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शनिवार, 22 जुलाई 2023

मणिपुर डायरी : ऋषभदेव शर्मा

 


मणिपुर डायरी : ऋषभदेव शर्मा


6 मई, 2023: 

समझदारी की ज़रूरत


मणिपुर में भड़की हिंसा देश भर के लिए चिंता का विषय है। लोकतंत्र में आपसी मतभेद के समाधान से लेकर अपनी माँगें मनवाने तक के लिए शांतिपूर्ण तरीके ही मान्य और श्रेयस्कर हैं। ऐसी स्थिति तो कतई काम्य है ही नहीं कि लोगों के दो समूह एक-दूसरे की जान लेने पर उतारू हो जाएँ। अगर किसी राज्य में सरकार को शांति लाने के गोलियों का सहारा लेना पड़े तो समझना चाहिए कि वहाँ अचानक अराजकता फुट पड़ी है। इसलिए अगर मणिपुर में 8 ज़िलों में सेना तैनात करनी पड़ी और सरकार दंगाइयों को देखते ही गोली मारने का आदेश देने को विवश हुई, तो यह बेहद चिंतनीय और दुर्भाग्यपूर्ण है। 


बताया गया है कि हिंसाग्रस्त इलाकों में धारा 144 लागू है। राज्य में अगले 5 दिनों के लिए इंटरनेट सेवा बंद कर दी गई है। आर्मी और असम राइफल्स की 55 टुकड़ियों को तैनात किया गया है। 9000 लोगों को राहत कैंपों में शिफ्ट किया गया है। स्थिति की गंभीरता का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि केंद्र सरकार ने हिंसा प्रभावित क्षेत्रों में तैनाती के लिए आरएएफ की 5 कंपनियों को इम्फाल एयरलिफ्ट किया है, जबकि 15 अन्य जनरल ड्यूटी कंपनियों को भी राज्य में तैनाती के लिए तैयार रहने को कहा गया है।


वे कारण तो खैर जाँच से ही साने आ सकेंगे जिनके चलते ऑल ट्राइबल स्टूडेंट यूनियन के ट्राइबल सॉलिडेरटी मार्च में हिंसा भड़क उठी। लेकिन इस बीच सयाने बता रहे हैं कि राज्य के आदिवासी समुदाय ने गैर-आदिवासी मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा दिए जाने की माँग के विरोध में  यह मार्च निकाला था। इसी दौरान आदिवासियों और गैर-आदिवासियों के बीच संघर्ष शुरू हो गया और उसने दंगे का रूप ले लिया।


याद रहे कि मणिपुर में आदिवासियों और गैर-आदिवासियों के बीच झगड़ा बहुत पुराना है, जिसकी जड़ें वहाँ के इतिहास में हैं। मैतेई एक गैर-आदिवासी समुदाय है। यह मणिपुर की आबादी का 53 प्रतिशत हिस्सा है। मुख्य रूप से इस समुदाय के लोग मणिपुर घाटी में रहते हैं। मौजूदा कानून के अनुसार मैतेई समुदाय को राज्य के पहाड़ी इलाकों में बसने की इजाजत नहीं है। यानी वे इलाके आदिवासी समुदाय अथवा जनजातियों के लिए संरक्षित हैं।  मैतेई समुदाय का यह भी कहना है कि म्यांमार और बांग्लादेश के लोग बड़े पैमाने पर राज्य में दाखिल हो गए हैं और उनके चलते इन्हें परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। इसीलिए ये पिछले 10 साल से अपने समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा  दिए जाने की माँग कर रहे हैं। इसी सिलसिले में पिछले दिनों मणिपुर हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को निर्देश दिया है कि मैतेई समुदाय की माँग पर विचार करे और 4 महीने के भीतर केंद्र को सिफारिश भेजे।  आदिवासी समुदाय इस आदेश पर नाराज़ है।   इसी आदेश का विरोध करने के लिए ऑल ट्राइबल स्टूडेंट यूनियन सड़कों पर उतरी थी जिसमें हजारों लोगों ने हिस्सा लिया और दोनों समुदायों के आपस में भिड़ने से यह अप्रिय स्थिति पैदा हो गई। 


कहना न होगा कि अपनी ऐतिहासिक जड़ों के कारण  यह स्थिति कुछ लंबी भी खिंच सकती है। ऐसे में सियासी पार्टियों  से खास संयम और समझदारी की उम्मीद की जानी चाहिए। उन्हें फिलहाल आरोप-प्रत्यारोप से तौबा करके राज्य में शांति और व्यवस्था कायम करने के लिए काम करना चाहिए ताकि हालात और न बिगड़ने पाएँ। समाज के दो हिस्सों के बीच पैदा हुई  गलतफहमी और शत्रुता की भावना को दूर करने के लिए दोनों समुदायों के प्रबुद्ध लोगों, जन प्रतिनिधियों और प्रशासन के मिल कर प्रयास करने की ज़रूरत तो है ही। 000


25 मई, 2023:

मणिपुर :  कहाँ से आता है वैमनस्य?


मणिपुर में मैतेई समुदाय की खुद को अनुसूचित जनजाति घोषित किए जाने की माँग और इसके विरोध में वर्तमान अनुसूचित जनजाति समुदाय के प्रदर्शन के  दौरान भड़की हिंसा के शांत होने की खबरें अभी तनिक राहत दे ही रही थीं कि फिर से हिंसक वारदातों की खबरें चिंता बढ़ाने लगी हैं। 


करीब महीने भर से मणिपुर आपसी नफरत की आग की लपेट में है। बताया गया है कि भारतीय सेना ने मणिपुर को फिर से दहलाने की एक बड़ी साजिश नाकाम की है। सेना ने एक कार को पकड़ा है, जिसमें भारी मात्रा में हथियार ले जाए जा रहे थे।  सैनिकों को कार में पाँच शॉटगन, पाँच स्थानीय स्तर पर बने ग्रेनेड और शॉटगन के लिए कार्टन में भरी गोलियाँ मिली हैं। इशारा साफ है कि दैनिक जीवन में शांति की वापसी अभी उतनी आसान नहीं है जितनी लगती है! 


याद रहे कि  मणिपुर में आरक्षण की माँग पर छिड़ा विवाद  3 मई, 2023 को जातीय हिंसा में बदल गया था। इस हिंसा में करीब 70 लोगों की मौत हो गई थी और बड़ी संख्या में घरों में आग लगा दी गई थी। शांति स्थापना की खबरों के बीच 20 मई को मणिपुर में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) को तत्काल लागू करने की माँग को लेकर  इम्फाल घाटी में  हजारों मैतेई लोगों ने एक महारैली निकाली।  ‘मणिपुर में कुकी को कोई जगह नहीं’, ‘मणिपुर की क्षेत्रीय अखंडता को मत तोड़ो’, ‘मणिपुर में एनआरसी लागू करो’ के नारे लगाए गए। इसके 2 दिन बाद फिर भड़की हिंसा में लोगों की भीड़ ने दो घरों में आग लगा दी। सयाने बात रहे हैं कि 4 हथियारबंद लोगों ने, जिनमें एक पूर्व विधायक भी शामिल थे, पूर्वी इम्फाल में जबरन बाजार बंद कराने की कोशिश की, जिसके बाद लोग नाराज हो गए और हिंसा भड़क गई। लोगों में व्याप्त असुरक्षा भाव और अफरा तफरी के आलम का अंदाज़ा इस तथ्य से सहज ही लगाया जा सकता है कि पहाड़ी जिलों में रहने वाले मैतेई समुदाय के लोगों का घाटी की ओर पलायन जारी है और कुकी-ज़ोमी समुदाय के लोग जो इम्फाल में बस गए थे, पहाड़ी जिलों की ओर पलायन कर रहे हैं!


यह तो जगजाहिर है कि पूर्वोत्तर भारत में विभिन्न समुदायों के संघर्ष की लंबी सामाजिक और सांस्कृतिक जड़ें हैं। शायद यह कहना गलत न हो कि मणिपुर में फैली वर्तमान अराजकता सामुदायिक राजनीतिक आकांक्षाओं का परिणाम है। जनजातीय आरक्षण के मुद्दे को वहाँ धार्मिक खाई ने और भी जटिल बना दिया है। मैतेई ज्यादातर हिंदू हैं। ये इम्फाल घाटी में और उसके आसपास बसे हुए हैं और इन्हें  आदिवासी-बहुल पहाड़ियों में जमीन खरीदने का हक़ नहीं है। मैतेई समुदाय 2012 से अनुसूचित जनजाति के दर्जे की माँग कर रहा है। क्योंकि उसे 1949 में मणिपुर के भारत में विलय से पहले एक जनजाति के रूप में मान्यता दी गई थी, लेकिन भारत में विलय के बाद वह पहचान खो गई। लेकिन चूँकि राज्य की राजनीति में इनका बाहुल्य है। इसलिए इनकी गणना अनुसूचित जनजाति में किए जाने की माँग को नगा-कुकी आदिवासी अपनी विरासत के लिए खतरे के रूप में देखते हैं। मुख्यतः पहाड़ी इलाकों में बसे नगा-कुकी समुदाय ईसाई है और अनुसूचित जनजाति में शामिल हैं तथा  राज्य की राजधानी में जमीन खरीद सकते हैं!


स्पष्ट है कि दोनों पक्षों का विवाद कहीं न कहीं अपनी-अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान के साथ भी जुड़ा हुआ है।  इसलिए यह सोचना शायद गलत होगा  कि केवल सेना के सहारे राज्य में स्थायी शांति बहाल हो सकती है। राज्यवासियों के बीच आपसी सद्भाव की वापसी के लिए बहुत सावधानीपूर्वक सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर प्रयास किए जाने की ज़रूरत है, ताकि  सब पक्षों का असुरक्षा भाव, आपसी मनोमालिन्य और वैमनस्य मिट सके। 000


13 जून, 2023:

कुकी-मैतेई विवाद में सुलगता मणिपुर 


पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर में कुकी और मैतेई समुदाय के बीच सुलगी हिंसा की आग ठंडी होने के बजाय बार बार भड़कती होती नजर आ रही है। यह सभी देशवासियों की चिंता का विषय है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, 3 मई, 2023 से शुरू हुई हिंसा में अभी तक 105 लोगों की मौत हो चुकी है। 320 से ज्यादा लोग घायल हुए हैं। जातीय हिंसा में विस्थापित हुए 50,650 से अधिक पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को 350 शिविरों में शरण दी गई है।  याद रहे कि दंगे भड़कने के बाद भीड़ ने कई पुलिस थानों और सुरक्षा शिविरों से हजारों विभिन्न प्रकार के हथियार और बड़ी मात्रा में गोला-बारूद और हथियार भी लूट लिए थे। हिंसा में घरों, व्यवसायों और स्कूलों के जलने के साथ संपत्ति को भी व्यापक नुकसान पहुँचा है।


कुकी आदिवासी समुदाय के विरोध प्रदर्शन के हिंसक होने से भड़की इस आग की पृष्ठभूमि बहुत पुरानी है। कुकी भारतीय संविधान के तहत मणिपुर के बहुसंख्यक मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता दिए जाने की संभावना का विरोध कर रहे थे, जिससे उन्हें आदिवासी समुदायों के बराबर विशेषाधिकार मिल जाते। यह हिंसा भारत के उत्तर-पूर्व में मौजूद गहरे जातीय विभाजन का पता देती है। यह क्षेत्र विभिन्न प्रकार के जातीय समूहों का घर है, जिनमें से कई का एक दूसरे के साथ संघर्ष का लंबा इतिहास रहा है। ताज़ा वारदातें इन संघर्षों के मूल कारणों को दूर करने में भारत सरकार की विफलता को भी उजागर करती हैं।


फिलहाल भारत सरकार ने सेना को तैनात करके और प्रभावित क्षेत्रों में कर्फ्यू लगाकर हिंसा को रोकने का प्रयास किया है। शांति और व्यवस्था कायम होने तक राज्य में इंटरनेट पर पाबंदी बढ़ा दी गई है। हालाँकि, यह नहीं कहा जा सकता कि हिंसा को रोकने के लिए ये उपाय कितने कारगर होंगे। डर है है कि संघर्ष और न बढ़ जाए!


मणिपुर में और हिंसा को रोकने का एकमात्र तरीका संघर्ष के मूल कारणों को दूर करना है। इसका अर्थ भूमि अधिकारों के मुद्दे को हल करना है, जो मैतेई और कुकी समुदायों के बीच तनाव का एक प्रमुख स्रोत है। इसका अर्थ भेदभाव के मुद्दे को हल करना भी है, जो भारत के उत्तर-पूर्व में एक बड़ी समस्या है। भारत सरकार को अपने उत्तर-पूर्व में संघर्षों को हल करने के लिए अधिक सक्रिय दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। सरकार को क्षेत्र में आर्थिक विकास और सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों में निवेश करने की आवश्यकता है। इसे एक अधिक समावेशी राजनीतिक व्यवस्था बनाने की भी आवश्यकता है जो सभी जातीय समूहों को एक आवाज दे।


मणिपुर में हुई हिंसा भारत सरकार के लिए चेतावनी भी है। भविष्य में हिंसा को रोकने और इस क्षेत्र को अधिक शांतिपूर्ण कल प्रदान करने के लिए सरकार को अब कार्रवाई करने की आवश्यकता है। सयाने सुझा रहे हैं कि भारत सरकार को हिंसा के कारणों की जाँच करने और इसे फिर से होने से रोकने के तरीकों की सिफारिश करने के लिए एक सच्चाई और सुलह आयोग की स्थापना करनी चाहिए। हिंसा के पीड़ितों को वित्तीय सहायता प्रदान करनी चाहिए और उन्हें अपने जीवन के पुनर्निर्माण में मदद करनी चाहिए। मैतेई और कुकी समुदायों के बीच संवाद और समझ को बढ़ावा देना चाहिए। मणिपुर में सभी लोगों के रहने की स्थिति में सुधार के लिए काम करना चाहिए, चाहे उनकी जातीयता कुछ भी हो।


अंततः यही कि मणिपुर में घटित हिंसा एक राष्ट्रीय त्रासदी है, जिससे पूरा समाज व्यथित है। सही दृष्टिकोण अपनाकर ही, सरकार इस क्षेत्र के लिए अधिक शांतिपूर्ण भविष्य बनाने में मदद कर सकती है। 000


20 जून, 2023:

मणिपुर : एक्शन की दरकार


मणिपुर में 3 मई, 2023 से जारी दो समुदायों की आपसी हिंसा-प्रतिहिंसा ने जो विकृत स्वरूप धारण कर लिया है, वह गंभीर राष्ट्रीय चिंता का सबब है। अब तक इस हिंसा में 105 लोगों की जान जा चुकी है और 350 से अधिक लोग घायल हो गए हैं। कितने लोग बेघरबार हुए हैं और राज्य छोड़कर भाग गए/रहे हैं, उनकी तो गिनती ही नहीं! यही नहीं, हिंसक भीड़ अब मंत्रियों और सत्तारूढ़ दल के जनप्रतिनिधियों पर हमले कर रही है। 


मतलब साफ है कि वहाँ सरकार के प्रति गुस्सा और नाराज़गी विस्फोटक स्तर तक पहुँच चुकी है। उम्मीद की जा रही थी कि केंद्रीय गृह मंत्री के दौरे से कोई समाधान निकलेगा। पर ऐसा हुआ नहीं। स्थिति की गंभीरता का अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि गृह मंत्री की सख्त कदम उठाने की घोषणा के बावजूद, पुलिस से लूटे गए 4000 हथियारों में से अभी तक मात्र 1000 हथियार ही बरामद हो सके हैं। शांति समिति को भी दोनों ही पक्षों ने नकार दिया है, क्योंकि किसी को उस पर भरोसा नहीं है। यानी, राज्य सरकार के हाथों से स्थिति निकल गई लगती है! देखना होगा कि केंद्र सरकार इस समय प्रशासनिक और राजनैतिक स्तर पर सटीक और कठोर निर्णय ले पाती है या नहीं! सयाने बता रहे हैं कि राज्य में हिंसा को रोकने में केंद्र और राज्य दोनों की पुलिस नाकाम और नाकाफी साबित हो रही है। स्थानीय लोगों और सुरक्षाबलों के बीच हिंसक झड़पों और पुलिस के हथियार लूटने की खबरें शांतिप्रिय नागरिकों की नींद हराम किए हुए है। आगज़नी और गोलीबारी को देखते हुए तो यही लगता है कि राज्य में अराजकता का तांडव चल रहा है और व्यवस्था विवशतापूर्वक देखने के अलावा कुछ भी करने में अक्षम सी लग रही है। डर यह भी है कि बल प्रयोग से हालात कहीं और न बिगड़ जाएँ। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि मैतेई-कुकी हिंसा के बीच मुस्लिम मैतेई समुदाय के लोगों ने अपने घरों के बाहर खुद 'यह मुसलमान का एरिया है' लिखना शुरू कर दिया है, ताकि कुकी हमलावर उन्हें मैतेई हिंदू समझ कर हमला न कर दें! लोगो की सलामती उपद्रवियों के रहमो-करम पर निर्भर हो, तो कैसे यक़ीन किया जाए कि राज्य में कानून का शासन बचा हुआ है? यह बात अलग है कि राज्य में शांति बहाल करने के लिए करीब 40 हज़ार सुरक्षाकर्मी तैनात हैं!


याद रहे कि अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा देने की मैतेई समुदाय की माँग के विरोध में राज्य के पहाड़ी जिलों में आदिवासी एकजुटता मार्च के आयोजन से यह हिंसा शुरू हुई थी। मैतेई समुदाय मणिपुर की जनसंख्या का लगभग 53 प्रतिशत है और ज़्यादातर इम्फाल घाटी में आबाद  है तथा मुख्यतः हिंदू है। कुछ मैतेई मुस्लिम भी हैं। जनजातीय नगा और कुकी जनसंख्या का 40 प्रतिशत हिस्सा हैं और पहाड़ी जिलों में निवास करते हैं तथा मुख्यतः ईसाई हैं। असंतोष की जड़ यह है कि जनसंख्या में ज़्यादा होने के बावजूद मैतेई मणिपुर के 10 प्रतिशत भूभाग में रहते हैं, जबकि बाक़ी 90 प्रतिशत हिस्से पर नगा, कुकी और दूसरी जनजातियाँ रहती हैं जहाँ मैतेई को ज़मीन खरीदने का हक़ नहीं है। दूसरी बात यह कि मैतेई लोगों की जनसंख्या ज़्यादा होने के अलावा उनका राजनीति और प्रशासन में  दबदबा है। वे पढ़ने-लिखने के साथ अन्य मामलों में भी आगे हैं। मणिपुर के कुल 60 विधायकों में 40 विधायक मैतेई समुदाय से हैं। बाकी 20 नगा और कुकी जनजाति से आते हैं। अब तक हुए 12 मुख्यमंत्रियों में से 2 ही जनजाति से थे। यही वजह है कि मैतेई को अनुसूचित जनजाति का दर्जा न मिलने देने के लिए वर्तमान जनजाति समुदाय किसी भी हद तक जाने को तैयार है। कोढ़ में खाज यह कि शायद दोनों ही पक्षों को लगता है कि सरकार इस मसले को सुलझाने में रुचि नहीं ले रही, इसलिए वे खुद लड़कर फैसला करने पर उतारू हैं!


सयानों की मानें तो शायद अब समय आ गया है कि हर समुदाय का भरोसा खो चुकी राज्य सरकार को किनारे करके केंद्र कुछ 'निर्णायक' कदम उठाए। यह समय बयानबाज़ी और देखते रहने का नहीं, एक्शन का है! 000


28 जून, 2023:

मणिपुर : कब बुझेगी आग?


सरकार माने या न माने लेकिन मणिपुर से आ रही खबरों से तो यही लगता है कि अराजकता को सँभालने में व्यवस्था लगातार असफल हो रही है। शांति बहाल करने के मार्ग में सेना के सामने नित नई बाधाएँ आ रही हैं। ऐसा लगता है कि कोई किसी पर भरोसा करने को तैयार नहीं है!


हिंसाग्रस्त राज्य में सेना को अब नई तरह की परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। अब महिला कार्यकर्ताओं का समूह जानबूझ कर रास्ते रोक कर सेना के लिए परेशानी पैदा कर रहा है। इसे क्या कहा जाए कि 1500 महिलाओं की भीड़ के विरोध के बाद, सेना को गिरफ्तार किए गए 12 लोगों को मजबूरन छोड़ना पड़ा! सेना एड़ी-चोटी का जोर लगा कर भी तब तक शांति बहाल नहीं कर सकती, जब तक उसे स्थानीय नागरिकों का सहयोग न मिले। सेना लोगों को भरोसा दिलाने की कोशिश कर रही है कि 'आप हमारी मदद कीजिए, मणिपुर की मदद होगी'। लेकिन शायद मणिपुर की चिंता किसी को है ही नहीं -  नस्ली उन्माद अपने चरम पर जो है! राज्य के मुख्यमंत्री भारी अलोकप्रियता का सामना कर रहे हैं। पर शायद केंद्र के पास उनका कोई समर्थ विकल्प नहीं है! मणिपुर के मुख्यमंत्री नोंगथोम्बम बीरेन सिंह और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के बीच हालिया बैठक से जगी सामान्य स्थिति की वापसी की उम्मीद भी जल्दी सिरे चढ़ती नहीं लग रही।


याद रहे कि यह हिंसा कुकी-ज़ोमी समुदाय द्वारा मणिपुर के भीतर एक अलग प्रशासनिक इकाई की माँग के कारण भड़की थी। समुदाय का तर्क है कि राज्य सरकार में प्रभुत्व रखने वाले मैतेई बहुमत द्वारा उनके साथ भेदभाव किया जाता है। जारी हिंसा में सौ से ज़्यादा जानें जा चुकी हैं,  हजारों लोग विस्थापित हुए हैं और संपत्ति को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुँचा है। मुख्यमंत्री से बात करने के बाद केंद्रीय गृहमंत्री ने कहा ज़रूर कि सरकार ऐसा समाधान खोजने के लिए प्रतिबद्ध है जो मणिपुर में सभी समुदायों की शिकायतों का समाधान करेगा। लेकिन कुछ ठोस परिणाम अभी तक नहीं दिखना देश आम नागरिक की चिंता को बढ़ा रहा है। अभी तो बात हिंसा के लिए चीनी बाइक के इस्तेमाल की ही है, लेकिन अचरज नहीं होगा अगर चीन के हाथ की बात भी सामने आ जाए! इससे पहले कि बात पूरी तरह हाथ से निकल जाए, केंद्र को यह भरोसा जगाना होगा कि मणिपुर में सभी समुदायों के अधिकारों की रक्षा की जाएगी। सिंह और शाह के बीच मुलाकात एक सकारात्मक कदम थी, लेकिन यह कहना जल्दबाजी होगी कि इससे मणिपुर में स्थायी शांति आएगी या नहीं। हिंसा की जड़ें गहरी हैं और अंतर्निहित कारणों का पता लगाने में समय लगेगा। सरकार और नागरिक समाज को मिलकर ऐसा समाधान खोजना होगा जो सभी पक्षों को संतुष्ट कर सके।


सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मणिपुर में सभी समुदायों के अधिकार सुरक्षित रहें। इसमें जीवन का अधिकार, संपत्ति का अधिकार और आवाजाही की स्वतंत्रता का अधिकार शामिल है। साथ ही, हिंसा के अंतर्निहित कारणों का समाधान करना चाहिए। इसमें गरीबी, बेरोजगारी और शिक्षा की कमी जैसे मुद्दे शामिल हैं। सबसे पहली ज़रूरत अंतर-सामुदायिक संवाद और समझ को बढ़ावा देने की है। इससे विभिन्न समुदायों के बीच विश्वास और सहयोग बनाने में मदद मिलेगी। नागरिक समाज को शांति प्रक्रिया में अग्रणी भूमिका के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। इसमें ऑल मणिपुर स्टूडेंट्स यूनियन (एएमएसयू) और कुकी नेशनल ऑर्गनाइजेशन (केएनओ) जैसे संगठन शामिल हैं।


अंततः, मणिपुर में हिंसा उन चुनौतियों की याद दिलाती है जिनका भारत अपने पूर्वोत्तर क्षेत्र में सामना करता है। यह एक जटिल मुद्दा है, लेकिन इसका कोई आसान समाधान नहीं है। अतः केंद्र सरकार को सावधानी के साथ तुरंत कुछ कड़े निर्णय लेने पड़ेंगे, वरना कहीं देर न हो जाए! 000


5 जुलाई, 2023:

नस्ली नफ़रत बनाम शांति व्यवस्था


दो  महीने पहले मणिपुर में भड़की नस्ली नफ़रत की आग को बुझाने में राज्य और केंद्र सरकारों को अब तक सफलता न मिलने से  शांतिप्रिय देशवासियों की चिंता बढ़नी स्वाभाविक है। अफसोस कि कुकी और मैतेई समुदायों के इस अवांछित विवाद में अब तक भी गोली मार कर और सिर काट कर हत्या करने की खबरें आ रही हैं। इससे पता चलता है कि अराजकता के विस्फोट को सँभाल पाने में 'डबल इंजन' भी कारगर साबित नहीं हो पा रहा है। 


जैसे जैसे वक़्त बीत रहा है, सियासत के खिलाड़ी अपने लिए ज़मीन तलाशने और आरोप-प्रत्यारोप के चिर-परिचित दाँवपेंच आजमाने में व्यस्त होने लगे हैं।  इस सबको लोकतांत्रिक समाज के लिहाज से शोभन तो नहीं  कहा जा सकता न? यही वजह है कि बीच में सुप्रीम कोर्ट को आना पड़ रहा है। भले ही सरकार का कहना है कि राज्य में स्थिति धीरे धीरे सुधर रही है, तो भी  कुकी समुदाय की ओर से आर्मी प्रोटेक्शन की माँग की जा रही है। (कल यही माँग मैतेई समुदाय भी कर सकता है। क्योंकि आग तो दोनों तरफ बराबर सुलग रही है!) फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर सरकार से राज्य में नस्ली हिंसा को रोकने के लिए उठाए गए कदमों को लेकर एक हफ्ते के अंदर स्टेटस रिपोर्ट माँगी है। जवाबदेही केंद्र की भी है ही। 


कई बार ऐसा लगता है कि मणिपुर की यह हिंसा अलग अलग कबीलाई आदिवासी अस्मिताओं के लिए राज्य की अस्मिता को बलिदान करने की होड़ का परिणाम है। इस होड़ को आरक्षण की राजनीति ने उकसाया है, जिससे ये आदिवासी समुदाय एक दूसरे के प्रति आशंका और घृणा से भर कर खूँरेज़ी पर उतारू हैं। सवाल है, क्या ये समुदाय राज्य को ध्वस्त करके आदिम कबीलाई युग में लौटना चाहते हैं? कबीलों से आगे समाज का विकास सह-अस्तित्व की जिन धारणाओं के आधार पर हुआ था, क्या इस तरह उन्हें ध्वस्त होने दिया जाना चाहिए? क्या पारस्परिकता और विवेक के लिए अब उस समाज में जगह नहीं बची? शायद ऐसा नहीं है। बस उन कारणों को पहचानने और दूर करने की ज़रूरत है, जिन्होंने इन समुदायों के बीच अविश्वास का ज़हर पैदा किया है। 


इसमें संदेह नहीं कि आपसी दुर्भावना के इस ज़हर को समय पर न पहचान पाना राज्य की एन. बीरेन सिंह सरकार की भारी चूक है। पहाड़ी इलाकों में और घाटी में रहने वाले ये समुदाय कोई एक दिन में तो एक दूसरे के खून के प्यासे नहीं हुए होंगे न? उनके बीच के आपसी डर को दूर किए बिना वहाँ शांति की कोई फौजी कवायद शायद ही सफल हो सके! इसलिए वहाँ सामाजिक सद्भाव और समरसता की स्थापना के लिए ईमानदार कोशिशों की ज़रूरत है।   समस्या के धार्मिक और आर्थिक पहलुओं को भी आपसी समझ से सुलझाना होगा, वरना सियासी बयानबाज़ी तो हवाओं को और प्रदूषित ही करेगी।


इस बीच मणिपुर के मुख्यमंत्री एन.  बीरेन सिंह का यह बयान चिंता को और बढ़ाने वाला है कि 3 मई से राज्य में फैली इस हिंसा के पीछे 'विदेशी हाथ' हो सकता है! उन्होंने आशंका जताई है कि ये नस्ली झड़पें 'पूर्व नियोजित' प्रतीत होती हैं। हो सकता है कि यह आशंका निर्मूल हो और ज़िम्मेदारी से बचने का बहाना भर हो। लेकिन अगर ऐसा कोई 'हाथ' वाकई कहीं हो, तो उसे पहचानने और रोकने की ज़िम्मेदारी भी तो सरकार की ही है न? साथ ही, अगर उग्रवादियों की ओर से किसी खास समुदाय के विनाश की खुलेआम धमकियाँ दी जा रही हैं, तो सरकार उनका पर्दाफाश करने और मुँहतोड़ जवाब देने की ज़िम्मेदारी से नहीं बच सकती! 

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21 जुलाई, 2023:

मणिपुर हिंसा : इतना सन्नाटा क्यों?


2 महीने से ज़्यादा वक़्त (80 दिन) से नस्ली हिंसा की लपटों में जल रहे मणिपुर में 2 महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार की अब सामने आई घटना किसी भी समाज के लिए शर्मनाक और निंदनीय है। इस घटना के वीडियो से जिस चरम बर्बरता का पता चलता है, काश वह सच न हो! अन्यथा मणिपुर जैसे स्त्री-सत्तात्मक समाज में स्त्रियों के साथ भीड़ का ऐसे अशोभन आचरण को भयंकर सामाजिक-सांस्कृतिक पतन का ही द्योतक कहा जा सकता है। राजनीति की तो बात छोड़ ही दीजिए। वह तो गर्त में जा ही चुकी है। राजनीति ने ही तो दो मणिपुरी समुदायों को इस कदर नफ़रत से भर दिया है कि वे एक-दूसरे की स्त्रियों के शीलहरण को पराक्रम समझ रहे हैं। इस अराजकता के लिए कौन जिम्मेदार है, यह तो खैर जब तय होगा तब होगा। लेकिन इसमें जिस तरह स्त्रियों को शिकार बनाया गया है, वह हमारे समय की कल्पनातीत त्रासदी है। 


बहुत विलंब से सामने आए इस खौफनाक वीडियो से अगर राजनीतिक गलियारों में  हंगामा मचता है तो यह स्वाभाविक है।  सयाने बता रहे हैं कि  इस वीडियो  में भीड़ में घिरी दो महिलाएँ दिख रही हैं। उनके शरीर पर कपड़े नहीं हैं। भीड़ में शामिल पुरुष उनके साथ अमानवीय व्यवहार करते दिख रहे हैं। इस भीड़ ने इन दोनों महिलाओं को नग्न कर उनकी परेड कराई  थी। कथित रूप से उनका बलात्कार किया गया था। इंडिया टुडे नॉर्थ ईस्ट के हवाले से बताया गया है कि इन महिलाओं को धान के खेतों में ले जाकर उनके साथ सामूहिक दुष्कर्म  किया गया था। 


एक पीड़िता ने अपनी आपबीती भी सुनाई, बताते हैं! इस पीड़िता के लिए वे पल कितने आतंकपूर्ण रहे होंगे जब उस दिन मैतेई समुदाय के लोगों की भीड़  गाँव में घरों को जला रही थी और  कुकी समुदाय का यह परिवार  कच्ची सड़क से भाग निकला था! लेकिन भीड़ ने उन्हें पकड़ लिया। पुरुषों को मौत के घाट उतारने के बाद भीड़ ने महिलाओं का उत्पीड़न करना शुरू किया और उन्हें कपड़े उतारने पर मजबूर किया। 21 साल और 40 साल की इन महिलाओं को इस तरह अपना शिकार बना कर वह भीड़ शायद पहले दिन अपने समुदाय की एक महिला के साथ हुए दुष्कर्म का बदला ले रही थी! ख़ून का बदला ख़ून, और बलात्कार का बदला बलात्कार?


दो समुदायों के वर्चस्व की आपसी लड़ाई इतनी क्रूर और निर्मम हो जाए तो समझना चाहिए कि संस्कृति और सभ्यता से लेकर कानून और व्यवस्था तक सब कुछ सत्ता-संघर्ष की राजनीति की आग में स्वाहा हो चुका है! क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि  केंद्र और राज्य सरकारें, राष्ट्रीय महिला आयोग और राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग इस दुष्कांड का  संज्ञान लेंगे और पीड़िताओं को न्याय मिलेगा? आख़िर कोई तो पूछे, 'इतना सन्नाटा क्यों है भाई?'


यहाँ ठहर कर यह भी पूछा जाना चाहिए कि इस जघन्य कांड का वीडियो वायरल किया जाना, क्या उचित और नैतिक कहा जा सकता है? क्या पुलिस और मीडिया का ध्यान आकर्षित करने का कोई और तरीका नहीं हो सकता था? इस वीडियो को प्रचारित करने वालों ने क्या एक पल के लिए भी सोचा होगा कि इन निर्दोष महिलाओं की  झेली गई भयावह यातना ऐसे वीडियो को शेयर करने से कितनी बढ़ जाएगी, जिससे सोशल मीडिया पर पीड़ितों की पहचान जाहिर हो रही हो? क्या यह भी असंवेदनशीलता नहीं है? लेकिन शायद ऐसा करने वालों को संवेदना से ज़्यादा परवाह सनसनी से मिलने वाले सुख की रही हो! यह भी समाज की मानसिक विकृति ही तो है न!


अंततः साहिर लुधियानवी के शब्दों में इतना ही कि- 


ज़रा मुल्क के रहबरों को बुलाओ

ये कूचे, ये गलियाँ, ये मंज़र दिखाओ

जिन्हें नाज़ है हिंद पर उनको लाओ

जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं

कहाँ हैं, कहाँ हैं, कहाँ हैं 000

(जारी)

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