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मंगलवार, 13 फ़रवरी 2024

इंदुकांत आंगिरस की प्रेम कविताएँ "सहयात्री"

 


भूमिका

कभी न मुरझाने वाले वसंत का मदनोत्सव


बहुभाषाविद् तथा बहुमुखी सर्जनात्मक प्रतिभा के धनी साहित्यकार इंदुकांत आंगिरस की इस कृति “सहयात्री” के बहाने मुझे उनकी अनंत प्रेमयात्रा का साक्षी बनने का सौभाग्य मिला। यह अनंत प्रेमयात्रा अस्तित्व और सृजन की निरंतरता की यात्रा है। यहाँ तूलिका और लेखनी एक साथ यात्रा पर निकलती हैं और प्रेम का एक ऐसा निजी संसार रचती हैं, जिसमें समस्त जड़-चेतन सृष्टि समा जाती है। विश्व कला के साथ भारतीय कविता की इस चामत्कारिक जुगलबंदी के लिए कवि और चित्रकार दोनों अभिनंदनीय हैं। 


कलाकार और कवि दोनों ही मूलतः चित्रकार हैं। कलाकार ने रेखाचित्र रचे हैं और कवि ने शब्दचित्र आँके हैं। रेखाओं ने शब्दों को मूर्तित किया है और शब्दों ने रेखाओं को अमूर्त वाणी देकर चिर जीवन का वरदान दिया है। कहना न होगा कि कवि आंगिरस की ये कविताएँ आत्मा पर अंकित भित्तिचित्रों की प्रतिध्वनियाँ हैं। चित्रांकन और शब्दांकन का यह रिश्ता यों तो बहुत पुराना है। लेकिन कवि की नित्य नवोन्मेषकारी लेखनी ने चित्रों को कुछ इस तरह शब्दों में ढाला है कि प्रेम की प्रत्येक सूक्ष्मातिसूक्ष्म मनोदशा इन कविताओं में अत्यंत समर्थ उपमाओं, अप्रस्तुतों, रूपकों, प्रतीकों, बिंबों और पुराकथाओं के सहारे साक्षात साकार हो उठती है। अत्यंत कोमल शब्दों पर झेला गया चित्रकला का यह सौंदर्य इन कविताओं को अप्रतिम और अद्भुत आह्लाद का हेतु बनाता है। चित्रों का कविता में यह अनुवाद पाठक की स्मृति में अंकित होने की योग्यता रखता है। 


‘सहयात्री’ प्रेम की गहन अनुभूतियों का चित्रात्मक आख्यान है। एक ऐसा आख्यान जो सूर्य की पहली किरण बनकर आत्मा पर दस्तक देता है। यह दस्तक आत्मा के कभी न मुरझाने वाले वसंत की पहली आहट बन जाती है। वही वसंत जिसे प्रेमीजन प्रेमाग्नि में जलकर प्राप्त किया करते हैं। रंगों और गंधों का एक उल्लास पर्व। प्रेम पंथ पर एक-दूसरे का साथ सूर्य की ऐसी सुनहरी किरणों की तरह है जिनसे प्रेमी आत्माएँ जगमगा उठती हैं और मरुभूमि में भी प्रेम के वासंती फूल महमहाने लगते है। दो प्रेमियों की आत्म-गंध एक-दूसरे में गहरे रच-बस कर गंधस्नात पुष्पों की मुस्कान में बदल जाती है। साँसें भी फूलों की मानिंद खिल उठती हैं और आत्मा की पलकों पर प्रेम-पुष्पों का दीपक झिलमिलाने लगता है। 


वसंत की यह लीला फूलों में तो नाच ही रही है, लेकिन इस अभिव्यक्ति के मूल में कुछ ऐसा है जो अव्यक्त है, परोक्ष है। चित्रकार और कवि दोनों को ही पुहुप- बास से भी पतले उस तत्व की तलाश है। वे महसूस करते हैं कि प्रेम के अनंत वृक्ष ने अब अपनी जड़ें फैला ली हैं। इन जड़ों में प्रकृति और पुरुष का रक्त किसी उन्मुक्त झरने की तरह बह रहा है। प्रेमी हों या योगी सब इसी झरने में तो भींजना चाहते हैं। तभी तो जिंदगी की सरगम फूटती है और सदियों की चौखट पर चाँदनी के फूल मुस्कराने लगते हैं। कवि को चिंता है कि मुग्ध विरहिणी कहीं चंचल हवा की छद्म सादगी से भ्रमित न हो जाए और उसके साथ वासंती खुशबू वाले प्रेमपत्र न भेज दे। हवाएँ गोपनीय को सार्वजनिक बनाने में माहिर होती हैं न! और प्रेमीजन निजता में डूबे रहना चाहते हैं - ‘निपजी में साझी घणा, बाँटे नहीं कबीर’!


प्रेमी और प्रेमास्पद की यह सहयात्रा नित्य नए क्षितिजों का संधान करती है। प्रेम की इस अनंत यात्रा पर प्रेमपात्र का साथ उस नाव की तरह है जो साँसों की लहरों पर तिरकर उस पार उतरती है। दोनों को लगता है कि वे बेल की तरह एक-दूसरे की आत्मा के फूल पर लिपटते जा रहे हैं। उनका यह सामीप्य और सायुज्य चिर मिलन के अद्वैत की भूमिका है। उन्हें विश्वास है कि उनकी प्रेमाग्नि की तपन से बर्फ के पहाड़ पिघल जाएँगे और प्रेम की पावन नदी बह निकलेगी। यही नहीं, उनके प्रेमराग की धुन सुनकर आकाश गूँगा हो जाएगा और धरती बहरी बन जाएगी। यही तो है प्रेम की समाधि में गूँजने वाला दिव्य अनाहत नाद, जो तब सुन पड़ता है जब राधा और माधव एक हो जाते हैं। इसीलिए कवि इंदुकांत आंगिरस की राधा चाहती है कि सदा सदा के लिए माधव की हो जाए, अपनी पलकें बंद करे और उन्हीं में खो जाए। 


इस अवस्था में दो आत्माएँ एक होकर सौ रंगों वाला हरदिल अजीज़ अनूठा इंद्रधनुष सिरजती हैं। आसमान में इंद्रधनुष उगता है, तो धरती पर महुए का एक फूल मोतियों की तरह खिलता है। मुहब्बत के इस महमहाते महुए को जन्म और मृत्यु के घेरे भी आत्मा की धरती पर खिलने से नहीं रोक सकते। प्रेम के स्पर्श में एक ऐसी अलौकिकता है कि उसे पाकर प्रेमीजन सुगंधित फूलों की मानिंद खिल उठते हैं और वसंत के पंखों पर सवार होकर खुद भी पारस-हवा बन जाते हैं। आने को ऐसे विपरीत अवसर भी आते हैं जब ज़माने की आँधियाँ प्रेम-वृक्ष को झिंझोड़ डालती हैं, लेकिन प्रेमीजन पराजित नहीं होते और उनके प्रेम की किश्तियाँ प्रेम-झील में बेख़ौफ़ तिरती रहती हैं। उन्हें दृढ़ विश्वास है कि दो आत्माओं के मिलन का प्रेमफूल वसंत की दहलीज़ पर अनंत काल तक इसी तरह खिलता रहेगा। इस विश्वास का कारण यह अनुभूति है कि हमारे अनंत प्रेम की अग्नि लपटों की रोशनी अब अखिल ब्रह्मांड में फैल रही है और सूरज रोज़ इसी रोशनी से उगता है। इसी रोशनी से तो विनाशकारी महायुद्धों के बीच सृजन के शंखनाद से प्रेमऋचाएँ तरंगित होती हैं। पिंड से ब्रह्मांड तक की यह अनंत यात्रा  नित्य प्रकाशमयी और अमृतमयी है।


‘सहयात्री’ की ये चित्र-कविताएँ एक विशेष पैटर्न में रची गई हैं। हर कविता की अंतिम पंक्तियाँ उसमें व्यंजित चित्र को विशेष ‘उभार’ देती हैं, जैसे-


आओ प्रिय!


प्रेमकिश्ती के सब पालों को खोल दें

अनबूझी दिशा में प्रेमकिश्ती को छोड़ दें


दरिया की लहरों पर प्रेमदीपक जला दें

चाँदनी के फूलों से प्रेममंदिर सजा लें


हम एक-दूसरे की बाँहों में क़ैद हो जाएँ

इक-दूजे में खो जाएँ और ग़ैब हो जाएँ


इस प्रेमनदी में डूबकर हो जाएँ पार

युगों युगों तक कायम रहे अपना प्यार


इस तन्हा पंछी की पीड़ा में हम भी रोएँ

अपने अपने ग़मों के दाग़ प्रेमजल से धोएँ


चाँदनी की चादर ओढ़ सदा के लिए सो जाएँ

एक-दूसरे को ओढ़ लें, एक-दूसरे में खो जाएँ


प्रेम की इस अद्भुत रोशनी में हम मिलकर नहाएँ

और अपने महामिलन की कथा हम सबको सुनाएँ


प्रेमदीपक को अपने लहू से जलाते चलें

इस दुनिया के हर अँधेरे को मिटाते चलें


हम मिलकर शंखनाद करें,  प्रेमबिगुल बजाएँ

इस धरती से नफ़रत का नामोनिशान मिटाएँ


इन काव्यपंक्तियों से यह भी स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि प्रेम की एकाग्रता और निजता के पल भी अंततः लोककल्याण के निमित्त समर्पित और संकल्पित होकर विश्वात्मा में लीन हो जाते हैं। यही तो प्रेममार्ग के सहयात्रियों की मुक्ति है! 


सर्जनात्मकता के इस मनोरम और रमणीय, दर्शनीय और पठनीय अभियान के प्रकाशन के अवसर पर कवि और कलाकार दोनों को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ!


  • ऋषभदेव शर्मा


वसंत पंचमी 

14 फ़रवरी, 2024

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