए-पुराने कवियों को छज्जे पर खड़ी एक स्त्री के आत्महत्या के प्रयास की ‘सिचुएशन’ पर कविता लिखने को कहा है। आदित्य जी की यह कविता कुछ स्थायी छंदों के अतिरिक्त हर कवि सम्मेलन में नया आकार प्राप्त कर लेती थी। उन्हें विभिन्न कवियों की लेखन और वाचन शैली की इतनी अच्छी पकड़ थी कि हर कवि सम्मेलन में उपस्थित महत्वपूर्ण कवियों की पैराड़ी भी इस रचना में जुड़ती जाती थी। यदि ‘पृथ्वीराज रासो’ हिंदी का विकसनशील महाकाव्य है जिसमें समय-समय पर अन्य कवियों ने अपनी रचना जोड़ी तो ‘सिचुएशन’ ओमप्रकाश ‘आदित्य’ की ऐसी विकसनशील कविता है जिसमें स्वयं उन्होंने समय-समय पर अन्य कवियों की शैली में अपनी रचना जोड़ी। उस पर कमाल यह कि प्रस्तुतीकरण भी वे हू-ब-हू उन्हीं रचनाकारों की तरह करते थे। ‘गोरी बैठी छत्त पर’ शीर्षक यह ‘सिचुएशन’ कविता मैथिलीशरण गुप्त की शैली में आरंभ होती -

‘‘अट्टालिका पर एक रमणी अनमनी सी है अहो।
किस वेदना के भार से संतप्त हो देवी कहो?
धीरज धरो संसार में किसके नहीं दुर्दिन फिरे,
हे राम, रक्षा कीजिए अबला न भूतल पर गिरे।’’

कविता सुमित्रानंदन पंत, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, गोपाल प्रसाद व्यास, काका हाथरसी,, श्याम नारायण पांडेय और गोपालदास नीरज जैसे दिग्गज कवियों के अलग-अलग स्टाइल में आगे बढ़ती जाती और श्रोता हास्य रस में सराबोर होते रहते। यह देखना अपने आप में एक चमत्कारपूर्ण अनुभव था कि दिनकर या श्याम नारायण पांडेय की वीररसपूर्ण शब्दावली किस प्रकार ओमप्रकाश ‘आदित्य’ की कला का संस्पर्श पाकर हास्य उत्पन्न करने लगती थी। दिनकर की पैरोड़ी आज भी याद आती है -

‘‘दग्ध हृदय में धधक रही उत्तप्त प्रेम की ज्वाला।
हिमगिरि के उत्स निचोड, फोड़ पाताल बनो विकराला।
ले ध्वंसों के निर्माण प्राण से गोद भरो पृथ्वी की।
छत पर से मत गिरो गिरो अंबर से वज्र-सरीखी।’’

ओमप्रकाश ‘आदित्य’ के मित्रों और प्रशंसकों को वे दिन सुलाए नहीं भूल सकते जब रेडियो, दूरदर्शन और काव्यमंचों पर ओमप्रकाश ‘आदित्य’ अपने समकालीन दिग्गज हास्य कवियों के साथ हास्य रस को साहित्यिक और स्तरीय रूप में प्रस्तुत कर रहे थे। तब तक हास्य कविता चुटकुले और फूहड़पन में नहीं ढली थी और सही अर्थों में रसानुभूति कराती थी। कार्यक्रम में उनकी उपस्थिति मात्र से उनके चाहनेवाले मुस्कराने लगते थे। धाराप्रवाह शैली में रचना प्रस्तुत करते समय वे इस तरह हास्य रस की फुलझड़ियाँ छोड़ते कि श्रोता सात्विक हास्य में बरबस ठहाके लगाने से खुद को रोक नहीं पाता था। उनके प्रशंसक कविता पढ़ने के उनके इस निराले अंदाज को कभी नहीं भूल पाएँगे कि ‘वे पहले एक साँस में गाते हुए कविता प्रस्तुत करते, फिर बड़े धीरे से फुसफुसाते हुए कविता की वह पंक्ति गुनगुनाते जो सारे माहौल में हँसी का स्फुरण कर देती।’ यह शैली उनके कवि स्वभाव का अंग थी, पहचान थी।


ओमप्रकाश ‘आदित्य’ अपने समकालीन सामाजिक और राजनैतिक परिवेश के प्रति अत्यंत जागरूक थे। इन दोनों ही क्षेत्रों की विसंगतियाँ इन्हें विचलित भी करती थीं और रुष्ट भी। ऐसी विसंगतियों को ही वे कविता का विषय बनाते थे। परंतु ध्यान देने की बात यह है कि वे इस कड़वे यथार्थ को इस तरह प्रस्तुत करते थे कि वह मीठी और गहरी मार करे, चुभे और बेचैन करे। असंतोष और आक्रोश को व्यक्त करनेवाली ऐसी व्यंग्यपूर्ण रचनाओं की एक बड़ी सीमा इनमें आक्रोश को नारे की तरह परोस देने में निहित होती है। ओमप्रकाश ‘आदित्य’ की रचनाधर्मिता उनकी इस कलात्मकता में है कि उन्होंने अपने आक्रोश को नारा नहीं बनने दिया। कवित्व की क्षति करके मंच पर गला फाड़-फाड़कर चिल्लाना उनकी दृष्टि में कवि और काव्य की शालीनता के विरुद्ध था -

‘‘शेर से दहाड़ो मत,
हाथी से चिंधाड़ो मत,
ज्यादा गला फाड़ो मत,
श्रोता डर जाएँगे , घर के सताए हुए आए हैं
बेचारे यहाँ यहाँ भी सताओगे तो ये किधर जाएँगे?’’

उनकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति की एक विशेषता यह भी थी कि वे सहज हास्य के बीच करुणा को इस तरह पिरोते थे कि उसका त्रासद प्रभाव श्रोता के मन पर अंकित हो जाता था। जैसे अपनी एक प्रसिद्ध कविता को वे इस साधारण सी लगनेवाली उक्ति के साथ आरंभ करते हैं कि

‘‘इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं,
जिधर देखता हूँ गधे ही गधे हैं।’’

श्रोता हँसना शुरू करता है कि तभी कवि अगली पंक्तियों में रुदन को सामने ले आता है -

‘‘गधे हँस रहे, आदमी रो रहा है,
हिंदुस्तान में यह क्या हो रहा है।’’

श्रोता इस हास्य और करुणा के द्वंद्व में कभी खिलखिलाता है तो कभी ‘च्च्च्च्’ करता है। कविता आगे बढ़ती है और श्रोता को पहले रोमांटिक बनाती है और बाद में राजनैतिक विड़ंबना की ऐसी पटकनी देनी है कि चेतना में सनसनी जाग उठे -

‘‘जवानी का आलम गधों के लिए है
ये रसिया, ये बालम गधों के लिए है।
ये दिल्ली, ये पालम गधों के लिए है
ये संसार सालम गधों के लिए है।’’

आगे कवि ने इस विड़ंबना की ओर भी इशारा किया है कि योग्य व्यक्ति इस तथाकथित लोकतंत्र में उपेक्षित पड़े है तथा अयोग्य व्यक्ति सब पदों पर काबिज़ है। ऐसा लगता है कि छोड़े तो घास को तरस रहे हैं और गधे च्यवनप्राश खा रहे हैं। इसलिए कुछ न कर पानेवाला आम आदमी अंततः इस सबको भूल जाना चाहता है, पर भूलने से पहले कवि उसे बड़े व्यंजनापूर्ण परंतु सहज ढंग से असली गधे की पहचान करा देता है।

‘‘जो गलियों में डोले वो कच्चा गधा है
जो कोठे पे बोले वो सच्चा गधा है
जो खेतों में दीखे वो फसली गधा है
जो माइक से चीखे वो असली गधा है।’’

अंत में मृत्यु के संदर्भ में ‘नीरज’ की शैली में रचित ओमप्रकाश ‘आदित्य’ की ये पंक्तियाँ ‘त्वदीयं वस्तु गोविंद तुभ्यमेव समर्पये’ की तर्ज़ पर दिवंगत ‘आदित्य’ को निवेदित हैं -

‘‘हो न उदास रूपसी, तू मुस्कुराती जा,
मौत में भी जिंदगी के फूल तू खिलाती जा।
जाना तो हर एक को है एक दिन जहान से,
जाते-जाते मेरा एक गीत गुनगुनाती जा।’’

शनिवार, 6 जून 2009

आतंकवाद और महामंदी के बीच रचनाधर्म का निर्वाह*



आतंकवाद और महामंदी के बीच रचनाधर्म का निर्वाह*


आज जब पत्रकारिता ने बाज़ार की शक्तियों के समक्ष घुटने टेक दिए हैं और विज्ञापन तथा मनोरंजन को ही अपना प्रयोजन बना लिया है .ऐसे में उसके मुनाफाकमाऊ मनोरंजन उद्योग भर बनकर रह जाने का खतरा उत्पन्न हो गया है.इस परिस्थिति में उन लघु पत्रपत्रिकाओं का महत्त्व और दायित्व बढ़ गया है जो घरफूंक तमाशे के तौर पर निकाली जाती हैं. इनकी दृष्टि लाभ पर नहीं आन्दोलनधर्मिता के निर्वाह पर टिकी होती है.इसी बूते ये पत्रिकाएँ रचनाशीलता और वैचारिकता की रक्षा कर पाती हैं. यह प्रसन्नता की बात है कि हिन्दी में ऐसी अनेक नियमित - अनियमित पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं जो आज के रचनाकर्म की दशा और दिशा के स्वस्थ और सटीक होने का पता देती हैं.इनके मुख्य सरोकार के रूप में इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में घटित देश और दुनिया के घटनाक्रम के विश्लेषण को रेखांकित किया जा सकता है जो विमर्श और रचना दोनों स्तरों पर प्रतिफलित हो रहा है.


इस राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में सर्वाधिक भयावह घटना चक्र आतंकवाद और आर्थिक मंदी से सम्बंधित है. जिस समय दुनिया भर में संचार-क्रान्ति के कन्धों पर सवार २१वीँ शताब्दी के स्वागत की तैयारियाँ हो रही थीं उस समय फूकोयामा ने १९९१ में यह घोषणा की थी कि इतिहास और विचारधारा दोनों का अंत हो गया है. इस अंत का कारण यह माना गया कि शीत युद्ध के दौर में पूंजीवादी और साम्यवादी दो विचारधाराएँ सक्रिय थीं. जिनके द्वंद्व के कारण दुनिया में संतुलन बना हुआ था. परन्तु साम्यवादी गढ़ के ढह जाने से दुनिया मानो एकध्रुवीय बनकर रह गयी , तथा अमरीकी नेतृत्व में पूंजीवादी प्रणाली ही दुनिया की नियति या अंतिम सत्य घोषित कर दी गयी . अमरीकी साम्राज्यवाद के अश्वमेध का घोड़ा विश्वविजय के लिए निकल पड़ा. रातोंरात दुनिया विश्वग्राम में तब्दील हो गयी. या कहें कि विश्वबाज़ार में तब्दील हो गयी. उदारवादी अर्थव्यस्था क्रमशः सीमाविहीन होती गयी. भोगवादी मुनाफा संस्कृति ने उन्मुक्तता के नाम पर पूंजी के आवारापन को खुली छूट दी और इसके साथ ही सूचना क्रांति ने उस वैचारिकी को प्रसारित किया जिसमे इतिहास के अंत, विचारधाराओं के अंत, शब्दों के अंत जैसे उत्तरआधुनिक विमर्श शामिल हैं.


इन विमर्शों ने मिलकर मुनाफे को सर्वव्यापी मूल्य के रूप में प्रतिष्टित किया. अंत की घोषणाओं के पीछे-पीछे एक और विमर्श उभरा जिसके अनुसार आज के समय को सभ्यताओं के युद्ध का समय बताया गया. सेमुअल हटिंगटन ने अमरीका की सरकारी पत्रिका 'फारेन-अफेयर्स' में १९९३ में एक लेख लिखा था - 'द क्लैश आफ सिविलाइजेशन्स' जो बाद में १९९६ में पुस्तक के रूप में भी प्रकाशित हुआ. इसमे सभ्यताओं के युद्ध की वैचारिकी को सामने रखते हुए अमेरिकी साम्राज्यवाद के विस्तार की प्रक्रिया को औचित्य प्रदान किया गया है. २०वीँ सदी के विचारधाराओं के शीत युद्ध का स्थान इस वैचारिकी के आने पर सभ्यताओं के संघर्ष ने ले लिया. अफगानिस्तान और इराक की घटनाएँ इसका प्रमाण हैं कि आधुनिकतम हथियारों के साथ इस युग में मध्ययुगीन बर्बरता वापिस आ गयी है जिसे उचित घोषित करते हुए अमेरिका ने सारी दुनिया को धमकाते हुए कहा था कि सभ्यताओं के इस युद्ध में जो देश अमेरिका के साथ हैं वे सभ्य हैं और जो उसके विरोधी हैं वे असभ्य हैं. इसी तर्क का विस्तार २१वीँ सदी में आगे भी होने जा रहा है.. और ऐसा प्रतीत होने लगा है कि आने वाला समय धर्म, संस्कृति आदि की बहुलता का नाश करने के लिए तथाकथित सभ्यताओं के युद्ध का समय होगा.


स्मरण रहे कि नब्बे के बाद से अब तक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद और आर्थिक मंदी भयानकतम समस्याएँ रही हैं जिनका सम्बन्ध निश्चय ही सभ्यताओं के युद्ध की उस वैचारिकी से है जिसके सम्बन्ध में हटिंगटन का कथन है कि पश्चिमी अर्थात ईसाई सभ्यता और इस्लाम के बीच प्रतिद्वंद्विता होगी तथा चूँकि पश्चिमी सभ्यता चरम उत्कर्ष पर है इसलिए वह लोकतंत्र और उदारवाद पर आधारित जीवन मूल्यों को वैश्विक स्तर पर फैलाना चाहेगी. यह चाहना ही विस्तारवाद है जो लोकतंत्र और मानवाधिकार का धोखा देकर प्राकृतिक गैस और कच्चे तेल जैसे संसाधनों वाले देशों को घुटने टेकने के लिए मजबूर करने को प्रणबद्ध है. इस वैचारिकी में पश्चिमी दुनिया, इस्लामी दुनिया, हिन्दू दुनिया और बौद्ध दुनिया जैसे भेद पैदा करके पश्चिमी दुनिया को श्रेष्ट माना गया है और 'एक सभ्यता आधारित विश्व व्यवस्था' का सपना देखा गया है. ऐसा सपना तानाशाही को ही जन्म दे सकता है. इसी के कारण दुनिया भर में धर्म के प्रति पूर्वाग्रह की प्रवृत्ति सघन होती जा रही है, इसी के कारण इस्लामी आतंकवाद को इतना बल मिला है और इसी के कारण मुनाफा संस्कृति के फैलने से आर्थिक महामंदी का दौर आया है.


इस कट्टरवाद और मंदी की तुलना अगर बीसवीं शताब्दी के आरम्भ के वातावरण से की जाए तो याद आएगा कि वह दौर भी ऐसा ही था. दोनों विश्वयुद्धों के पहले आर्थिक मंदी का दौर दौरा था और मंदी के बाद विश्व युद्ध की मार पड़ी थी. आज के समय की भी यही चिंता है कि कहीं सभ्यताओं के युद्ध की वैचारिकी और आर्थिक मंदी की मार दुनिया को तीसरे विश्वयुद्ध के मुँह में न धकेल दे.


''अभिनव कदम - २०'' के सम्पादकीय में जयप्रकाश धूमकेतु ने इस सारे परिदृश्य की विवेचना करते हुए सही कहा है कि आज का वैश्विक संकट पूंजीवादी संरचना का मायाजाल है. वर्त्तमान वैश्विक आतंकवाद और आर्थिक मंदी का संकट पूरी दुनिया में अमेरिका का पैदा किया हुआ है जिसमें वह स्वयं फँस गया है और इस संकट से उबरने का कोई रास्ता अमरीकी पूंजीवाद के पास नहीं है. आज की पीढी का भारतीय रचनाकार इन सब संदर्भो को भारतीय परिप्रेक्ष्य में विवेचित करता है और उसकी फलश्रुति को समकालीन रचनाधर्मिता में परिलक्षित किया जा सकता है.


'अभिनव कदम' के इस अंक में प्रकाशित रचनाओं में आतंकवाद और बाजारवाद के संकट की अभिव्यक्ति अनेक स्थलों पर दिखाई देती है. यों तो अंक में अल्पना मिश्र (मिड डे मील) और हरपाल सिंह अरुष (सिरी किसन का कुनबा) की कहानियां भी हैं, लेकिन मुख्य रूप से पत्रिका कविता को समर्पित प्रतीत होती है. गोपाल कृष्ण, हरिओम, दिनेश कुशवा, श्रीप्रकाश शुक्ल, जीतेन्द्र श्रीवास्तव, सुधांशु कुमार मालवीय, रीता हजेला, केशव शरण, विनय मिश्र, इंदु श्रीवास्तव, रामेश्वर, चंद्रकांत, नमिता सत्येन, उद्भव मिश्र और सरोज पाण्डेय की विविध विधाओं की कविताओं के साथ ऋषभ देव शर्मा की आतंकवाद पर दस कविताएँ भी इस अंक में सम्मिलित हैं.


अंततः इस संकलननुमा अंक में प्रकाशित असद ज़ैदी की वेणुगोपाल की स्मृति को समर्पित कविता "वेणुगोपाल, आदि कवि, १९४२-२००८'' का एक अंश .......

''तुमने देखी एक लम्बी खिंचती जाती अटूट हार, इतनी हार /
कि कोई भी उसका आदी हो जाए ,उस पर आश्रित हो जाए /
वह अच्छी लगने लगे और कुल मिला कर /
उसे जीत की तरह दर्ज करने की प्रथा आम हो जाए...''


*अभिनव कदम -२० / संपादक - जयप्रकाश धूमकेतु / प्रकाश निकुंज, २२३ - पावर हाउस रोड , निजामुद्दीनपुरा , मऊ नाथ भंजन, मऊ - २७५ १०१ [ उत्तरप्रदेश ]/ रु.५०-०० / पृष्ठ ३२८.

बुधवार, 3 जून 2009

समाचार की भाषा का प्रयुक्तिगत स्वरूप


भाषा, समाचार-लेखन का अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है। कहा जाता है कि समाचार लेखक को खास तौर पर निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए -


(1) सरल-सुबोध भाषा-शैली के छोटे-छोटे वाक्यों तथा प्रचलित शब्द-समूहों का ही प्रायः प्रयोग करना चाहिए।

(2) अनुवाद करते समय लक्ष्य भाषा की प्रकृति का ध्यान रखना चाहिए ताकि पाठकों को दुरूह प्रतीत न हो।

(3) समाचार की भाषा में सामासिकता का गुण आवश्यक है जिसका अर्थ है: कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक की अभिव्यक्ति।

(4) एक ही प्रकार के शब्दों या वाक्य-खंडों का बार-बार इस्तेमाल करने से बचें। जैसे किसी का कथन प्रस्तुत करते समय ‘कहा‘, ‘बताया‘, ‘मत व्यक्त किया‘, ‘उनका विचार था‘, ‘वे महसूस करते थे‘ आदि अलग-अलग शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है।

(5) समाचारों की भाषा एकदम सपाट नहीं होनी चाहिए बल्कि उसमें लय और संगति पर ध्यान देना जरूरी है।

(6) व्याकरण, वाक्य-संरचना, विराम चिह्नों तथा वर्तनी के मानक रूपों का प्रयोग करना चाहिए।

(7) ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रों की शब्दावली/पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग में अत्यंत सावधानी अपेक्षित है।



जनसंचार में भाषा के मुद्रित और श्रव्य दोनों रूपों का प्रयोग किया जाता है। मुद्रित भाषा प्रयोग के लिए पढ़ा-लिखा होना आवश्यक है जबकि श्रव्य भाषा के लिए पढ़ा-लिखा होना जरूरी नहीं। मुद्रित भाषा का प्रयोग पुस्तकों, संदर्भ ग्रंथों, समाचार पत्रों, पत्रिकाओं आदि में होता है। इसमें अर्थ को बदल देने की काफी गंुजाइश होती है इसलिए विराम चिह्नों का व्यापक प्रयोग किया जाता है। मुद्रित रूप एक सीमा तक श्रव्य-मौखिक भाषा के प्रयोग में भी आ सकता है। 


नई संचार क्रांति के संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि हिंदी को जनसंचार की समर्थ भाषा के रूप में गठित किया गया है। टेक्नोलॉजी और विज्ञान ने एक नई संचार भाषा को जन्म दिया है। आज जनसंचार में प्रयुक्त हिंदी के बारे में हम यह कह सकते हंै कि पत्रकारिता की हिंदी केवल संस्कृतनिष्ठ हिंदी नहीं है बल्कि यह हिंदी कई भाषाओं के प्रचलित शब्दों को ग्रहण करके व्यापक सर्वग्राह्यता प्राप्त कर चुकी है। आज की हिंदी प्राचीन रूप वाली पश्चिमी हिंदी या डिंगल-पिंगल वाली हिंदी नहीं और न ही मैथिल कोकिल विद्यापति वाली हिंदी है। वह केवल ब्रज एवं अवधी पर भी आश्रित नहीं है। बल्कि पत्रकारिता की हिंदी आज भारतीय भाषाओं के मेल तथा विदेशी भाषाओं के शब्दों से भी शक्ति प्राप्त करती है। इस आधार पर ही हिंदी के चार रूपों की परिकल्पना तत्सम, तद्भव, देशज एवं विदेशी के रूप में की गई है। समाचारों में प्रयुक्त हिंदी समृद्ध हिंदी है तथा इसमें हिंदी के साथ अन्य भाषाओं के भी शब्दों का निःसंकोच प्रयोग किया जाता है जिससे इन भाषाओं के अंतःसंबंध का भी पता चलता है।


ध्यान देने की बात है कि पत्रकारिता का क्षेत्र अत्यंत विराट है अतः अलग-अलग विषयों के समाचारों के लिए अलग-अलग प्रकार की भाषा की जरूरत पड़ती है। इन भिन्न-भिन्न संदर्भों में संप्रेषण-प्रक्रिया के दौरान भाषा के प्रकार/भेद को ‘प्रयुक्ति‘ कहा गया है जिसमें वक्ता या संपे्रषक की भूमिका प्रतिबिंबित होती है। ग्रेगरी एवं कैरोल ने प्रयुक्ति को ऐसा सेतु कहा है जो भिन्न-भिन्न सामाजिक संदर्भों से भाषिक परिवर्तनों को जोड़ने के लिए महत्वपूर्ण है। प्रयुक्ति को गतिशील सामाजिक पृष्ठभूमि पर भाषा-व्यवहार की अनुकूलित विशिष्टता कहा जा सकता है। विषयवस्तु, माध्यम तथा वक्ता-श्रोता संबंध के आधार पर प्रयुक्ति के स्वरूप का निर्धारण होता है। इन्हें वार्ता क्षेत्र, वार्ता-प्रकार एवं वार्ता-शैली के रूप में समझा जा सकता है।


हिंदी पत्रकारिता/समाचार की भाषा के विकास के संदर्भ में यह देखना रोचक होगा कि प्रारंभ में साहित्यिक एवं राजनीतिक पत्रकारिता एकाकार थी। गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन‘, बाबूराव विष्णुराव पराडकर आदि के लिए पत्रकारिता एक मिशन थी। हिंदी पत्रकारिता और भाषा के विकास में आर्यसमाज ने बड़ा योगदान दिया। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में हिंदी-उर्दू की पत्रकारिता की भाषा निखरी। भारतेंदु, महावीर प्रसाद द्विवेदी, बालमुकुंद गुप्त, प्रेमचंद आदि ने पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया तथा हिंदी को गढ़ा।


स्वराज्य एवं स्वदेशी आंदोलन के क्रम में संचार माध्यमों में हिंदी-हिंदुस्तानी आयी। इसके लिए खड़ी बोली का आधार ग्रहण किया गया। स्वतंत्रतापूर्व राष्ट्रभाषा के क्षेत्र में हिंदी को ही सर्वाधिक महत्व प्राप्त था। दक्षिण और उत्तर-पूर्व भारत में अंग्रेज़ी के व्यापक वर्चस्व के बावजूद भारतीय भाषाएँ पत्रकारिता क्षेत्र में समर्थ होती गयीं। स्वातंत्र्योत्तर भारत में प्रत्येक राज्य अपनी राजभाषा चुनने को स्वतंत्र है तथा संघ की राजभाषा हिंदी है। हिंदी को पूर्ण राष्ट्रभाषा के रूप में प्रसारित करने के लिए मानक हिंदी के लिए तरह-तरह के कोश बनाए गए हैं। राष्ट्रभाषा के रूप को निखारने के लिए तकनीकी शब्दावली कोश अत्यंत महत्वपूर्ण है। ऐसे में, समाचार की हिंदी का आदर्श संविधान के अनुच्छेद-351 के अनुसार तय हुआ जो इस प्रकार है -


‘‘संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे ताकि वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्तानी के और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं के प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्द भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।‘‘


समाचारों की हिंदी के इस स्वरूप के विकास में अनुवाद ने भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। विभिन्न भाषाओं के हिंदी अनुवाद ने जनसंचार माध्यम को बहुत प्रभावित किया है, इसमें संदेह नहीं।


ध्यान रखने की बात है कि आधार रूप में जनसंचार में सामान्य भाषा का ही प्रयोग होता है। जनसंचार की भाषा शुद्ध अभिधा प्रधान, अलंकारादि से रहित, सीधी, सरल, स्पष्ट एवं एकार्थक होती है जबकि साहित्यिक, संवैधानिक, कार्यालयीन आदि क्षेत्रों की भाषा की विशेषताएँ इससे कुछ भिन्न होती हैं। 


जैसा कि आप जानते हैं, समाचार पत्रों में स्थानीय, प्रांतीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय समाचार होते हैं जिनके अंतर्गत अनेक प्रकार की सूचनाएँ होती हैं। भाषण, वक्तव्य, विज्ञप्ति, आततायियों के कुकर्म, छेड़छाड़, मारपीट, पॉकेटमारी, चोरी, ठगी, छुरेबाजी, जुआ, हत्या, अपहरण, बलात्कार, जमीन-जायदाद के लिए परिवार के सदस्यों या संबंधियों के बीच फौजदारी, मुकदमेंबाजी, जातिवादी कलह-विद्वेष, रंगभेद, वर्णभेदजन्य अशांति, क्षेत्रीय-प्रांतीय झगड़े, आत्महत्या, विभिन्न आंदोलन, व्यवसाय, राजनीति, अतिवर्षण, अपवर्षण, स्वागत-विदाई, स्थानीय निकायों के समाचार, कार्यालयों से संबद्ध अनेक समस्याएँ, विवाह, यात्रा, मेले, पर्व-त्योहार, खेलकूद, वाणिज्य आदि समाचार के विभिन्न रूपों से भी आप परिचित हैं | कहने का अर्थ है कि समाचार पत्रों का क्षेत्र अत्यंत व्यापक होता है। इसलिए समाचार के विविध शीर्षकों को ऐसी भाषा से सजाया जाता है कि पाठक का ध्यान सहसा उधर खिंच जाय। इस संदर्भ में विशेष बात यह है कि पत्रकारिता में हिंदी की सरलता ने सबको आकृष्ट किया है।



हिंदी के प्रयोजनमूलक रूपों का नयापन विविध प्रकार के समाचारों में देखने को मिलता है। इसके सार्वदेशिक प्रचार-प्रसार के लिए मानक हिंदी का प्रयोग आवश्यक है। मानक भाषा किसी देश अथवा राज्य की वह प्रतिनिधि अथवा आदर्श भाषा होती है जिसका प्रयोग वहाँ के शिक्षित वर्ग द्वारा अपने सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, व्यापारिक, वैज्ञानिक तथा प्रशासनिक कार्यों में किया जाता है। इसे विभिन्न तकनीकी क्षेत्रों की प्रयुक्ति के लिए सहज बनाने की खातिर ही पारिभाषिक शब्दावलियाँ हर एक विषय के लिए बनाई गई है जिनका उपयोग करके विभिन्न विषय क्षेत्रों से संबंधित रिपोर्टिंग की जा सकती है।


‘हिंदी पत्रकारिता की भाषा‘ पर विचार करते हुए प्रो. दिलीप सिंह ने कहा है कि पत्रकारिता के उन विविध स्वरूपों को भी शैलीगत भेद तथा वस्तुनिष्ठता की दृष्टि से विवेचित करने की आवश्यकता है जो आधुनिक हिंदी पत्रकारिता में उभर कर अपने अस्तित्व का बोध कराने लगे हैं जैसे, खेल पत्रकारिता, कृषि एवं ग्रामीण पत्रकारिता, विज्ञान पत्रकारिता, आर्थिक पत्रकारिता, राजनैतिक रिपोर्टिंग, संसदीय रिपोर्टिंग, सांस्कृतिक रिपोर्टिंग, अपराध रिपोर्टिंग, खोजी पत्रकारिता, पीत एवं सनसनी खेल पत्रकारिता आदि। इन सभी के भाषाई वैशिष्ट्य एवं भाषा भेद की पहचान ही हमें पत्रकारिता की हिंदी को संपूर्णता में आकलित, विवेचित एवं विश्लेषित करने की दृष्टि प्रदान कर सकती है। उन्होंने उदाहरणों सहित दिखाया है कि इन सभी प्रयोग-क्षेत्रों में पारिभाषिक शब्दावली की विविधता और प्रस्तुतीकरण का वैविध्य स्पष्ट झलकता है। इस प्रकार यदि पत्रकारिता की हिंदी को एक प्रयुक्ति (रजिस्टर) मानें तो उपर्युक्त विविध प्रकार की रिपोर्टिंग@समाचार लेखन में प्रयुक्त भाषा रूपों को उसकी उपप्रयुक्तियाँ (सब-रजिस्टर्स) माना जा सकता है। 


पत्रकारिता की हिंदी में अनेक पारिभाषिक शब्द अंग्रेज़ी से गृहीत हैं - गेम, टीम, सर्विस, रिटर्न, इनिंग, स्क्रीन टेस्ट, बैरंग, कोटा, कर्फ्यू आदि। अनेक शब्दों का हिंदीकरण भी किया गया है - एकल मुकाबला, स्वप्नदृश्य, स्पर्धा, खिताब आदि। हिंदी के अपने शब्द भी स्थान बना रहे हैं - कीर्तिमान, सलामी बल्लेबाज, खब्बू गेंदबाज, टिकट खिड़की आदि। हिंदी रूप-परिवर्तन के स्वीकृत नियम अपनाए जा रहे हैं - गेमों, अंपायरी, कप्तानी, हाईकमान, दंगाई आदि। संकर रचना को प्रोत्साहित किया जा रहा हैं - विश्व चैंपियन, त्रिआयामी श्रृंखला आदि। हिंदी के अपने मुहावरों का विकास हो रहा है - तूफानी मुकाबला, पकड़ मज़बूत होना। विशेष बात यह है कि अनेक देशज और उर्दू शब्द हिंदी पत्रकारिता की भाषा में अपना स्थान बना रहे हैं - बरामद,हथकंडे, वारदात, घपला, गिरोह, भिड़ंत , घोटाला, फरार, घुसपैठ आदि।


पत्रकारिता की भाषा मुख्यतः लिखित, सुविचारित और संपादित होती है। साथ ही, इसका तकनीकी या आधुनिक बनना भी विविध प्रयोजनमूलक वर्गों के लिए अपरिहार्य है। इतना ही नहीं, पत्रकारिता का सीधा संबंध ‘सर्जनात्मक साहित्य‘ के साथ भी है। इसलिए पत्रकारिता की भाषा एक साथ ‘पारिभाषिकता‘ और ‘सृजनात्मकता‘ दोनों को साधती चलती है। (प्रो. दिलीप सिंह, भारतीय भाषा पत्रकारिता, पृ.197-198)|


हमने पहले आपसे समाचारों की भाषा की सहजता और सुबोधता की चर्चा की है। इस संबंध में यह जान लें कि पत्रकारिता के प्रयोग-क्षेत्र की व्यापकता ही उसकी भाषा में विस्तार, प्रयोगधर्मिता, लचीलापन और बोधगम्यता ले आती है। यही कारण है कि पत्रकारिता की भाषा एक विशिष्ट प्रयोग-क्षेत्र की भाषा सिद्ध होती है।


समाचार की भाषा को विषयानुकूल तो होना ही चाहिए, साथ ही अपने पाठक वर्ग की बौद्धिकता एवं ग्रहणशीलता की क्षमता के अनुरूप भी होना चाहिए। यही कारण है कि पत्रकारिता की हिंदी में शैली भेद को एक प्राकृतिक लक्षण की तरह अपनाया गया है तथा पाठक/श्रोता समुदाय के अनुरूप उच्च हिंदी, हिंदुस्तानी और मिश्रित हिंदी का प्रयोग समाचारों के भाषिक गठन में किया जाता है। हिंदी-उर्दू शैलियाँ आज के समाचारों की भाषा में एकाकार हो गई हैं। अनेक ऐसे शब्द हैं जो दोनों शैलियों के समाचारों में स्थान पा रहे हैं यथा - महज, जायज, फिलहाल, आखिरकार, बेशक, पुरजोर, मकसद, मसलन, लिहाजा, आतिशी। इसी प्रकार कुछ सहप्रयोग भी बहुप्रचलित हैं, यथा - सख्त उपाय, खर्च सीमा, मूल रकम, कानूनी समीकरण, मौजूदा अभियान, क्रिकेटिया खुमार, मेज़बान देश। इस क्रम में कुछ अभिव्यक्तियाँ भी समाचारों में ध्यान खींचती हैं - सख्ती से निबटा जाना चाहिए, यह कार्रवाई एक शानदार मिसाल बन सकती है, खास लोगों को अपना निशाना बनाया है, कमीशन के बतौर मिला धन, यही वहज है कि कानूनन चंदा जायज होने के बावजूद, रकम चेक के जरिए ही जमा की जानी चाहिए, सबका पर्दाफाश करने की ज़रूरत है, जायज खर्चों की सख्त जांच का पुख्ता इंतजाम होना चाहिए। - ये सभी शब्द, सहप्रयोग और अभिव्यक्तियाँ समाचारों की हिंदी को शैली वैविध्य प्रदान करती हैं।


यह भी ध्यान रखने की बात है कि पत्रकारिता का संपर्क जनता से होता है। यह संपर्क उसकी सोच और भाषा से भी होता है। प्रो. दिलीप सिंह के अनुसार ‘‘हिंदी, उर्दू, क्षेत्रीय बोलियों की समग्रताबद्ध ताकत की पहचान ही हिंदी पत्रकारिता की भाषाई चेतना का केंद्रबिंदु है। आमफहम भाषा के निकट आती, परंपरागत प्रयोगों को नए संदर्भ देती, नवीन रचनाएँ करती, पत्रकारिता की हिंदी लोक-मानस के अनुकूल बनी है। अगड़ा, पिछड़ा, जत्था, विदेशी, निवेशक, नैतिक जिम्मेदारी जैसे अनेक नए प्रयोग देखते-देखते पत्रकारिता की हिंदी में स्थान पाते हैं और पाठकों में लोकप्रिय भी हो जाते हैं। भाषा का विकास परिवर्तनों के बीच ही होता है। नई घटनाओं, नई खोजों, सामाजिक-राजनैतिक फेरबदल आदि से पत्रकारिता सीधे संबद्ध होती हैं और इन्हें व्यक्त करने के लिए वह भाषा के तमाम स्रोतों को खंगालती है, शब्दों-अभिव्यक्तियों को नए संदर्भ देती है।‘‘ इस संदर्भ में कुछ अन्य अभिव्यक्तियाँ और शीर्ष पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं - 

अभिव्यक्तियाँ: चुस्त क्षेत्ररक्षण, दमदार टीम, गेंदबाज़ी का विश्लेषण, सधा हुआ खेल, फिरकी गेंदबाज, शुरुआती ओवरों में, कमान संभाली है, टीम के सुर सध गए हैं, जीत का स्वाद चखना है, विकेट झटक सकते हैं, अंकुश लगाए रखते हैं धमाका कर दिया, पैसा डकार गए, लहर चल रही है, नकेल डाल दी, व्यवस्था की कलई खोलता है, सरकार ने रोड़ा लगा दिया, टीम बिखर चुकी है, अगली चाल को तौल रहे थे, सितारे बुलंद हैं।

शीर्ष पंक्तियाँ: पते का पता, एक सीट का सवाल, समय से पहले चेते, आखिर ऊंट आया पहाड़ के नीचे खरी सुनाकर खोटे बने, रोजा गले पड़ा, डोर तनी पर टूटी नहीं, ओटन लगे कपास। (‘भारतीय भाषा पत्रकारिता‘, पृ.199)|


आप देख सकते हैं कि समाचारों की भाषा में ये मुहावरेदार और काव्यात्मक प्रयोग आम-जीवन के सहज संदर्भों से जुडे़ हैं। इनसे पारिभाषिकता भी बोधगम्य बन जाती है। यह समाचार की हिंदी की बड़ी ताकत है। इसके अतिरिक्त आपने इस बात पर भी ध्यान दिया होगा कि समाचार-क्षेत्र में भाषा का आधुनिकीकरण किया गया है। संकरता, नए सहप्रयोग, लोक उन्मुखता और कोडमिश्रण के सहारे आधुनिक भाषारूप गढ़ा गया है। इस संदर्भ में कई बार लिप्यंतरण और दो पर्यायों के समानांतर प्रयोग की बात उठाई जाती है। यहाँ यह देखना चाहिए कि भंडारनायक-भंडारनायके, किसिंजर-किसिंगर, फर्नांडिस-फर्नेंडीस-फर्नाण्डीज़ अथवा गृह मंत्री-स्वराष्ट्र मंत्री, विदेश मंत्री-परराष्ट्र मंत्री, नागरिक उड्डयन मंत्री-नागर विमानन मंत्री के भेद से समाचार की संप्रेषणीयता में कोई बाधा नहीं आ रही है। इसलिए इन भेदों को राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और स्थानीय पत्रकारिता की आवश्यकताआंे और अपेक्षाओं के संदर्भ में स्वीकार करना ही उचित है। दूसरी ओर भाषा की उन जटिलताओं और अस्पष्टताओं पर गहरी नजर रखने की जरूरत है जो अंग्रेजी अनुवाद के दुष्परिणामस्वरूप समाचारों की हिंदी की ‘आत्मीयता‘ को नुकसान पहुँचा रही हैं। भाषा का लक्ष्य-समुदाय के लिए ग्राह्य होना ही सफलता की कसौटी है। इस कसौटी पर हिंदी समाचारों की भाषा खरी उतरती है, इसमें दो राय नहीं।