आलोचक नामवर सिंह की कविताई
पूर्णिमा शर्मा एवं ऋषभदेव शर्मा
नामवर सिंह (28 जुलाई, 1926 - 19 फरवरी, 2019) 'कविता के नए प्रतिमान' तय करनेवाले आलोचक होने से पूर्व एक सजग कवि और गीतकार थे। यह बात अलग है कि समीक्षा कर्म को प्राथमिकता देने के कारण उनका कवि कर्म अकाल कालग्रस्त हो गया।
नामवर सिंह को साहित्यिक संस्कार बचपन में स्वाधीनता सेनानी कामता प्रसाद ‘विद्यार्थी' के सत्संग में मिला । साहित्यिक मंडली के सान्निध्य में बालक नामवर ने कक्षा छह में 'पुनीत' उपनाम से काव्य प्रवेश किया। उस समय की एक कविता में उन्होंने इंग्लैंड पर हिटलर की विजय की 'वीरगाथा' कुछ इस तरह गाई-
'चढ्यौ बरतानिया पर हिटलर 'पुनीत' ऐसे
जैसे गढ़ लंक पर पवन सुत कूदि गौ ।'
काव्याभ्यास के क्रम में उन्होंने कवियों की संगत के प्रभाव से शृंगारी घनाक्षरी की भी रचना ख़ूब डूबकर की-
'आस दूइ मास प्रिय मिलन अवधि की है
उमगे उरोज रहै कंचुकी मसकि मसकि।'
आठवीं कक्षा में नवोदित कवि नामवर सिंह 'पुनीत' कृत खड़ी बोली का सवैया स्कूल की पत्रिका में छपा-
'तान के सोता रहा जल चादर
वायु-सा खींच जगा गया कोई।'
इसके बाद सन् 1941 ई. में उन्हें पढ़ाई के लिए बनारस आना पड़ा। जहाँ के वातावरण ने उनके कवि मन को नई संवेदनशीलता से भर दिया। स्वयं नामवर सिंह के शब्दों में:
'गाँव में तब का जो साहित्यिक वातावरण था, पुरानी कविता का था, मध्यकालीन, रीतिकालीन काव्य से छायावाद तक। बनारस आया तो समकालीन साहित्य, खासकर कविता की दुनिया से परिचय हुआ। कविताएँ ही लिखना चाहता था। आलोचना लिखने की सोची भी नहीं थी। जिस साहित्यिक परिवेश से आया था, उसमें खासकर त्रिलोचन और ज्यादातर कवि ही थे। कविता के क्षेत्र में बड़ी हलचल थी। नई कविता रूप धर चुकी थी, जो पुराने सभी छंद बंध तोड़कर आई थी। कहानी के क्षेत्र में एक ठहराव आया हुआ था। कविता की तुलना में कहानी की चर्चा नहीं के बराबर थी। अन्य साहित्यिक विधाओं की तुलना में वह दूसरे दर्जे की चीज़ समझी जा रही थी। आज भी कोई बेहतर स्थिति नहीं है कहानी की। साहित्यिक 'इस्टेबलिशमेंट' में कहानी, नाटक या उपन्यासों की तुलना में आज भी कविता की स्थिति बहुत ऊपर है।'
ऐसी परिस्थिति में उदयप्रताप कॉलेज की पत्रिका 'क्षत्रिय मित्र' और वहाँ की काव्य गोष्ठियों में धीरे-धीरे नामवर सिंह ने गीतकार के रूप में अपनी पहचान बनाई। कॉलेज पत्रिका के प्रथम पृष्ठ पर उनका गीत छपता था और गोष्ठियों में उनका मनोहारी स्वर मंत्रमुग्ध करता था। उनके काव्य संस्कार की पृष्ठभूमि के संबंध में यह उल्लेखनीय है कि आरंभ में उन्होंने ब्रज भाषा में कविताएँ लिखीं और अकबर भाट तथा अमलेश भाट जैसे मुस्लिम काव्य-प्रेमियों की प्रेरणा से शृंगारिक समस्यापूर्तियों पर भाव और अर्थ जाने बिना हाथ आजमाते रहे। बनारस आने पर त्रिलोचन शास्त्री के संपर्क में कवि ने महसूस किया कि आज की काव्य भाषा खड़ी बोली है। छंद का अभ्यास तो पहले से था ही, बनानस के गीतमय परिवेश ने काफ़ी गीत लिखवाए। मुक्त छंद की कविताएँ भी लिखीं। छपी भी कॉलेज पत्रिका में 'नभ में पतंग' के नाम से।
ग्यारहवीं में पढ़ते समय नामवर सिंह ने दो काव्यानुवादों से भी अपनी अद्भुत कवि प्रतिभा का परिचय दिया। उन्होंने 'कीट्स' की रचना "ला बेले डेम सेन्स मर्सी" (द ब्यूटीफुल लेडी विदाउट मर्सी) का 'निर्मम सुंदरी' नाम से काव्यानुसाद किया। साथ ही रवींद्रनाथ ठाकुर की 'उर्वशी' का भी अनुवाद किया।
नामवर सिंह की कविताओं का एक संकलन 1950 ई. में 'नीम के फूल' शीर्षक से बनारस के भारतीय सहकार प्रकाशन की प्रेस में छपने के लिए गया था। लेकिन कभी छपकर प्रेस के बाहर नहीं आया। कुछ कविताएँ 'नई कविता' में जरूर छपी थीं सवैयानुमा। प्रेस में ताला लग गया। काश ऐसा न हुआ होता तो हो सकता था कि नामवर जी का काव्य सृजन आगे भी चलता रहता। लेकिन ऐसा नहीं हो सका और नामवर सिंह अब न कवि रहे न 'पुनीत'। प्राध्यापकी और आलोचकी में ऐसे रमे कि सृजन की अपेक्षा मेहतरी को अपना धर्म बना लिया। सृजन के नाम पर जो बहुत सारा कूड़ा-कर्कट भी जमा होता चला जाता है, वह सृजन के पर्यावरण को प्रदूषित कर सकता है इसीलिए लगातार सफाई की ज़रूरत होती है। यह सफाई कर्म आलोचना का धर्म है। नामवर सिंह ने इसे अंगीकार किया और कवि कर्म को तिलांजलि दे दी। निश्चय ही यह फैसला बहुत कठिन रहा होगा, तभी तो वे ज़ोर देकर कहते दिखाई देते हैं कि उनकी आलोचना में भी उनका कवि सक्रिय रहता है; और निश्चय ही यही नामवर सिंह की आलोचना की सृजनात्मकता का राज़ है। 'कवि नामवर' के 'आलोचक नामवर' बनने का मलाल कई लोगों को रहा, जैसा कि शमशेर बहादुर सिंह ने कहा है:
"नामवर उस ज़माने में कविताएँ भी लिखते थे, जिन्हें सुनाते हुए वे कुछ सकुचाते थे। उन कविताओं की तरह उनका सकुचाना भी अच्छा लगता था। क्या वे पर्सनल हो गयी थीं इसलिए? मगर इसीलिए तो वे दो-तीन कविताएँ जो मैंने सुनी (और 'कवि' में) पढ़ी हैं, आज भी मुझे खींचती हैं। मगर एक की नॉस्टेल्जिक ध्वनि का पुनरावर्तन… डोलना, डोलना, डोलना... उसका भाव भीना वातावरण और दूसरे का वह चित्र जिसमें शाखों की एक फाँक के बीच से पूर्णचंद्र का दृश्य वर्णित है... आज भी जैसे मैं सामने हो देख रहा हूँ और अनुभव कर रहा हूँ। मुझे हमेशा उनकी थोड़ी-सी कविताएँ विशुद्ध इमेजिस्ट कविताएँ लगी हैं; और सफल इमेजिस्ट कविताएँ। धीरे-धीरे क्या, जल्द ही, नामवर के युवा कवि को उसके वयस्कतर होते मार्क्सिस्ट आलोचक ने दबा दिया।"
नामवर सिंह की कविताओं के मुख्य विषय प्रकृति, प्रेम और संघर्ष हैं। मधुमास से संबंधित एक गीत में कवि ने सौरभ से साँसों के सुलगने का उल्लेख किया है और साथ ही प्रकृति तथा मन के प्रसार को 'फैलाव' की समांतरता के माध्यम से व्यक्त किया है-
'मँह मँह बेल कचेलियाँ माधव मास
सुरभि सुरभि से सुलग रही हर सांस
सुनित सिवान, सँझाती, कुसुम उजास
ससि पांडुर क्षिति में धुलता आकास
फैलाए कर ज्यों वह तरु निष्पात
फैलाए बाँहें ज्यों सरिता, वात
फैल रहा यह मन जैसे अज्ञात
फैल रहे प्रिय,दिशि दिशि लघु-लघु हाथ।'
इसी क्रम में 'उनये उनये भादरे' में कवि ने बरखा की जल चादरें बिछाई/ उड़ाई हैं। यहाँ सूर्यास्त के बाद एकाकी मन का हाल कुएँ के कोहरे जैसा है। कवि का कल्पना विलास यहीं नहीं रुकता। गुलाबी धूप तो बहुत सुनी/ देखी है, पर कवि नामवर की धूप हरी है और यह हरियाई धूप इतनी शैतान है कि झुके आकाश में नशे-सी चढ़ती है। ग्राम्य प्रकृति और लोकभाषा का सोने में सुहागे जैसा यह संयोग सचमुच द्रष्टव्य है-
"उनये- उनये भादरे
बरखा की जल चादरें
फूल दीप से जले
कि झुरती पुरवैया सी याद रे
मन कूयें के कोहरे-सा रवि
डूबे के बाद रे।
भादरे।
उठे बगूले घास में
चढ़ता रंग बतास में
हरी हो रही धूप
नशे-सी चढ़ती झुके अकास में
तिरती हैं परछाइयाँ
सीने के भींगे चास में ।
घास में।'
प्रकृति के साथ प्रेम की संवेदना को जोड़ते हुए एक चतुष्पदी में ताल के पारदर्शी नील जल में सिहरते शैवाल के कंपन में कवि प्यासे ओठों और नेत्रों के मिलन के सुख की संभावना देखता है-
'पारदर्शी नील जल में सिहरते शैवाल
चाँद था, हम थे, हिला तुमने दिया भर ताल
क्या पता था, किंतु, प्यासे को मिलेंगे आज
दूर ओठों से, दृगों में संपुटित दो नाल।'
जबकि एक अन्य चतुष्पदी में पत्तियाँ चटखती हैं, सूखी नदी के पत्थर हँसते हैं, राही को गेही पुकारता है और वायु के छू जाने से वस्त्र भीग-से जाते हैं-
'विजन गिरिपथ पर चटखती पत्तियों का लास
हृदय में निर्जल नदी के पत्थरों का हास
'लौट आ, घर लौट' गेही की कहीं आवाज़
भींगते-से वस्त्र शायद छू गया वातास।'
नामवर सिंह की काव्य प्रतिभा की मौलिकता का आकलन करते हुए त्रिलोचन शास्त्री ने लिखा है कि:
'कई बार पढ़ने पर इन कविताओं में गुंफित भाव शब्दों और पदों के माध्यम से स्तर स्तर खुलते हैं। नामवर सिंह के प्रकृति-चित्र दृष्टि की सीमा तक विशद और फैले हुए हैं। प्रकृति उनकी कविताओं में आलंबन और उद्दीपन रूपों में आई है। सांध्यकाल में नौका विहार करते हुए गंगा में शत-शत कंपमान ज्योति लताएँ, हरित फौवारों सरीखे धान, प्रभातकाल के लघुवृत्त दीपालोक, नदी पार के पेड़ों पर लगे हुए मृगशिरा नक्षत्र, पारदर्शी नील जल में सिहरते हुए शैवाल, स्वर-ताल में पल्लव-सरीखे पंछियों का सुभग वंदनवार, सूचीभेद्य घन के द्वार, शाम के सादे बदरफट घाम, रात के भीतर उभरती रात घुसी परिचित अपरिचित जिसके तनों की फाँक के उस पार चमकता है शशि का नि:सीम कल्प खुला- खुला-सा ताल, सवेग चलते हुए एक टहनी से फुदककर दूसरी फिर तीसरी पर उड़ रहा चंचल चिड़ी-सा चाँद, सब में नामवर सिंह दूसरे कवियों से अलग दिखाई देते हैं। वर्ण, गंध, शब्द, रूप इन विषयों का सह-चित्रण करने में तथा जागरूक पाठक के हृदय में उसकी समानुभूति जगा देने की ओर वे अपनी कविताओं में विशेष ध्यान रखते हैं।'
यहाँ युग्म-जीवन के आकर्षण से प्रेरित उनका एक गीत देखा जा सकता है-
'पथ में साँझ
पहाड़ियाँ ऊपर
पीछे अँके झरने का पुकारना।
सीकरों की मेहराब की छाँव में
छूटे हुए कुछ का ठुनकारना ।
एक ही धार में डूबते
दो मनों का टकराकर
दीठ निवारना ।
याद है- चूड़ी के टूक से चाँद पै
तैरती आँख में आँख का ढारना?'
प्रकृति और प्रेम के अतिरिक्त जिन कविताओं में कवि नामवर के कवि-जीवन के विकास की संभावनाएँ अधिकतम थीं, उनका संबंध सामाजिक असंतोष और संघर्ष की व्यंजना से है। कवि के सामाजिक सरोकार की अभिव्यक्ति निम्नलिखित गीत में देखते ही बनती है जिसका आधार ठेठ भारतीय जीवन की देशी संवेदना में निहित है जहाँ अलाव के इर्द-गिर्द बैठे ग्रामीण जन देशकाल की समीक्षा करते हैं, तेज झोंके आने पर कौड़ा धधक कर और कुत्ता भौंक कर अपनी प्रतिक्रिया को व्यक्त करता है-
'धुँधवाता अलाव, चौतरफा मोढ़ा मचिया
पड़े, गुड़गुड़ाते हुक्का कुछ खींच मिरजई
बाबा बोले लख अकास, 'अब मटर भी गई'
देखा सिर पर नीम फाँक में से कचपचिया
डबडबा गई-सी कँपती पत्तियाँ टहनियाँ
लपटों की आभा में तरु की उभरी छाया।
पकते गुड़ की गरम गंध से सहसा आया
मीठा झोंका। आह, हो गयी कैसी दुनिया।
'सिकमी पर दस गुना'। सुना फिर था वही गला
सबने गुपचुप सुना, किसी ने कुछ नहीं कहा।
चूँ चूँ बस कोल्हू की, लोहे से नहीं सहा
गया। चिलम फिर चढ़ी, 'खैर, यह पूस तो चला…'
पूरा वाक्य न हुआ कि आया खरतर झोंका
धधक उठा कौड़ा, पुआल में कुत्ता भौंका।'
इसी प्रकार एक अन्य रचना में पुत्र के जन्म-दिवस के अवसर पर कुछ न दे पाने की व्यथा और आधुनिक जीवन की पैसावादी संस्कृति की पीड़ा को अभिव्यक्ति प्राप्त हुई है। यहाँ यह याद करना अप्रासंगिक न होगा कि नामवर सिंह मंचों पर और संगोष्ठियों में सहृदयों और विद्वानों का ही दिल जीतना नहीं जानते, बच्चों को भी सहज भाव से अपना परम प्रशंसक मित्र बना लेना जानते हैं। उन्होंने अपनी बेटी को 'डिंग-डिंग' संबोधन देते हुए जो पत्र लिखे हैं, वे उनके वत्सल हृदय के निर्मल दर्पण हैं। उसी वात्सल्य के करुणा से समन्वय पर उपजी त्रासदी की प्रस्तुति है नामवर सिंह की यह रचना-
'आज तुम्हारा जन्मदिवस, यूँ ही यह संध्या
भी चली गई, किंतु अभागा मैं न जा सका
समुख तुम्हारे और नदी-तट भटका भटका
कभी देखता हाथ कभी लेखनी अबंध्या।
पार हाट, शायद मेला, रंग रंग गुब्बारे
उठते लघु लघु हाय, सीटियाँ, शिशु सजे-धजे
मचल रहे....सोचूँ कि अचानक दूर छः बजे ।
पथ, इमली में भरा व्योम, आ बैठे तारे।
'सेवा - उपवन', पुष्पभिन्न गंधवह आ लगा
मस्तक कंकड़भरा किसी ने ज्यों हिला दिया।
हर सुंदर को देख सोचता क्यों मिला हिया।
यदि उससे वंचित रह जाता तुम्हीं-सा सगा
क्षमा मत करो वत्स, आ गया दिन ही ऐसा
आँख खोलती कलियाँ भी कहती हैं पैसा।'
नामवर सिंह ने सवैया को मुक्त छंद की तरह लिखते हुए उसके चरणों को साध कर गीति की जो सृष्टि की है उसे उनकी 'कोजागर' शीर्षक रचना में देखा जा सकता है। कोजागर आश्विन पूर्णिमा की चाँदनी रात में मनाया जानेवाला एक प्राचीन उत्सव है जिसमें लोग रातभर विविध क्रीड़ाओं और आमोद-प्रमोद में जागते रहते हैं। शरद पूर्णिमा के इस उत्सव के बारे में यह लोक-विश्वास है कि रात में लक्ष्मी देवी स्वर्ग से आकर लोगों से पूछती हैं कि 'कौन जाग रहा है' और जागनेवाले को धन का प्रसाद देती हैं। नामवर सिंह के 'कोजागर' में दृष्टि की डोर से खिंच कर उगते इंदु का आकाशदीप ऊपर चढ़ रहा है, गोरोचनी चाँदनी पिघल रही है, अर्थ-उदास लोचनों में नदी का उजास टूट रहा है, आकाश में मेघ का कपास उड़ रहा है और हिय को जाने क्या हो रहा है, मूढ़ जो ठहरा-
'कोजागर
दीठियों की डोर-खिंचा
(उगते से) इंदु का आकासदीप-दोल चढ़ा जा रहा।
गोरोचनी जोन्ह पिघली-सी
बालुका का तट, आह, चंद्रकांतमणि-सा पसीज-सा रहा।
साथ हम
नख से विलेखते अदेखते से
मौन अलगाव के प्रथम का बढ़ा आ रहा।
अरथ-उदास लोचनों में नदी का उजास
टूटता, अकास में, कपास-मेघ जा रहा।
नीर हटता-सा
क्लिन्न तीर फटता-सा गिरा
किन्तु मूढ़ हियरा, तुझे क्या हुआ जा रहा?'
और अंत में कवि 'काहिल' (विश्वनाथ त्रिपाठी) को संबोधित 'जाहिल कविराय' (नामवर सिंह) का यह छक्का भी पढ़ ही लीजिए। मगर ध्यान रहे कि 'सारे' के 'र' को 'ल' पढ़ना है-
'जब सारे विद्वान ही भये लखपति लाल
क्यों न प्रेम से बोलिए जय जय जय कलिकाल
जय जय जय कलिकाल, खुल गए भाग्य हमारे
रामराज्य हो गया चमकने लगे सितारे
कह 'जाहिल कविराय' सुनो हे 'काहिल' प्यारे
'र' 'ल'- अभेद को देख रहे सारे के सारे।'
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