पुस्तक चर्चा : डॉ. ऋषभदेव शर्मा
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Posted By कविता वाचक्नवी to "हिन्दी भारत" at 2/08/2009 08:41:00 PM
वाक् और अर्थ की संपृक्तता को स्वीकार करने के बावजूद प्रायः दोनों का अध्ययन अलग-अलग खानों में रखकर अलग-अलग कसौटियों पर किया जाता है। इससे अर्थ की, भाषिक कला के रूप
में, साहित्यिक
अभिव्यक्ति के रहस्यों को समझने में दिक्कत पेश आती है। संभवतः इसीलिए साहित्य-अध्ययन के
ऐसे प्रतिमानों की खोज पर बल दिया जात है जिनके सहारे अर्थ की अभिव्यक्ति में निहित वाक् के सौंदर्य को उद्घाटित किया जा सके। इसके लिए अंतरविद्यावर्ती दृष्टिकोण को विकसित करना आवश्यक है। समाज भाषाविज्ञान के अनुप्रयोग द्वारा साहित्यिक कृतियों का विश्लेषण करना भी इस प्रकार की अध्ययन दृष्टि का एक उदाहरण है।
समाज भाषाविज्ञान भाषा को सामाजिक प्रतीकों की ऐसी व्यवस्था के रूप में देखता है जिसमें निहित समाज और संस्कृति के तत्व उसके प्रयोक्ता की अस्मिता का निर्धारण करते हैं। भाषा का सर्वाधिक सर्जनात्मक और संश्लिष्ट प्रयोग साहित्य में मिलता है। अतः समाज भाषाविज्ञान की दृष्टि से
किसी कृति के पाठ विश्लेषण द्वारा उसके संबंध में सर्वाधिक सटीक निष्कर्ष प्राप्त किए जा सकते हैं। समाज भाषाविज्ञान एक प्रकार से भाषाविज्ञान को मानक भाषा की बँधी-बँधाई लीक से निकालकर समाज-सांस्कृतिक सच्चाइयों के आकाश में मुक्त उड़ान के लिए स्वतंत्र करता है। जैसा कि हिंदी के प्रतिष्ठित समाज- भाषाविज्ञानी प्रो। दिलीप सिंह कहते हैं, भाषा के समाजकेंद्रित अध्ययन द्वारा यह संभव हुआ कि ‘‘अब नाते-रिश्ते के शब्द, सर्वनाम और संबोधन प्रयोगों, शिष्ट और विनम्र अभिव्यक्तियों के साथ-साथ आशीष देने, सरापने, विरोध प्रकट करने, सहमत-असहमत होने, यहाँ तक कि गरियाने और अश्लील प्रयोगों तक को समाज की संर
चना और उसके लोगों की मनोवैज्ञानिक बनावट के संदर्भ में देखा-परखा जाने लगा। स्वाभाविक ही है कि इस शृंखला में रंग शब्द भी चौतरफा विचारों के घेरे में आते चले गए। मूल रंग शब्दों की परिकल्पना ने भिन्न समाजों में इनकी प्रतीकवत्ता को देखने से अध्ययन की शुरुआत की थी। हिंदी में ही लाल के साथ अनुराग, हरे के साथ खुशहाली, पीले के साथ शुभ जैसे सामाजिक अर्थों का जुड़ते चले जाना हमारी लोक-संस्कृति का ही नहीं, जीवन को देखने की एक खास दृष्टि का भी परिचायक है।’’ ये विचार उन्होंने डॉ। कविता वाचक्नवी (1963) की पुस्तक ‘‘समाज भाषाविज्ञान : रंग शब्दावली
: निराला काव्य’’ (2009) के प्राक्कथन के तौर पर व्यक्त किए हैं और बताया है कि इस पुस्तक में हिंदी रंग-शब्दों की समाज-सांस्कृतिक संबद्धता को देखने का सराहनीय प्रयास किया गया है।
डॉ. कविता वाचक्नवी की यह कृति समाज भाषाविज्ञान के सैद्धांतिक पहलुओं की हिंदी भाषासमाज के संदर्भ में व्याख्या करते हुए रंग शब्दावली के सर्जनात्मक प्रयोग के निकष पर निराला के काव्य का विश्लेषण प्रस्तुत करती है। इस विश्लेषण की ओर बढ़ने से पहले विस्तारपूर्वक भाषा-अध्ययन की समाज- भाषावैज्ञानिक दृष्टि की व्याख्या की गई हैं। इस व्याख्या
डॉ. कविता वाचक्नवी की यह कृति समाज भाषाविज्ञान के सैद्धांतिक पहलुओं की हिंदी भाषासमाज के संदर्भ में व्याख्या करते हुए रंग शब्दावली के सर्जनात्मक प्रयोग के निकष पर निराला के काव्य का विश्लेषण प्रस्तुत करती है। इस विश्लेषण की ओर बढ़ने से पहले विस्तारपूर्वक भाषा-अध्ययन की समाज- भाषावैज्ञानिक दृष्टि की व्याख्या की गई हैं। इस व्याख्या
की विशेषता यह है कि लेखिका ने विविध समाज भाषिक स्थापनाओं की पुष्टि रंग शब्दावली के मौलिक दृष्टांतों द्वारा की हैं। जैसे ‘‘भाषा, समाज में ही बनती है’’ कि व्याख्या करते हुए यह बताया गया है कि नाते-रिश्तों के शब्दों की भाँति रंग शब्द भी सामाजिक संरचना के अनुसार निर्मित होते हैं। यही कारण है कि एक ही रंग को कहीं जोगिया, कहीं भगवा, कहीं केसरिया, कहीं बसंती तो कहीं वासंती कहा जाता है। इनमें जोगिया / भगवा का संबंध वैराग्य संन्यास से है तो केसरिया / बसंती / वासंती का बलिदान और राष्ट्रप्रेम से। इसी प्रकार ‘‘भाषा और समाज का अन्योन्याश्रय संबंध बताते हुए रंगों के लिंग और वचन बदलने को व्याकरण की अपेक्षा लोक व्यवहार पर आधारित दि
खाया गया है। यहीं ललछौंही और हरियर जैसे तद्भव रंग-शब्दों के सहारे यह दिखाया गया है कि समाज में यह शक्ति होती है कि वह व्याकरणिक रूपों का भी व्यवहार के स्तर पर अतिक्रमण कर सकता है। यह भी दर्शाया गया है कि भाषा में विविध प्रकार के विकल्प समाज द्वारा पैदा किए जाते हैं जैसे दूध से दूधिया, फालसा से फालसाई और किशमिश से किशमिशी रंग-शब्द समाज ने बनाए हंै, व्याकरण ने नहीं। ऐसे अनेक उदाहरण समाज भाषाविज्ञान के सिद्धांतों की पुष्टि के स्तर पर इस कृति को सर्वथा मौलिक सिद्ध करने में समर्थ है।
प्रयोक्ता, क्षेत्र और परिवेश के अनुसार भाषा प्रयोग में भिन्नता के अनेक दृष्टांत साहित्यिक लेखन में भी प्राप्त होते हैं। उनकी भी एक अच्छी खासी सूची लेखिका ने दी है। काले हर्फ, गुलाबी गरमी, नीलोत्पल चरण, साँप के पेट जैसी सफेदी, काले पत्थर की प्याली में दही की याद दिलानेवाली सघन और सफेद दंत-पंक्ति, उजले हरे अँखुवे, रक्तकलंकित, हल्दी रंगी पियरी और लोहित चंदन जैसे प्रयोग इसके उदाहरण हैं । यह भाषा का संस्कृति से संबंध नहीं तो और क्या है कि भारतीय संस्कृति में देवताओं के स्वरूप, वस्त्र और पुष्प तक के रंग निर्धारित हैं। विष्णु और उनके अवतार नीलवर्ण के हैं , पीतांबर और वैजयंती धारण करते हैं तो शिव कर्पूर गौर हैं, गला नीला, ऊपर सफेद चंद्रमा, गंगा का धवल जल, शिव पत्नी का गोरा रंग और शिव का वस्त्र बाघम्बर ! देवियों के साथ भी सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण वाचक रंग जुड़े हैं। यह रंग का सांस्कृतिक संदर्भ ही है कि भारत में मृत्यु पर श्वेत तो पश्चिमी देशों में काले वस्त्र पहने जाते हैं। ईसाई दुल्हन श्वेत परिधान पहनती है और हिंदू विधवा श्वेत वस्त्र। लेखिका के अनुसार संस्कृति में रंग और भाषा में उनकी अभिव्यक्ति जिस सांस्कृतिक चेतना का दिग्दर्शन कराती है वह लोक जीवन और साहित्य में सर्वत्र व्याप्त है।
लेखिका ने सामाजिक संरचना में शब्द अध्ययन की पद्धति और प्रकारों का विवेचन करते हुए पहले तो शब्द अध्ययन की अवधारणा को स्पष्ट किया है। इसके अनंतर किसी समाज की भाषाई सामाजिकता की परख के तीन आधार प्रस्तुत किए हैं - ये हैं संबोधन शब्द, वर्जित शब्द और रंग शब्द। इतना ही नहीं, उन्होंने हिंदी भाषासमाज में प्रयुक्त होने वाले रंग शब्दों की सूची देते हुए यह दर्शाया है कि ये शब्द समाज, संस्कृति और परिवेश से किस प्रकार संबद्ध है। लेखिका की यह स्थापना द्रष्टव्य है कि ‘‘कोई भी भाषा समुदाय एक विशिष्ट सांस्कृतिक भावबोध से परिपूर्ण भाषासमाज होता है। हिंदी भाषा के वैविध्यपूर्ण समाज की सांस्कृतिकता में महत्वपूर्ण है - उसकी शैलीगत विशिष्टता और लोक बोलियों से उसकी संबद्धता। रंग शब्दों को भी हिंदी भाषासमाज ने नए व्यावहारिक संदर्भ दिए हैं और इन्हें अपनी संप्रेषण - व्यवस्था का अनिवार्य अंग बनाया है।’’
कहने की आवश्यकता नहीं कि आधुनिक साहित्य में छायावादी काव्य प्रकृतिचेतस काव्य के रूप में स्वीकृत है तथा रंगों के प्रति अत्यंत जागरूक है। इस संदर्भ में निराला की भाषाई अद्वितीयता को उनके रंगशब्दों के आधार पर विवेचित करने वाली यह पुस्तक अपनी तरह की पहली पुस्तक है। इसमें संदेह नहीं कि निराला ने अपने काव्य में रंगशब्दों का अनेकानेक अर्थछवियों के साथ सर्जनात्मक उपयोग किया है। शब्द, अर्थ और प्रोक्ति के स्तर पर उनकी अभिव्यक्ति का यह विश्लेषण सर्वथा मौलिक और मार्गदर्शक है, इसमें भी दो राय नहीं। ‘‘रंगों का जीवन और शब्दों का जीवन इस अध्ययन में एकरस हो गए हैं। हिंदी भाषा की शब्द संपदा और इस संपदा में आबद्ध लोकजनित, मिथकीय और सांस्कृतिक अर्थवत्ता की पकड़ से यह सिद्ध होता है कि भाषा की व्यंजनाशक्ति का कोई ओर-छोर नहीं है। इस फैलाव को पुस्तक में मानो चिमटी से पकड़कर सही जगह पर रख दिया गया है। भाषा अध्ययन को बदरंग समझने वालों के लिए रंगों की मनोहारी छटा बिखेरने वाला कविताकेंद्रित यह अध्ययन किसी चुनौती से कम नहीं।’’ (प्रो. दिलीप सिंह)।
इस पुस्तक में निराला के काव्य की रंग शब्दावली का विवेचन करते हुए रंगशब्दों के प्रत्यक्ष प्रयोग के साथ-साथ प्रकृति और मनोभावों को प्रकट करने के लिए उनके अप्रत्यक्ष प्रयोगों का भी विश्लेषण किया गया है। मूल रंगशब्दों में लाल, हरा, नीला और पीला निराला के प्रिय है। श्वेत और काले का द्वंद्व भी उनके यहाँ खूब उभरकर आया है। पुस्तक में यह प्रतिपादित किया गया है कि अप्रत्यक्ष रंग प्रयोग के संदर्भ में निराला अद्वितीय हैं ; जैसे वे स्वर्णपलाश और कनक से माध्यम से सुनहले रंग के अर्थ को अनेक प्रकार से प्रकट करते हैं। काले रंग के माध्यम से अंधकार और रात्रि ही नहीं, मनोदशाएँ भी व्यक्त की गई है। निराला द्वारा व्यवहृत अंधकार, अंधतम, तिमिर, निशि, अँधेरा, छाया, श्याम, मलिन, अंजन, तम जैसे अंधकार के अनेक प्रर्याय इसका प्रमाण हैं। यहाँ लेखिका की यह स्थापना द्रष्टव्य है कि ये सभी रंग-संदर्भ कवि ने अपने अनुभव - संसार से निर्मित किए हैं तथा इनके संयोजन से वे प्रकृति, मानव और मानसिक स्थितियों से उन परिवर्तनों को भी दिखा पाने में समर्थ हुए है जो अत्यंत धीमीगति से या किसी विशिष्ट प्रभाव से घटित होती हैं।
वस्तुतः रंगशब्दों के प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रयोग, रंगाभास और रंगाक्षेप की स्थिति, सादृश्य विधान में रंगों का संयोजन, रंग आधारित मुहावरों के नियोजन तथा कवि की विश्वदृष्टि के प्रस्तुतीकरण में रंगावली के आलंबन के सोदाहरण विवेचन से परिपुष्ट यह कृति हिंदी काव्य-समीक्षा के क्षेत्र में समाज-भाषाविज्ञान के अनुप्रयोग का अनुपम उदाहरण है। इतना ही नहीं, परिशिष्ट में डॉ. विद्यानिवास मिश्र के रंग संबंधी दो निबंधों ‘छायातप’ और ‘रंगबिरंग’ तथा वास्तुविचार में रंगों की भूमिका से संबंधित सामग्री के साथ डॉ. रघुवीर के कोश (ए कम्प्रेहेंसिव इंग्लिश हिंदी डिक्शनरी आफ गवर्नमेंटल एंड एजूकेशन वर्ड्स एण्ड फ्रेजिस ,1955) के रंग संबंधी खंड की अविकल प्रस्तुति भी इस पुस्तक को संग्रहणीय और संदर्भयोग्य पुस्तक बनाने में समर्थ है।
प्रयोक्ता, क्षेत्र और परिवेश के अनुसार भाषा प्रयोग में भिन्नता के अनेक दृष्टांत साहित्यिक लेखन में भी प्राप्त होते हैं। उनकी भी एक अच्छी खासी सूची लेखिका ने दी है। काले हर्फ, गुलाबी गरमी, नीलोत्पल चरण, साँप के पेट जैसी सफेदी, काले पत्थर की प्याली में दही की याद दिलानेवाली सघन और सफेद दंत-पंक्ति, उजले हरे अँखुवे, रक्तकलंकित, हल्दी रंगी पियरी और लोहित चंदन जैसे प्रयोग इसके उदाहरण हैं । यह भाषा का संस्कृति से संबंध नहीं तो और क्या है कि भारतीय संस्कृति में देवताओं के स्वरूप, वस्त्र और पुष्प तक के रंग निर्धारित हैं। विष्णु और उनके अवतार नीलवर्ण के हैं , पीतांबर और वैजयंती धारण करते हैं तो शिव कर्पूर गौर हैं, गला नीला, ऊपर सफेद चंद्रमा, गंगा का धवल जल, शिव पत्नी का गोरा रंग और शिव का वस्त्र बाघम्बर ! देवियों के साथ भी सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण वाचक रंग जुड़े हैं। यह रंग का सांस्कृतिक संदर्भ ही है कि भारत में मृत्यु पर श्वेत तो पश्चिमी देशों में काले वस्त्र पहने जाते हैं। ईसाई दुल्हन श्वेत परिधान पहनती है और हिंदू विधवा श्वेत वस्त्र। लेखिका के अनुसार संस्कृति में रंग और भाषा में उनकी अभिव्यक्ति जिस सांस्कृतिक चेतना का दिग्दर्शन कराती है वह लोक जीवन और साहित्य में सर्वत्र व्याप्त है।
लेखिका ने सामाजिक संरचना में शब्द अध्ययन की पद्धति और प्रकारों का विवेचन करते हुए पहले तो शब्द अध्ययन की अवधारणा को स्पष्ट किया है। इसके अनंतर किसी समाज की भाषाई सामाजिकता की परख के तीन आधार प्रस्तुत किए हैं - ये हैं संबोधन शब्द, वर्जित शब्द और रंग शब्द। इतना ही नहीं, उन्होंने हिंदी भाषासमाज में प्रयुक्त होने वाले रंग शब्दों की सूची देते हुए यह दर्शाया है कि ये शब्द समाज, संस्कृति और परिवेश से किस प्रकार संबद्ध है। लेखिका की यह स्थापना द्रष्टव्य है कि ‘‘कोई भी भाषा समुदाय एक विशिष्ट सांस्कृतिक भावबोध से परिपूर्ण भाषासमाज होता है। हिंदी भाषा के वैविध्यपूर्ण समाज की सांस्कृतिकता में महत्वपूर्ण है - उसकी शैलीगत विशिष्टता और लोक बोलियों से उसकी संबद्धता। रंग शब्दों को भी हिंदी भाषासमाज ने नए व्यावहारिक संदर्भ दिए हैं और इन्हें अपनी संप्रेषण - व्यवस्था का अनिवार्य अंग बनाया है।’’
कहने की आवश्यकता नहीं कि आधुनिक साहित्य में छायावादी काव्य प्रकृतिचेतस काव्य के रूप में स्वीकृत है तथा रंगों के प्रति अत्यंत जागरूक है। इस संदर्भ में निराला की भाषाई अद्वितीयता को उनके रंगशब्दों के आधार पर विवेचित करने वाली यह पुस्तक अपनी तरह की पहली पुस्तक है। इसमें संदेह नहीं कि निराला ने अपने काव्य में रंगशब्दों का अनेकानेक अर्थछवियों के साथ सर्जनात्मक उपयोग किया है। शब्द, अर्थ और प्रोक्ति के स्तर पर उनकी अभिव्यक्ति का यह विश्लेषण सर्वथा मौलिक और मार्गदर्शक है, इसमें भी दो राय नहीं। ‘‘रंगों का जीवन और शब्दों का जीवन इस अध्ययन में एकरस हो गए हैं। हिंदी भाषा की शब्द संपदा और इस संपदा में आबद्ध लोकजनित, मिथकीय और सांस्कृतिक अर्थवत्ता की पकड़ से यह सिद्ध होता है कि भाषा की व्यंजनाशक्ति का कोई ओर-छोर नहीं है। इस फैलाव को पुस्तक में मानो चिमटी से पकड़कर सही जगह पर रख दिया गया है। भाषा अध्ययन को बदरंग समझने वालों के लिए रंगों की मनोहारी छटा बिखेरने वाला कविताकेंद्रित यह अध्ययन किसी चुनौती से कम नहीं।’’ (प्रो. दिलीप सिंह)।
इस पुस्तक में निराला के काव्य की रंग शब्दावली का विवेचन करते हुए रंगशब्दों के प्रत्यक्ष प्रयोग के साथ-साथ प्रकृति और मनोभावों को प्रकट करने के लिए उनके अप्रत्यक्ष प्रयोगों का भी विश्लेषण किया गया है। मूल रंगशब्दों में लाल, हरा, नीला और पीला निराला के प्रिय है। श्वेत और काले का द्वंद्व भी उनके यहाँ खूब उभरकर आया है। पुस्तक में यह प्रतिपादित किया गया है कि अप्रत्यक्ष रंग प्रयोग के संदर्भ में निराला अद्वितीय हैं ; जैसे वे स्वर्णपलाश और कनक से माध्यम से सुनहले रंग के अर्थ को अनेक प्रकार से प्रकट करते हैं। काले रंग के माध्यम से अंधकार और रात्रि ही नहीं, मनोदशाएँ भी व्यक्त की गई है। निराला द्वारा व्यवहृत अंधकार, अंधतम, तिमिर, निशि, अँधेरा, छाया, श्याम, मलिन, अंजन, तम जैसे अंधकार के अनेक प्रर्याय इसका प्रमाण हैं। यहाँ लेखिका की यह स्थापना द्रष्टव्य है कि ये सभी रंग-संदर्भ कवि ने अपने अनुभव - संसार से निर्मित किए हैं तथा इनके संयोजन से वे प्रकृति, मानव और मानसिक स्थितियों से उन परिवर्तनों को भी दिखा पाने में समर्थ हुए है जो अत्यंत धीमीगति से या किसी विशिष्ट प्रभाव से घटित होती हैं।
वस्तुतः रंगशब्दों के प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रयोग, रंगाभास और रंगाक्षेप की स्थिति, सादृश्य विधान में रंगों का संयोजन, रंग आधारित मुहावरों के नियोजन तथा कवि की विश्वदृष्टि के प्रस्तुतीकरण में रंगावली के आलंबन के सोदाहरण विवेचन से परिपुष्ट यह कृति हिंदी काव्य-समीक्षा के क्षेत्र में समाज-भाषाविज्ञान के अनुप्रयोग का अनुपम उदाहरण है। इतना ही नहीं, परिशिष्ट में डॉ. विद्यानिवास मिश्र के रंग संबंधी दो निबंधों ‘छायातप’ और ‘रंगबिरंग’ तथा वास्तुविचार में रंगों की भूमिका से संबंधित सामग्री के साथ डॉ. रघुवीर के कोश (ए कम्प्रेहेंसिव इंग्लिश हिंदी डिक्शनरी आफ गवर्नमेंटल एंड एजूकेशन वर्ड्स एण्ड फ्रेजिस ,1955) के रंग संबंधी खंड की अविकल प्रस्तुति भी इस पुस्तक को संग्रहणीय और संदर्भयोग्य पुस्तक बनाने में समर्थ है।
*समाज-भाषाविज्ञान : रंग शब्दावली : निराला काव्य,
डॉ. कविता वाचक्नवी,
हिंदुस्तानी एकेडेमी,12-डी, कमला नेहरू मार्ग,
इलाहाबाद-211001,उत्तर प्रदेश (भारत)
2009,
150 रु.,
232 पृष्ठ (सजिल्द)|
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Posted By कविता वाचक्नवी to "हिन्दी भारत" at 2/08/2009 08:41:00 PM
2 टिप्पणियां:
बढिया पुस्तक चर्चा के लिए बधाई। डॊ. कविता वाचक्नवी जी को उनके रंगारंग निराला संकलन के लिए बधाई।
धन्यवादी हूँ। आपने इतने श्रम से पुस्तक को हस्तामलकवत् प्रस्तुत कर दिया है कि ध्न्यवाद से भी बात पूरी नहीं कही जा सकती, जो मन में है।
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