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शनिवार, 29 जुलाई 2023

आलोचक नामवर सिंह की कविताई

 


आलोचक नामवर सिंह की कविताई

  • पूर्णिमा शर्मा एवं ऋषभदेव शर्मा


नामवर सिंह (28 जुलाई, 1926 - 19 फरवरी, 2019) 'कविता के नए  प्रतिमान' तय करनेवाले आलोचक होने से पूर्व एक सजग कवि और गीतकार थे। यह बात अलग है कि समीक्षा कर्म को प्राथमिकता देने के कारण उनका कवि कर्म अकाल कालग्रस्त हो गया। 


नामवर सिंह को साहित्यिक संस्कार बचपन में स्वाधीनता सेनानी कामता प्रसाद ‘विद्यार्थी' के सत्संग में मिला । साहित्यिक मंडली के सान्निध्य में बालक नामवर ने कक्षा छह में 'पुनीत' उपनाम से काव्य प्रवेश किया। उस समय की एक कविता में उन्होंने इंग्लैंड पर हिटलर की विजय की 'वीरगाथा' कुछ इस तरह गाई-


'चढ्यौ बरतानिया पर हिटलर 'पुनीत' ऐसे 

जैसे गढ़ लंक पर पवन सुत कूदि गौ ।'


काव्याभ्यास के क्रम में उन्होंने कवियों की संगत के प्रभाव से शृंगारी घनाक्षरी की भी रचना ख़ूब डूबकर की-


'आस दूइ मास प्रिय मिलन अवधि की है

उमगे उरोज रहै कंचुकी मसकि मसकि।' 


आठवीं कक्षा में नवोदित कवि नामवर सिंह 'पुनीत' कृत खड़ी बोली का सवैया स्कूल की पत्रिका में छपा-


'तान के सोता रहा जल चादर

वायु-सा खींच जगा गया कोई।'


इसके बाद सन् 1941 ई. में उन्हें पढ़ाई के लिए बनारस आना पड़ा। जहाँ के वातावरण ने उनके कवि मन को नई संवेदनशीलता से भर दिया। स्वयं नामवर सिंह के शब्दों में: 

  • 'गाँव में तब का जो साहित्यिक वातावरण था, पुरानी कविता का था, मध्यकालीन, रीतिकालीन काव्य से छायावाद तक। बनारस आया तो समकालीन साहित्य, खासकर कविता की दुनिया से परिचय हुआ। कविताएँ ही लिखना चाहता था। आलोचना लिखने की सोची भी नहीं थी। जिस साहित्यिक परिवेश से आया था, उसमें खासकर त्रिलोचन और ज्यादातर कवि ही थे। कविता के क्षेत्र में बड़ी हलचल थी। नई कविता रूप धर चुकी थी, जो पुराने सभी छंद बंध तोड़कर आई थी। कहानी के क्षेत्र में एक ठहराव आया हुआ था। कविता की तुलना में कहानी की चर्चा नहीं के बराबर थी। अन्य साहित्यिक विधाओं की तुलना में वह दूसरे दर्जे की चीज़ समझी जा रही थी। आज भी कोई बेहतर स्थिति नहीं है कहानी की। साहित्यिक 'इस्टेबलिशमेंट' में कहानी, नाटक या उपन्यासों की तुलना में आज भी कविता की स्थिति बहुत ऊपर है।'


ऐसी परिस्थिति में उदयप्रताप कॉलेज की पत्रिका 'क्षत्रिय मित्र' और वहाँ की काव्य गोष्ठियों में धीरे-धीरे नामवर सिंह ने गीतकार के रूप में अपनी पहचान बनाई। कॉलेज पत्रिका के प्रथम पृष्ठ पर उनका गीत छपता था और गोष्ठियों में उनका मनोहारी स्वर मंत्रमुग्ध करता था। उनके काव्य संस्कार की पृष्ठभूमि के संबंध में यह उल्लेखनीय है कि आरंभ में उन्होंने ब्रज भाषा में कविताएँ लिखीं और अकबर भाट तथा अमलेश भाट जैसे मुस्लिम काव्य-प्रेमियों की प्रेरणा से शृंगारिक समस्यापूर्तियों पर भाव और अर्थ जाने बिना हाथ आजमाते रहे। बनारस आने पर त्रिलोचन शास्त्री के संपर्क में कवि ने महसूस किया कि आज की काव्य भाषा खड़ी बोली है। छंद का अभ्यास तो पहले से था ही, बनानस के गीतमय परिवेश ने काफ़ी गीत लिखवाए। मुक्त छंद की कविताएँ भी लिखीं। छपी भी कॉलेज पत्रिका में 'नभ में पतंग' के नाम से।


ग्यारहवीं में पढ़ते समय नामवर सिंह ने दो काव्यानुवादों से भी अपनी अद्भुत कवि प्रतिभा का परिचय दिया। उन्होंने 'कीट्स' की रचना "ला बेले डेम सेन्स मर्सी" (द ब्यूटीफुल लेडी विदाउट मर्सी) का 'निर्मम सुंदरी' नाम से काव्यानुसाद किया। साथ ही रवींद्रनाथ ठाकुर की 'उर्वशी' का भी अनुवाद किया।


नामवर सिंह की कविताओं का एक संकलन 1950 ई. में 'नीम के फूल' शीर्षक से बनारस के भारतीय सहकार प्रकाशन की प्रेस में छपने के लिए गया था। लेकिन कभी छपकर प्रेस के बाहर नहीं आया। कुछ कविताएँ 'नई कविता' में जरूर छपी थीं सवैयानुमा। प्रेस में ताला लग गया। काश ऐसा न हुआ होता तो हो सकता था कि नामवर जी का काव्य सृजन आगे भी चलता रहता। लेकिन ऐसा नहीं हो सका और नामवर सिंह अब न कवि रहे न 'पुनीत'। प्राध्यापकी और आलोचकी में ऐसे रमे कि सृजन की अपेक्षा मेहतरी को अपना धर्म बना लिया। सृजन के नाम पर जो बहुत सारा कूड़ा-कर्कट भी जमा होता चला जाता है, वह सृजन के पर्यावरण को प्रदूषित कर सकता है इसीलिए लगातार सफाई की ज़रूरत होती है। यह सफाई कर्म आलोचना का धर्म है। नामवर सिंह ने इसे अंगीकार किया और कवि कर्म को तिलांजलि दे दी। निश्चय ही यह फैसला बहुत कठिन रहा होगा, तभी तो वे ज़ोर देकर कहते दिखाई देते हैं कि उनकी आलोचना में भी उनका कवि सक्रिय रहता है; और निश्चय ही यही नामवर सिंह की आलोचना की सृजनात्मकता का राज़ है। 'कवि नामवर' के 'आलोचक नामवर' बनने का मलाल कई लोगों को रहा, जैसा कि शमशेर बहादुर सिंह ने कहा है:

  • "नामवर उस ज़माने में कविताएँ भी लिखते थे, जिन्हें सुनाते हुए वे कुछ सकुचाते थे। उन कविताओं की तरह उनका सकुचाना भी अच्छा लगता था। क्या वे पर्सनल हो गयी थीं इसलिए? मगर इसीलिए तो वे दो-तीन कविताएँ जो मैंने सुनी (और 'कवि' में) पढ़ी हैं, आज भी मुझे खींचती हैं। मगर एक की नॉस्टेल्जिक ध्वनि का पुनरावर्तन… डोलना, डोलना, डोलना... उसका भाव भीना वातावरण और दूसरे का वह चित्र जिसमें शाखों की एक फाँक के बीच से पूर्णचंद्र का दृश्य वर्णित है... आज भी जैसे मैं सामने हो देख रहा हूँ और अनुभव कर रहा हूँ। मुझे हमेशा उनकी थोड़ी-सी कविताएँ विशुद्ध इमेजिस्ट कविताएँ लगी हैं; और सफल इमेजिस्ट कविताएँ। धीरे-धीरे क्या, जल्द ही, नामवर के युवा कवि को उसके वयस्कतर होते मार्क्सिस्ट आलोचक ने दबा दिया।"


नामवर सिंह की कविताओं के मुख्य विषय प्रकृति, प्रेम और संघर्ष हैं। मधुमास से संबंधित एक गीत में कवि ने सौरभ से साँसों के सुलगने का उल्लेख किया है और साथ ही प्रकृति तथा मन के प्रसार को 'फैलाव' की समांतरता के माध्यम से व्यक्त किया है-


'मँह मँह बेल कचेलियाँ माधव मास

सुरभि सुरभि से सुलग रही हर सांस

सुनित सिवान, सँझाती, कुसुम उजास

ससि पांडुर क्षिति में धुलता आकास


फैलाए कर ज्यों वह तरु निष्पात

फैलाए बाँहें ज्यों सरिता, वात

फैल रहा यह मन जैसे अज्ञात

फैल रहे प्रिय,दिशि दिशि लघु-लघु हाथ।'


इसी क्रम में 'उनये उनये भादरे' में कवि ने बरखा की जल चादरें बिछाई/ उड़ाई हैं। यहाँ सूर्यास्त के बाद एकाकी मन का हाल कुएँ के कोहरे जैसा है। कवि का कल्पना विलास यहीं नहीं रुकता। गुलाबी धूप तो बहुत सुनी/ देखी है, पर कवि नामवर की धूप हरी है और यह हरियाई धूप इतनी शैतान है कि झुके आकाश में नशे-सी चढ़ती है। ग्राम्य प्रकृति और लोकभाषा का सोने में सुहागे जैसा यह संयोग सचमुच द्रष्टव्य है-


"उनये- उनये भादरे

बरखा की जल चादरें

फूल दीप से जले

कि झुरती पुरवैया सी याद रे 

मन कूयें के कोहरे-सा रवि 

डूबे के बाद रे।

भादरे।


उठे बगूले घास में 

चढ़ता रंग बतास में

हरी हो रही धूप

नशे-सी चढ़ती झुके अकास में 

तिरती हैं परछाइयाँ

सीने के भींगे चास में ।

घास में।'


प्रकृति के साथ प्रेम की संवेदना को जोड़ते हुए एक चतुष्पदी में ताल के पारदर्शी नील जल में सिहरते शैवाल के कंपन में कवि प्यासे ओठों और नेत्रों के मिलन के सुख की संभावना देखता है-


'पारदर्शी नील जल में सिहरते शैवाल

चाँद था, हम थे, हिला तुमने दिया भर ताल 

क्या पता था, किंतु, प्यासे को मिलेंगे आज

दूर ओठों से, दृगों में संपुटित दो नाल।'


जबकि एक अन्य चतुष्पदी में पत्तियाँ चटखती हैं, सूखी नदी के पत्थर हँसते हैं, राही को गेही पुकारता है और वायु के छू जाने से वस्त्र भीग-से जाते हैं-


'विजन गिरिपथ पर चटखती पत्तियों का लास

हृदय में निर्जल नदी के पत्थरों का हास

'लौट आ, घर लौट' गेही की कहीं आवाज़

भींगते-से वस्त्र शायद छू गया वातास।'


नामवर सिंह की काव्य प्रतिभा की मौलिकता का आकलन करते हुए त्रिलोचन शास्त्री ने लिखा है कि:

  • 'कई बार पढ़ने पर इन कविताओं में गुंफित भाव शब्दों और पदों के माध्यम से स्तर स्तर खुलते हैं। नामवर सिंह के प्रकृति-चित्र दृष्टि की सीमा तक विशद और फैले हुए हैं। प्रकृति उनकी कविताओं में आलंबन और उद्दीपन रूपों में आई है। सांध्यकाल में नौका विहार करते हुए गंगा में शत-शत कंपमान ज्योति लताएँ, हरित फौवारों सरीखे धान, प्रभातकाल के लघुवृत्त दीपालोक, नदी पार के पेड़ों पर लगे हुए मृगशिरा नक्षत्र, पारदर्शी नील जल में सिहरते हुए शैवाल, स्वर-ताल में पल्लव-सरीखे पंछियों का सुभग वंदनवार, सूचीभेद्य घन के द्वार, शाम के सादे बदरफट घाम, रात के भीतर उभरती रात घुसी परिचित अपरिचित  जिसके तनों की फाँक के उस पार चमकता है शशि का नि:सीम कल्प खुला- खुला-सा ताल, सवेग चलते हुए एक टहनी से फुदककर दूसरी फिर तीसरी पर उड़ रहा चंचल चिड़ी-सा चाँद, सब में नामवर सिंह दूसरे कवियों से अलग दिखाई देते हैं। वर्ण, गंध, शब्द, रूप इन विषयों का सह-चित्रण करने में तथा जागरूक पाठक के हृदय में उसकी समानुभूति जगा देने की ओर वे अपनी कविताओं में विशेष ध्यान रखते हैं।' 


यहाँ युग्म-जीवन के आकर्षण से प्रेरित उनका एक गीत देखा जा सकता है-


'पथ में साँझ

पहाड़ियाँ ऊपर

पीछे अँके झरने का पुकारना।

सीकरों की मेहराब की छाँव में

छूटे हुए कुछ का ठुनकारना ।


एक ही धार में डूबते

दो मनों का टकराकर 

दीठ निवारना ।

याद है- चूड़ी के टूक से चाँद पै

तैरती आँख में आँख का ढारना?'


प्रकृति और प्रेम के अतिरिक्त जिन कविताओं में कवि नामवर के कवि-जीवन के विकास की संभावनाएँ अधिकतम थीं, उनका संबंध सामाजिक असंतोष और संघर्ष की व्यंजना से है। कवि के सामाजिक सरोकार की अभिव्यक्ति निम्नलिखित गीत में देखते ही बनती है जिसका आधार ठेठ भारतीय जीवन की देशी संवेदना में निहित है जहाँ अलाव के इर्द-गिर्द बैठे ग्रामीण जन देशकाल की समीक्षा करते हैं, तेज झोंके आने पर कौड़ा धधक कर और कुत्ता भौंक कर अपनी प्रतिक्रिया को व्यक्त करता है-


'धुँधवाता अलाव, चौतरफा मोढ़ा मचिया

पड़े, गुड़गुड़ाते हुक्का कुछ खींच मिरजई 

बाबा बोले लख अकास, 'अब मटर भी गई' 

देखा सिर पर नीम फाँक में से कचपचिया 


डबडबा गई-सी कँपती पत्तियाँ टहनियाँ

लपटों की आभा में तरु की उभरी छाया।

पकते गुड़ की गरम गंध से सहसा आया

मीठा झोंका। आह, हो गयी कैसी दुनिया।


'सिकमी पर दस गुना'। सुना फिर था वही गला 

सबने गुपचुप सुना, किसी ने कुछ नहीं कहा।

चूँ चूँ बस कोल्हू की, लोहे से नहीं सहा

गया। चिलम फिर चढ़ी, 'खैर, यह पूस तो चला…'


पूरा वाक्य न हुआ कि आया खरतर झोंका 

धधक उठा कौड़ा, पुआल में कुत्ता भौंका।'


इसी प्रकार एक अन्य रचना में पुत्र के जन्म-दिवस के अवसर पर कुछ न दे पाने की व्यथा और आधुनिक जीवन की पैसावादी संस्कृति की पीड़ा को अभिव्यक्ति प्राप्त हुई है। यहाँ यह याद करना अप्रासंगिक न होगा कि नामवर सिंह मंचों पर और संगोष्ठियों में सहृदयों और विद्वानों का ही दिल जीतना नहीं जानते, बच्चों को भी सहज भाव से अपना परम प्रशंसक मित्र बना लेना जानते हैं। उन्होंने अपनी बेटी को 'डिंग-डिंग' संबोधन देते हुए जो पत्र लिखे हैं, वे उनके वत्सल हृदय के निर्मल दर्पण हैं। उसी वात्सल्य के करुणा से समन्वय पर उपजी त्रासदी की प्रस्तुति है नामवर सिंह की यह रचना- 


'आज तुम्हारा जन्मदिवस, यूँ ही यह संध्या 

भी चली गई, किंतु अभागा मैं न जा सका

समुख तुम्हारे और नदी-तट भटका भटका 

कभी देखता हाथ कभी लेखनी अबंध्या।


पार हाट, शायद मेला, रंग रंग गुब्बारे

उठते लघु लघु हाय, सीटियाँ, शिशु सजे-धजे

मचल रहे....सोचूँ कि अचानक दूर छः बजे ।

पथ, इमली में भरा व्योम, आ बैठे तारे।


'सेवा - उपवन', पुष्पभिन्न गंधवह आ लगा 

मस्तक कंकड़भरा किसी ने ज्यों हिला दिया।

हर सुंदर को देख सोचता क्यों मिला हिया।

यदि उससे वंचित रह जाता तुम्हीं-सा सगा


क्षमा मत करो वत्स, आ गया दिन ही ऐसा 

आँख खोलती कलियाँ भी कहती हैं पैसा।'


नामवर सिंह ने सवैया को मुक्त छंद की तरह लिखते हुए उसके चरणों को साध कर गीति की जो सृष्टि की है उसे उनकी 'कोजागर' शीर्षक रचना में देखा जा सकता है। कोजागर आश्विन पूर्णिमा की चाँदनी रात में मनाया जानेवाला एक प्राचीन उत्सव है जिसमें लोग रातभर विविध क्रीड़ाओं और आमोद-प्रमोद में जागते रहते हैं। शरद पूर्णिमा के इस उत्सव के बारे में यह लोक-विश्वास है कि रात में लक्ष्मी देवी स्वर्ग से आकर लोगों से पूछती हैं कि 'कौन जाग रहा है' और जागनेवाले को धन का प्रसाद देती हैं। नामवर सिंह के 'कोजागर' में दृष्टि की डोर से खिंच कर उगते इंदु का आकाशदीप ऊपर चढ़ रहा है, गोरोचनी चाँदनी पिघल रही है, अर्थ-उदास लोचनों में नदी का उजास टूट रहा है, आकाश में मेघ का कपास उड़ रहा है और हिय को जाने क्या हो रहा है, मूढ़ जो ठहरा-


'कोजागर

दीठियों की डोर-खिंचा

(उगते से) इंदु का आकासदीप-दोल चढ़ा जा रहा।


गोरोचनी जोन्ह पिघली-सी

बालुका का तट, आह, चंद्रकांतमणि-सा पसीज-सा रहा।


साथ हम

नख से विलेखते अदेखते से

मौन अलगाव के प्रथम का बढ़ा आ रहा।


अरथ-उदास लोचनों में नदी का उजास

टूटता, अकास में, कपास-मेघ जा रहा।


नीर हटता-सा

क्लिन्न तीर फटता-सा गिरा

किन्तु मूढ़ हियरा, तुझे क्या हुआ जा रहा?'


और अंत में कवि 'काहिल' (विश्वनाथ त्रिपाठी) को संबोधित 'जाहिल कविराय' (नामवर सिंह) का यह छक्का भी पढ़ ही लीजिए। मगर ध्यान रहे कि 'सारे' के 'र' को 'ल' पढ़ना है-


'जब सारे विद्वान ही भये लखपति लाल

क्यों न प्रेम से बोलिए जय जय जय कलिकाल

जय जय जय कलिकाल, खुल गए भाग्य हमारे 

रामराज्य हो गया चमकने लगे सितारे

कह 'जाहिल कविराय' सुनो हे 'काहिल' प्यारे

'र' 'ल'- अभेद को देख रहे सारे के सारे।'

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शनिवार, 22 जुलाई 2023

मणिपुर डायरी : ऋषभदेव शर्मा

 


मणिपुर डायरी : ऋषभदेव शर्मा


6 मई, 2023: 

समझदारी की ज़रूरत


मणिपुर में भड़की हिंसा देश भर के लिए चिंता का विषय है। लोकतंत्र में आपसी मतभेद के समाधान से लेकर अपनी माँगें मनवाने तक के लिए शांतिपूर्ण तरीके ही मान्य और श्रेयस्कर हैं। ऐसी स्थिति तो कतई काम्य है ही नहीं कि लोगों के दो समूह एक-दूसरे की जान लेने पर उतारू हो जाएँ। अगर किसी राज्य में सरकार को शांति लाने के गोलियों का सहारा लेना पड़े तो समझना चाहिए कि वहाँ अचानक अराजकता फुट पड़ी है। इसलिए अगर मणिपुर में 8 ज़िलों में सेना तैनात करनी पड़ी और सरकार दंगाइयों को देखते ही गोली मारने का आदेश देने को विवश हुई, तो यह बेहद चिंतनीय और दुर्भाग्यपूर्ण है। 


बताया गया है कि हिंसाग्रस्त इलाकों में धारा 144 लागू है। राज्य में अगले 5 दिनों के लिए इंटरनेट सेवा बंद कर दी गई है। आर्मी और असम राइफल्स की 55 टुकड़ियों को तैनात किया गया है। 9000 लोगों को राहत कैंपों में शिफ्ट किया गया है। स्थिति की गंभीरता का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि केंद्र सरकार ने हिंसा प्रभावित क्षेत्रों में तैनाती के लिए आरएएफ की 5 कंपनियों को इम्फाल एयरलिफ्ट किया है, जबकि 15 अन्य जनरल ड्यूटी कंपनियों को भी राज्य में तैनाती के लिए तैयार रहने को कहा गया है।


वे कारण तो खैर जाँच से ही साने आ सकेंगे जिनके चलते ऑल ट्राइबल स्टूडेंट यूनियन के ट्राइबल सॉलिडेरटी मार्च में हिंसा भड़क उठी। लेकिन इस बीच सयाने बता रहे हैं कि राज्य के आदिवासी समुदाय ने गैर-आदिवासी मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा दिए जाने की माँग के विरोध में  यह मार्च निकाला था। इसी दौरान आदिवासियों और गैर-आदिवासियों के बीच संघर्ष शुरू हो गया और उसने दंगे का रूप ले लिया।


याद रहे कि मणिपुर में आदिवासियों और गैर-आदिवासियों के बीच झगड़ा बहुत पुराना है, जिसकी जड़ें वहाँ के इतिहास में हैं। मैतेई एक गैर-आदिवासी समुदाय है। यह मणिपुर की आबादी का 53 प्रतिशत हिस्सा है। मुख्य रूप से इस समुदाय के लोग मणिपुर घाटी में रहते हैं। मौजूदा कानून के अनुसार मैतेई समुदाय को राज्य के पहाड़ी इलाकों में बसने की इजाजत नहीं है। यानी वे इलाके आदिवासी समुदाय अथवा जनजातियों के लिए संरक्षित हैं।  मैतेई समुदाय का यह भी कहना है कि म्यांमार और बांग्लादेश के लोग बड़े पैमाने पर राज्य में दाखिल हो गए हैं और उनके चलते इन्हें परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। इसीलिए ये पिछले 10 साल से अपने समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा  दिए जाने की माँग कर रहे हैं। इसी सिलसिले में पिछले दिनों मणिपुर हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को निर्देश दिया है कि मैतेई समुदाय की माँग पर विचार करे और 4 महीने के भीतर केंद्र को सिफारिश भेजे।  आदिवासी समुदाय इस आदेश पर नाराज़ है।   इसी आदेश का विरोध करने के लिए ऑल ट्राइबल स्टूडेंट यूनियन सड़कों पर उतरी थी जिसमें हजारों लोगों ने हिस्सा लिया और दोनों समुदायों के आपस में भिड़ने से यह अप्रिय स्थिति पैदा हो गई। 


कहना न होगा कि अपनी ऐतिहासिक जड़ों के कारण  यह स्थिति कुछ लंबी भी खिंच सकती है। ऐसे में सियासी पार्टियों  से खास संयम और समझदारी की उम्मीद की जानी चाहिए। उन्हें फिलहाल आरोप-प्रत्यारोप से तौबा करके राज्य में शांति और व्यवस्था कायम करने के लिए काम करना चाहिए ताकि हालात और न बिगड़ने पाएँ। समाज के दो हिस्सों के बीच पैदा हुई  गलतफहमी और शत्रुता की भावना को दूर करने के लिए दोनों समुदायों के प्रबुद्ध लोगों, जन प्रतिनिधियों और प्रशासन के मिल कर प्रयास करने की ज़रूरत तो है ही। 000


25 मई, 2023:

मणिपुर :  कहाँ से आता है वैमनस्य?


मणिपुर में मैतेई समुदाय की खुद को अनुसूचित जनजाति घोषित किए जाने की माँग और इसके विरोध में वर्तमान अनुसूचित जनजाति समुदाय के प्रदर्शन के  दौरान भड़की हिंसा के शांत होने की खबरें अभी तनिक राहत दे ही रही थीं कि फिर से हिंसक वारदातों की खबरें चिंता बढ़ाने लगी हैं। 


करीब महीने भर से मणिपुर आपसी नफरत की आग की लपेट में है। बताया गया है कि भारतीय सेना ने मणिपुर को फिर से दहलाने की एक बड़ी साजिश नाकाम की है। सेना ने एक कार को पकड़ा है, जिसमें भारी मात्रा में हथियार ले जाए जा रहे थे।  सैनिकों को कार में पाँच शॉटगन, पाँच स्थानीय स्तर पर बने ग्रेनेड और शॉटगन के लिए कार्टन में भरी गोलियाँ मिली हैं। इशारा साफ है कि दैनिक जीवन में शांति की वापसी अभी उतनी आसान नहीं है जितनी लगती है! 


याद रहे कि  मणिपुर में आरक्षण की माँग पर छिड़ा विवाद  3 मई, 2023 को जातीय हिंसा में बदल गया था। इस हिंसा में करीब 70 लोगों की मौत हो गई थी और बड़ी संख्या में घरों में आग लगा दी गई थी। शांति स्थापना की खबरों के बीच 20 मई को मणिपुर में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) को तत्काल लागू करने की माँग को लेकर  इम्फाल घाटी में  हजारों मैतेई लोगों ने एक महारैली निकाली।  ‘मणिपुर में कुकी को कोई जगह नहीं’, ‘मणिपुर की क्षेत्रीय अखंडता को मत तोड़ो’, ‘मणिपुर में एनआरसी लागू करो’ के नारे लगाए गए। इसके 2 दिन बाद फिर भड़की हिंसा में लोगों की भीड़ ने दो घरों में आग लगा दी। सयाने बात रहे हैं कि 4 हथियारबंद लोगों ने, जिनमें एक पूर्व विधायक भी शामिल थे, पूर्वी इम्फाल में जबरन बाजार बंद कराने की कोशिश की, जिसके बाद लोग नाराज हो गए और हिंसा भड़क गई। लोगों में व्याप्त असुरक्षा भाव और अफरा तफरी के आलम का अंदाज़ा इस तथ्य से सहज ही लगाया जा सकता है कि पहाड़ी जिलों में रहने वाले मैतेई समुदाय के लोगों का घाटी की ओर पलायन जारी है और कुकी-ज़ोमी समुदाय के लोग जो इम्फाल में बस गए थे, पहाड़ी जिलों की ओर पलायन कर रहे हैं!


यह तो जगजाहिर है कि पूर्वोत्तर भारत में विभिन्न समुदायों के संघर्ष की लंबी सामाजिक और सांस्कृतिक जड़ें हैं। शायद यह कहना गलत न हो कि मणिपुर में फैली वर्तमान अराजकता सामुदायिक राजनीतिक आकांक्षाओं का परिणाम है। जनजातीय आरक्षण के मुद्दे को वहाँ धार्मिक खाई ने और भी जटिल बना दिया है। मैतेई ज्यादातर हिंदू हैं। ये इम्फाल घाटी में और उसके आसपास बसे हुए हैं और इन्हें  आदिवासी-बहुल पहाड़ियों में जमीन खरीदने का हक़ नहीं है। मैतेई समुदाय 2012 से अनुसूचित जनजाति के दर्जे की माँग कर रहा है। क्योंकि उसे 1949 में मणिपुर के भारत में विलय से पहले एक जनजाति के रूप में मान्यता दी गई थी, लेकिन भारत में विलय के बाद वह पहचान खो गई। लेकिन चूँकि राज्य की राजनीति में इनका बाहुल्य है। इसलिए इनकी गणना अनुसूचित जनजाति में किए जाने की माँग को नगा-कुकी आदिवासी अपनी विरासत के लिए खतरे के रूप में देखते हैं। मुख्यतः पहाड़ी इलाकों में बसे नगा-कुकी समुदाय ईसाई है और अनुसूचित जनजाति में शामिल हैं तथा  राज्य की राजधानी में जमीन खरीद सकते हैं!


स्पष्ट है कि दोनों पक्षों का विवाद कहीं न कहीं अपनी-अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान के साथ भी जुड़ा हुआ है।  इसलिए यह सोचना शायद गलत होगा  कि केवल सेना के सहारे राज्य में स्थायी शांति बहाल हो सकती है। राज्यवासियों के बीच आपसी सद्भाव की वापसी के लिए बहुत सावधानीपूर्वक सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर प्रयास किए जाने की ज़रूरत है, ताकि  सब पक्षों का असुरक्षा भाव, आपसी मनोमालिन्य और वैमनस्य मिट सके। 000


13 जून, 2023:

कुकी-मैतेई विवाद में सुलगता मणिपुर 


पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर में कुकी और मैतेई समुदाय के बीच सुलगी हिंसा की आग ठंडी होने के बजाय बार बार भड़कती होती नजर आ रही है। यह सभी देशवासियों की चिंता का विषय है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, 3 मई, 2023 से शुरू हुई हिंसा में अभी तक 105 लोगों की मौत हो चुकी है। 320 से ज्यादा लोग घायल हुए हैं। जातीय हिंसा में विस्थापित हुए 50,650 से अधिक पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को 350 शिविरों में शरण दी गई है।  याद रहे कि दंगे भड़कने के बाद भीड़ ने कई पुलिस थानों और सुरक्षा शिविरों से हजारों विभिन्न प्रकार के हथियार और बड़ी मात्रा में गोला-बारूद और हथियार भी लूट लिए थे। हिंसा में घरों, व्यवसायों और स्कूलों के जलने के साथ संपत्ति को भी व्यापक नुकसान पहुँचा है।


कुकी आदिवासी समुदाय के विरोध प्रदर्शन के हिंसक होने से भड़की इस आग की पृष्ठभूमि बहुत पुरानी है। कुकी भारतीय संविधान के तहत मणिपुर के बहुसंख्यक मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता दिए जाने की संभावना का विरोध कर रहे थे, जिससे उन्हें आदिवासी समुदायों के बराबर विशेषाधिकार मिल जाते। यह हिंसा भारत के उत्तर-पूर्व में मौजूद गहरे जातीय विभाजन का पता देती है। यह क्षेत्र विभिन्न प्रकार के जातीय समूहों का घर है, जिनमें से कई का एक दूसरे के साथ संघर्ष का लंबा इतिहास रहा है। ताज़ा वारदातें इन संघर्षों के मूल कारणों को दूर करने में भारत सरकार की विफलता को भी उजागर करती हैं।


फिलहाल भारत सरकार ने सेना को तैनात करके और प्रभावित क्षेत्रों में कर्फ्यू लगाकर हिंसा को रोकने का प्रयास किया है। शांति और व्यवस्था कायम होने तक राज्य में इंटरनेट पर पाबंदी बढ़ा दी गई है। हालाँकि, यह नहीं कहा जा सकता कि हिंसा को रोकने के लिए ये उपाय कितने कारगर होंगे। डर है है कि संघर्ष और न बढ़ जाए!


मणिपुर में और हिंसा को रोकने का एकमात्र तरीका संघर्ष के मूल कारणों को दूर करना है। इसका अर्थ भूमि अधिकारों के मुद्दे को हल करना है, जो मैतेई और कुकी समुदायों के बीच तनाव का एक प्रमुख स्रोत है। इसका अर्थ भेदभाव के मुद्दे को हल करना भी है, जो भारत के उत्तर-पूर्व में एक बड़ी समस्या है। भारत सरकार को अपने उत्तर-पूर्व में संघर्षों को हल करने के लिए अधिक सक्रिय दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। सरकार को क्षेत्र में आर्थिक विकास और सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों में निवेश करने की आवश्यकता है। इसे एक अधिक समावेशी राजनीतिक व्यवस्था बनाने की भी आवश्यकता है जो सभी जातीय समूहों को एक आवाज दे।


मणिपुर में हुई हिंसा भारत सरकार के लिए चेतावनी भी है। भविष्य में हिंसा को रोकने और इस क्षेत्र को अधिक शांतिपूर्ण कल प्रदान करने के लिए सरकार को अब कार्रवाई करने की आवश्यकता है। सयाने सुझा रहे हैं कि भारत सरकार को हिंसा के कारणों की जाँच करने और इसे फिर से होने से रोकने के तरीकों की सिफारिश करने के लिए एक सच्चाई और सुलह आयोग की स्थापना करनी चाहिए। हिंसा के पीड़ितों को वित्तीय सहायता प्रदान करनी चाहिए और उन्हें अपने जीवन के पुनर्निर्माण में मदद करनी चाहिए। मैतेई और कुकी समुदायों के बीच संवाद और समझ को बढ़ावा देना चाहिए। मणिपुर में सभी लोगों के रहने की स्थिति में सुधार के लिए काम करना चाहिए, चाहे उनकी जातीयता कुछ भी हो।


अंततः यही कि मणिपुर में घटित हिंसा एक राष्ट्रीय त्रासदी है, जिससे पूरा समाज व्यथित है। सही दृष्टिकोण अपनाकर ही, सरकार इस क्षेत्र के लिए अधिक शांतिपूर्ण भविष्य बनाने में मदद कर सकती है। 000


20 जून, 2023:

मणिपुर : एक्शन की दरकार


मणिपुर में 3 मई, 2023 से जारी दो समुदायों की आपसी हिंसा-प्रतिहिंसा ने जो विकृत स्वरूप धारण कर लिया है, वह गंभीर राष्ट्रीय चिंता का सबब है। अब तक इस हिंसा में 105 लोगों की जान जा चुकी है और 350 से अधिक लोग घायल हो गए हैं। कितने लोग बेघरबार हुए हैं और राज्य छोड़कर भाग गए/रहे हैं, उनकी तो गिनती ही नहीं! यही नहीं, हिंसक भीड़ अब मंत्रियों और सत्तारूढ़ दल के जनप्रतिनिधियों पर हमले कर रही है। 


मतलब साफ है कि वहाँ सरकार के प्रति गुस्सा और नाराज़गी विस्फोटक स्तर तक पहुँच चुकी है। उम्मीद की जा रही थी कि केंद्रीय गृह मंत्री के दौरे से कोई समाधान निकलेगा। पर ऐसा हुआ नहीं। स्थिति की गंभीरता का अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि गृह मंत्री की सख्त कदम उठाने की घोषणा के बावजूद, पुलिस से लूटे गए 4000 हथियारों में से अभी तक मात्र 1000 हथियार ही बरामद हो सके हैं। शांति समिति को भी दोनों ही पक्षों ने नकार दिया है, क्योंकि किसी को उस पर भरोसा नहीं है। यानी, राज्य सरकार के हाथों से स्थिति निकल गई लगती है! देखना होगा कि केंद्र सरकार इस समय प्रशासनिक और राजनैतिक स्तर पर सटीक और कठोर निर्णय ले पाती है या नहीं! सयाने बता रहे हैं कि राज्य में हिंसा को रोकने में केंद्र और राज्य दोनों की पुलिस नाकाम और नाकाफी साबित हो रही है। स्थानीय लोगों और सुरक्षाबलों के बीच हिंसक झड़पों और पुलिस के हथियार लूटने की खबरें शांतिप्रिय नागरिकों की नींद हराम किए हुए है। आगज़नी और गोलीबारी को देखते हुए तो यही लगता है कि राज्य में अराजकता का तांडव चल रहा है और व्यवस्था विवशतापूर्वक देखने के अलावा कुछ भी करने में अक्षम सी लग रही है। डर यह भी है कि बल प्रयोग से हालात कहीं और न बिगड़ जाएँ। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि मैतेई-कुकी हिंसा के बीच मुस्लिम मैतेई समुदाय के लोगों ने अपने घरों के बाहर खुद 'यह मुसलमान का एरिया है' लिखना शुरू कर दिया है, ताकि कुकी हमलावर उन्हें मैतेई हिंदू समझ कर हमला न कर दें! लोगो की सलामती उपद्रवियों के रहमो-करम पर निर्भर हो, तो कैसे यक़ीन किया जाए कि राज्य में कानून का शासन बचा हुआ है? यह बात अलग है कि राज्य में शांति बहाल करने के लिए करीब 40 हज़ार सुरक्षाकर्मी तैनात हैं!


याद रहे कि अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा देने की मैतेई समुदाय की माँग के विरोध में राज्य के पहाड़ी जिलों में आदिवासी एकजुटता मार्च के आयोजन से यह हिंसा शुरू हुई थी। मैतेई समुदाय मणिपुर की जनसंख्या का लगभग 53 प्रतिशत है और ज़्यादातर इम्फाल घाटी में आबाद  है तथा मुख्यतः हिंदू है। कुछ मैतेई मुस्लिम भी हैं। जनजातीय नगा और कुकी जनसंख्या का 40 प्रतिशत हिस्सा हैं और पहाड़ी जिलों में निवास करते हैं तथा मुख्यतः ईसाई हैं। असंतोष की जड़ यह है कि जनसंख्या में ज़्यादा होने के बावजूद मैतेई मणिपुर के 10 प्रतिशत भूभाग में रहते हैं, जबकि बाक़ी 90 प्रतिशत हिस्से पर नगा, कुकी और दूसरी जनजातियाँ रहती हैं जहाँ मैतेई को ज़मीन खरीदने का हक़ नहीं है। दूसरी बात यह कि मैतेई लोगों की जनसंख्या ज़्यादा होने के अलावा उनका राजनीति और प्रशासन में  दबदबा है। वे पढ़ने-लिखने के साथ अन्य मामलों में भी आगे हैं। मणिपुर के कुल 60 विधायकों में 40 विधायक मैतेई समुदाय से हैं। बाकी 20 नगा और कुकी जनजाति से आते हैं। अब तक हुए 12 मुख्यमंत्रियों में से 2 ही जनजाति से थे। यही वजह है कि मैतेई को अनुसूचित जनजाति का दर्जा न मिलने देने के लिए वर्तमान जनजाति समुदाय किसी भी हद तक जाने को तैयार है। कोढ़ में खाज यह कि शायद दोनों ही पक्षों को लगता है कि सरकार इस मसले को सुलझाने में रुचि नहीं ले रही, इसलिए वे खुद लड़कर फैसला करने पर उतारू हैं!


सयानों की मानें तो शायद अब समय आ गया है कि हर समुदाय का भरोसा खो चुकी राज्य सरकार को किनारे करके केंद्र कुछ 'निर्णायक' कदम उठाए। यह समय बयानबाज़ी और देखते रहने का नहीं, एक्शन का है! 000


28 जून, 2023:

मणिपुर : कब बुझेगी आग?


सरकार माने या न माने लेकिन मणिपुर से आ रही खबरों से तो यही लगता है कि अराजकता को सँभालने में व्यवस्था लगातार असफल हो रही है। शांति बहाल करने के मार्ग में सेना के सामने नित नई बाधाएँ आ रही हैं। ऐसा लगता है कि कोई किसी पर भरोसा करने को तैयार नहीं है!


हिंसाग्रस्त राज्य में सेना को अब नई तरह की परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। अब महिला कार्यकर्ताओं का समूह जानबूझ कर रास्ते रोक कर सेना के लिए परेशानी पैदा कर रहा है। इसे क्या कहा जाए कि 1500 महिलाओं की भीड़ के विरोध के बाद, सेना को गिरफ्तार किए गए 12 लोगों को मजबूरन छोड़ना पड़ा! सेना एड़ी-चोटी का जोर लगा कर भी तब तक शांति बहाल नहीं कर सकती, जब तक उसे स्थानीय नागरिकों का सहयोग न मिले। सेना लोगों को भरोसा दिलाने की कोशिश कर रही है कि 'आप हमारी मदद कीजिए, मणिपुर की मदद होगी'। लेकिन शायद मणिपुर की चिंता किसी को है ही नहीं -  नस्ली उन्माद अपने चरम पर जो है! राज्य के मुख्यमंत्री भारी अलोकप्रियता का सामना कर रहे हैं। पर शायद केंद्र के पास उनका कोई समर्थ विकल्प नहीं है! मणिपुर के मुख्यमंत्री नोंगथोम्बम बीरेन सिंह और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के बीच हालिया बैठक से जगी सामान्य स्थिति की वापसी की उम्मीद भी जल्दी सिरे चढ़ती नहीं लग रही।


याद रहे कि यह हिंसा कुकी-ज़ोमी समुदाय द्वारा मणिपुर के भीतर एक अलग प्रशासनिक इकाई की माँग के कारण भड़की थी। समुदाय का तर्क है कि राज्य सरकार में प्रभुत्व रखने वाले मैतेई बहुमत द्वारा उनके साथ भेदभाव किया जाता है। जारी हिंसा में सौ से ज़्यादा जानें जा चुकी हैं,  हजारों लोग विस्थापित हुए हैं और संपत्ति को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुँचा है। मुख्यमंत्री से बात करने के बाद केंद्रीय गृहमंत्री ने कहा ज़रूर कि सरकार ऐसा समाधान खोजने के लिए प्रतिबद्ध है जो मणिपुर में सभी समुदायों की शिकायतों का समाधान करेगा। लेकिन कुछ ठोस परिणाम अभी तक नहीं दिखना देश आम नागरिक की चिंता को बढ़ा रहा है। अभी तो बात हिंसा के लिए चीनी बाइक के इस्तेमाल की ही है, लेकिन अचरज नहीं होगा अगर चीन के हाथ की बात भी सामने आ जाए! इससे पहले कि बात पूरी तरह हाथ से निकल जाए, केंद्र को यह भरोसा जगाना होगा कि मणिपुर में सभी समुदायों के अधिकारों की रक्षा की जाएगी। सिंह और शाह के बीच मुलाकात एक सकारात्मक कदम थी, लेकिन यह कहना जल्दबाजी होगी कि इससे मणिपुर में स्थायी शांति आएगी या नहीं। हिंसा की जड़ें गहरी हैं और अंतर्निहित कारणों का पता लगाने में समय लगेगा। सरकार और नागरिक समाज को मिलकर ऐसा समाधान खोजना होगा जो सभी पक्षों को संतुष्ट कर सके।


सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मणिपुर में सभी समुदायों के अधिकार सुरक्षित रहें। इसमें जीवन का अधिकार, संपत्ति का अधिकार और आवाजाही की स्वतंत्रता का अधिकार शामिल है। साथ ही, हिंसा के अंतर्निहित कारणों का समाधान करना चाहिए। इसमें गरीबी, बेरोजगारी और शिक्षा की कमी जैसे मुद्दे शामिल हैं। सबसे पहली ज़रूरत अंतर-सामुदायिक संवाद और समझ को बढ़ावा देने की है। इससे विभिन्न समुदायों के बीच विश्वास और सहयोग बनाने में मदद मिलेगी। नागरिक समाज को शांति प्रक्रिया में अग्रणी भूमिका के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। इसमें ऑल मणिपुर स्टूडेंट्स यूनियन (एएमएसयू) और कुकी नेशनल ऑर्गनाइजेशन (केएनओ) जैसे संगठन शामिल हैं।


अंततः, मणिपुर में हिंसा उन चुनौतियों की याद दिलाती है जिनका भारत अपने पूर्वोत्तर क्षेत्र में सामना करता है। यह एक जटिल मुद्दा है, लेकिन इसका कोई आसान समाधान नहीं है। अतः केंद्र सरकार को सावधानी के साथ तुरंत कुछ कड़े निर्णय लेने पड़ेंगे, वरना कहीं देर न हो जाए! 000


5 जुलाई, 2023:

नस्ली नफ़रत बनाम शांति व्यवस्था


दो  महीने पहले मणिपुर में भड़की नस्ली नफ़रत की आग को बुझाने में राज्य और केंद्र सरकारों को अब तक सफलता न मिलने से  शांतिप्रिय देशवासियों की चिंता बढ़नी स्वाभाविक है। अफसोस कि कुकी और मैतेई समुदायों के इस अवांछित विवाद में अब तक भी गोली मार कर और सिर काट कर हत्या करने की खबरें आ रही हैं। इससे पता चलता है कि अराजकता के विस्फोट को सँभाल पाने में 'डबल इंजन' भी कारगर साबित नहीं हो पा रहा है। 


जैसे जैसे वक़्त बीत रहा है, सियासत के खिलाड़ी अपने लिए ज़मीन तलाशने और आरोप-प्रत्यारोप के चिर-परिचित दाँवपेंच आजमाने में व्यस्त होने लगे हैं।  इस सबको लोकतांत्रिक समाज के लिहाज से शोभन तो नहीं  कहा जा सकता न? यही वजह है कि बीच में सुप्रीम कोर्ट को आना पड़ रहा है। भले ही सरकार का कहना है कि राज्य में स्थिति धीरे धीरे सुधर रही है, तो भी  कुकी समुदाय की ओर से आर्मी प्रोटेक्शन की माँग की जा रही है। (कल यही माँग मैतेई समुदाय भी कर सकता है। क्योंकि आग तो दोनों तरफ बराबर सुलग रही है!) फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर सरकार से राज्य में नस्ली हिंसा को रोकने के लिए उठाए गए कदमों को लेकर एक हफ्ते के अंदर स्टेटस रिपोर्ट माँगी है। जवाबदेही केंद्र की भी है ही। 


कई बार ऐसा लगता है कि मणिपुर की यह हिंसा अलग अलग कबीलाई आदिवासी अस्मिताओं के लिए राज्य की अस्मिता को बलिदान करने की होड़ का परिणाम है। इस होड़ को आरक्षण की राजनीति ने उकसाया है, जिससे ये आदिवासी समुदाय एक दूसरे के प्रति आशंका और घृणा से भर कर खूँरेज़ी पर उतारू हैं। सवाल है, क्या ये समुदाय राज्य को ध्वस्त करके आदिम कबीलाई युग में लौटना चाहते हैं? कबीलों से आगे समाज का विकास सह-अस्तित्व की जिन धारणाओं के आधार पर हुआ था, क्या इस तरह उन्हें ध्वस्त होने दिया जाना चाहिए? क्या पारस्परिकता और विवेक के लिए अब उस समाज में जगह नहीं बची? शायद ऐसा नहीं है। बस उन कारणों को पहचानने और दूर करने की ज़रूरत है, जिन्होंने इन समुदायों के बीच अविश्वास का ज़हर पैदा किया है। 


इसमें संदेह नहीं कि आपसी दुर्भावना के इस ज़हर को समय पर न पहचान पाना राज्य की एन. बीरेन सिंह सरकार की भारी चूक है। पहाड़ी इलाकों में और घाटी में रहने वाले ये समुदाय कोई एक दिन में तो एक दूसरे के खून के प्यासे नहीं हुए होंगे न? उनके बीच के आपसी डर को दूर किए बिना वहाँ शांति की कोई फौजी कवायद शायद ही सफल हो सके! इसलिए वहाँ सामाजिक सद्भाव और समरसता की स्थापना के लिए ईमानदार कोशिशों की ज़रूरत है।   समस्या के धार्मिक और आर्थिक पहलुओं को भी आपसी समझ से सुलझाना होगा, वरना सियासी बयानबाज़ी तो हवाओं को और प्रदूषित ही करेगी।


इस बीच मणिपुर के मुख्यमंत्री एन.  बीरेन सिंह का यह बयान चिंता को और बढ़ाने वाला है कि 3 मई से राज्य में फैली इस हिंसा के पीछे 'विदेशी हाथ' हो सकता है! उन्होंने आशंका जताई है कि ये नस्ली झड़पें 'पूर्व नियोजित' प्रतीत होती हैं। हो सकता है कि यह आशंका निर्मूल हो और ज़िम्मेदारी से बचने का बहाना भर हो। लेकिन अगर ऐसा कोई 'हाथ' वाकई कहीं हो, तो उसे पहचानने और रोकने की ज़िम्मेदारी भी तो सरकार की ही है न? साथ ही, अगर उग्रवादियों की ओर से किसी खास समुदाय के विनाश की खुलेआम धमकियाँ दी जा रही हैं, तो सरकार उनका पर्दाफाश करने और मुँहतोड़ जवाब देने की ज़िम्मेदारी से नहीं बच सकती! 

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21 जुलाई, 2023:

मणिपुर हिंसा : इतना सन्नाटा क्यों?


2 महीने से ज़्यादा वक़्त (80 दिन) से नस्ली हिंसा की लपटों में जल रहे मणिपुर में 2 महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार की अब सामने आई घटना किसी भी समाज के लिए शर्मनाक और निंदनीय है। इस घटना के वीडियो से जिस चरम बर्बरता का पता चलता है, काश वह सच न हो! अन्यथा मणिपुर जैसे स्त्री-सत्तात्मक समाज में स्त्रियों के साथ भीड़ का ऐसे अशोभन आचरण को भयंकर सामाजिक-सांस्कृतिक पतन का ही द्योतक कहा जा सकता है। राजनीति की तो बात छोड़ ही दीजिए। वह तो गर्त में जा ही चुकी है। राजनीति ने ही तो दो मणिपुरी समुदायों को इस कदर नफ़रत से भर दिया है कि वे एक-दूसरे की स्त्रियों के शीलहरण को पराक्रम समझ रहे हैं। इस अराजकता के लिए कौन जिम्मेदार है, यह तो खैर जब तय होगा तब होगा। लेकिन इसमें जिस तरह स्त्रियों को शिकार बनाया गया है, वह हमारे समय की कल्पनातीत त्रासदी है। 


बहुत विलंब से सामने आए इस खौफनाक वीडियो से अगर राजनीतिक गलियारों में  हंगामा मचता है तो यह स्वाभाविक है।  सयाने बता रहे हैं कि  इस वीडियो  में भीड़ में घिरी दो महिलाएँ दिख रही हैं। उनके शरीर पर कपड़े नहीं हैं। भीड़ में शामिल पुरुष उनके साथ अमानवीय व्यवहार करते दिख रहे हैं। इस भीड़ ने इन दोनों महिलाओं को नग्न कर उनकी परेड कराई  थी। कथित रूप से उनका बलात्कार किया गया था। इंडिया टुडे नॉर्थ ईस्ट के हवाले से बताया गया है कि इन महिलाओं को धान के खेतों में ले जाकर उनके साथ सामूहिक दुष्कर्म  किया गया था। 


एक पीड़िता ने अपनी आपबीती भी सुनाई, बताते हैं! इस पीड़िता के लिए वे पल कितने आतंकपूर्ण रहे होंगे जब उस दिन मैतेई समुदाय के लोगों की भीड़  गाँव में घरों को जला रही थी और  कुकी समुदाय का यह परिवार  कच्ची सड़क से भाग निकला था! लेकिन भीड़ ने उन्हें पकड़ लिया। पुरुषों को मौत के घाट उतारने के बाद भीड़ ने महिलाओं का उत्पीड़न करना शुरू किया और उन्हें कपड़े उतारने पर मजबूर किया। 21 साल और 40 साल की इन महिलाओं को इस तरह अपना शिकार बना कर वह भीड़ शायद पहले दिन अपने समुदाय की एक महिला के साथ हुए दुष्कर्म का बदला ले रही थी! ख़ून का बदला ख़ून, और बलात्कार का बदला बलात्कार?


दो समुदायों के वर्चस्व की आपसी लड़ाई इतनी क्रूर और निर्मम हो जाए तो समझना चाहिए कि संस्कृति और सभ्यता से लेकर कानून और व्यवस्था तक सब कुछ सत्ता-संघर्ष की राजनीति की आग में स्वाहा हो चुका है! क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि  केंद्र और राज्य सरकारें, राष्ट्रीय महिला आयोग और राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग इस दुष्कांड का  संज्ञान लेंगे और पीड़िताओं को न्याय मिलेगा? आख़िर कोई तो पूछे, 'इतना सन्नाटा क्यों है भाई?'


यहाँ ठहर कर यह भी पूछा जाना चाहिए कि इस जघन्य कांड का वीडियो वायरल किया जाना, क्या उचित और नैतिक कहा जा सकता है? क्या पुलिस और मीडिया का ध्यान आकर्षित करने का कोई और तरीका नहीं हो सकता था? इस वीडियो को प्रचारित करने वालों ने क्या एक पल के लिए भी सोचा होगा कि इन निर्दोष महिलाओं की  झेली गई भयावह यातना ऐसे वीडियो को शेयर करने से कितनी बढ़ जाएगी, जिससे सोशल मीडिया पर पीड़ितों की पहचान जाहिर हो रही हो? क्या यह भी असंवेदनशीलता नहीं है? लेकिन शायद ऐसा करने वालों को संवेदना से ज़्यादा परवाह सनसनी से मिलने वाले सुख की रही हो! यह भी समाज की मानसिक विकृति ही तो है न!


अंततः साहिर लुधियानवी के शब्दों में इतना ही कि- 


ज़रा मुल्क के रहबरों को बुलाओ

ये कूचे, ये गलियाँ, ये मंज़र दिखाओ

जिन्हें नाज़ है हिंद पर उनको लाओ

जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं

कहाँ हैं, कहाँ हैं, कहाँ हैं 000

(जारी)