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गुरुवार, 9 दिसंबर 2021

भूमिका: कागज़ का कुरुक्षेत्र


 

भूमिका 

डॉ. अरविंद कुमार सिंह मन, वचन और कर्म से पूर्णतः एक समर्पित पत्रकार हैं।  अपनी नई किताब "कागज़ का कुरुक्षेत्र" में वे एक ऐसे जागरूक और संवेदनशील नागरिक के रूप में उपस्थित दिखाई देते हैं, जिसे अपने समय और समाज के मन और मिजाज की गहरी समझ है। अपनी इस जागरूकता और संवेदनशीलता के चलते वे बहुत बार अपने आप को गहरे अंतर्द्वंद्व और वैचारिक मंथन में  फँसा हुआ पाते हैं। इस अंतर्द्वंद और वैचारिक मंथन से चिंतन की ऐसी रचनात्मक ऊर्जा उत्पन्न होती है, जो लेखकीय पीड़ा की प्रक्रिया से गुजरती है तो देखा, जिया और भोगा सारा सच छोटी-बड़ी गहरी और चुटीली  टिप्पणियों तथा सुगठित आलेखों के रूप में अभिव्यक्त होता है। अनेक स्थलों पर आत्म-संदर्भ इन टिप्पणियों और आलेखों को संस्मरण का भी संस्कार देता चलता है। इस पुस्तक की सामग्री में वस्तुनिष्ठ और आत्मनिष्ठ दोनों शैलियों का सुंदर समन्वय दीखता है। 


डॉ. अरविंद का यह लेखन उनके सामाजिक और साहित्यिक सरोकारों  का आईना है। इन सरोकारों में मनुष्यता की रक्षा का प्रण, पाखंड के विरोध की ज़िद, शाश्वत जीवन मूल्यों के प्रति विश्वास और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति गहरा समर्पण शामिल हैं।  ये सब मिलकर डॉ.अरविंद कुमार सिंह के लेखन को जनपक्षीयता का तेवर प्रदान करते हैं और वे जन संघर्ष में भागीदारी के लिए अपने शब्दों को धार देकर अंधे वक़्त के वक्ष पर रोशनी की तहरीर लिखने के लिए सन्नद्ध हो जाते हैं। यही कारण है कि उनके लेखन में शिकायत और असंतोष से लेकर सक्रियता और आंदोलन तक के विविध सोपान दिखाई पड़ते हैं, जो उन्हें लेखक और पत्रकार से आगे मनुष्यता के पक्ष में लड़ने वाला एक सक्रिय कार्यकर्ता सिद्ध करते हैं। 


'कागज़ का कुरुक्षेत्र' इक्कीसवीं शताब्दी के बदलावों का दस्तावेज भी है। आप देख सकते हैं कि यहाँ वे तमाम महत्वपूर्ण घटनाएँ-परिघटनाएँ दर्ज की गई हैं, जिन्होंने इस दौरान जनता की चित्तवृत्ति को विभिन्न स्तरों पर बदलने का काम किया है। लेखक ने चित्तवृत्तियों के इस बदलाव को बखूबी पहचाना है और उसके अनुरूप अपने लेखन को लगातार परिमार्जित और लोक-उन्मुख बनाया है।


डॉ. अरविंद कुमार सिंह की यह पुस्तक उनके समाज, प्रशासन, राजनीति, राष्ट्र, साहित्य, संस्कृति, लोक, प्रकृति, पर्यावरण आदि विविध क्षेत्रों से जुड़े अनुभवों से प्राप्त निष्कर्षों को सरल-सहज रूप में पाठक के समक्ष रखती है।  इस समूची अनुभव-यात्रा में लेखक का लोक से लगाव कहीं पल भर को भी नहीं छूटता।  वे जमीन से जुड़े हैं  और जुड़े रहते हैं- हवाओं में उड़ने के बावजूद! उनके लेखन में एक ओर उनकी चिंताएँ झलकती हैं, तो दूसरी ओर गुस्सा भी। एक ओर उल्लास फूटता है, तो दूसरी और श्रद्धा भी। एक ओर अस्तित्व का संघर्ष चमकता है, तो दूसरी ओर उत्तरजीविता का विश्वास भी। इसलिए इक्कीसवीं शताब्दी के आम भारतीय नागरिक के सपनों, संघर्षों और संभावनाओं को समझने के लिए यह कृति बड़े काम की सिद्ध हो सकती है।  


मुझे विश्वास है कि हिंदी जगत में इस कृति को भरपूर सम्मान मिलेगा और लेखक को भरपूर यश!

प्रेम बना रहे! 000

शुभकामनाओं सहित 

- ऋषभ देव शर्मा 

पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद।  आवास: #208 ए,  सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स, गणेश नगर, रामंतापुर,  हैदराबाद-500013 (तेलंगाना)। ईमेल: rishabhadeosharma@yahoo.com  मोबाइल: 8074742572.

भूमिका : बीए के बाद कलेक्टर


 

स्वप्न, साधना और सिद्धि

"बीए_के_बाद_कलेक्टर" (2021/कानपुर: माया) डॉ. रामनिवास साहू (1954) का नया उपन्यास है। इससे पहले वे कई उपन्यासों के अतिरिक्त बहुखंडी आत्मकथा लिखकर पर्याप्त ख्याति अर्जित कर चुके हैं। उनकी लेखकीय छटपटाहट नित्य उन्हें नया कुछ रचने को बेचैन करती रहती है। इसी बेचैनी ने उन्हें कथा-लेखन की एक नई शैली खोजने की प्रेरणा दी। इस नई शैली का संबंध सोशल मीडिया से है। खासकर फेसबुक से। फेसबुक पर प्रतिदिन स्टेटस के रूप में छोटा सा ब्लॉग लिखने की जो सुविधा उपलब्ध है, उसे निरंतरता प्रदान करते हुए डॉ. साहू ने यह नया प्रयोग किया है। कोरोना-काल में घर में बैठे-बैठे उन्होंने प्रतिदिन एक-दो पृष्ठ के रूप में अपने जीवनानुभव को आत्मकथात्मक आख्यान का रूप देना शुरू किया और इस तरह 68 बैठकों में यह उपन्यास रच डाला। 


डॉ. साहू केवल मनोरंजन के लिए नहीं लिखते हैं। वे सहित्य को व्यक्तित्व विकास और सामाजिक बदलाव का माध्यम मानते हैं। इसीलिए उनकी अन्य कृतियों की भाँति ही यह उपन्यास भी एक साधारण व्यक्ति के ऊँचे सपनों, निरंतर साधना और अंततः सिद्धि-प्राप्ति की गाथा है।


कहना न होगा कि यह साधारण व्यक्ति लेखक का अपना ग्रंथावतार है। इसीलिए लेखक की अपनी जन्मभूमि छत्तीसगढ़ इसकी मुख्य कथाभूमि है। खासकर कोरबा अंचल यहाँ अपने तमाम लोक-वैभव और विपन्न-वर्तमान के द्वंद्व सहित उपस्थित है। छत्तीसगढ़ के मन और जीवन की स्वानुभूत झाँकी प्रस्तुत करने के कारण यह उपन्यास और भी रोचक और पठनीय बन गया है। 


शुभकामनाओं सहित,

#ऋषभदेवशर्मा

हैदराबाद