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तेलुगु कहानियों के इस प्रतिनिधि संकलन की पांडुलिपि से गुजरना मेरे लिए तेलुगु भाषा-समाज की अपने अस्तित्व को रेखांकित करने की जद्दोजहद के साहित्यिक साक्ष्य से गुजरने जैसा था। तेलंगाना साहित्य अकादमी ने हिंदी अनुवाद के माध्यम से समकालीन तेलुगु कहानी के विविध तेवरों से व्यापकतर पाठक समुदाय को परिचित कराने का जो अभियान छेड़ा है, वह स्तुत्य है। इस सारस्वत अभियान में सम्मिलित सभी कथाकार और अनुवादक साधुवाद के पात्र हैं। हिंदी भाषा-समाज उनके इस सत्प्रयास से तेलुगु कहानी की स्वस्थ और समृद्ध परंपरा से तो अवगत होगा ही; साथ ही, इन कहानियों के अत्यंत व्यापक सामाजिक सरोकारों से जुड़कर भारतीय कथा साहित्य के विराट परिसर का भी अनुभव प्राप्त कर सकेगा।
यहाँ संकलित कहानियाँ विशेष रूप से समकालीन युगबोध से संपृक्त कहानियाँ हैं, तथापि ये उस पूरी परंपरा के ऋक्थ का भी बोध कराने में समर्थ हैं जो इनकी जड़ों में विद्यमान रहकर इनके अस्तित्व को अलग पहचान देता है। प्राचीन कथा-वाङ्मय से भिन्न आधुनिक बाना पहनते ही तेलुगु कहानी ने खुद को वैयक्तिक कूपमंडूकता से आगे निकालकर सामाजिक और सामूहिक सुख-दुख से जोड़ा। तभी से वह आदर्श और यथार्थ के समांतर रास्तों पर समान वेग से निरंतर विकसित हो रही है। आरंभिक सुधार और सामाजिक जागरण के युग से लेकर आज इक्कीसवीं शताब्दी के विविध उत्तर आधुनिक विमर्शों तक तेलुगु कहानी कभी भी अपनी ज़मीन और जनता से विमुख नहीं हुई। इस गहन सामाजिक संपृक्ति के बीज भले ही सारी भारतीय भाषाओं के कथा साहित्य के सदृश पुनर्जागरण आंदोलन और स्वतंत्रता संग्राम के रचनात्मक मौसम में अंकुरित हुए हों, लेकिन उनका पल्लवन तेलुगु प्रांत की उन विपरीत हवाओं के बीच हुआ है जिनका संबंध पहले तो हैदराबाद मुक्ति संग्राम से रहा और बाद में तेलंगाना की निजी पहचान की लंबी लड़ाई से रहा। यही कारण है कि इन कहानियों में आम आदमी के दुख-दर्द और तेलंगाना की धरती के रंगों को मुखर अभिव्यक्ति प्राप्त हुई है। यही वह केंद्रीय वस्तु है जो इन कहानियों को स्वतंत्र व्यक्तित्व प्रदान करती है।
ये कहानियाँ इस कारण भी अपने निजी अस्तित्व को मनवाने में समर्थ हैं कि इनमें तेलंगाना-वासियों का दैनिक जीवन-संघर्ष तो मुखर हुआ ही है, उनका सांस्कृतिक सौंदर्य भी अपने ठेठ देसीपन की खुशबू के साथ उभरकर सामने आया है। गाँव हो या शहर, मुक्ति के पहले का संदर्भ हो या बाद का – ये कहानियाँ तेलंगाना के अतीत और वर्तमान परिवेश को पूरी प्रामाणिकता के साथ पाठक के समक्ष तह-दर-तह खोलती चलती हैं। इन तहों से परिचित होने के क्रम में पाठक जीवन-स्थितियों और जीवन-मूल्यों के परिवर्तन का भी साक्षात्कार करता चलता है। वह जहाँ यह देख पाता है कि इस ज़मीन पर नवाबों, निजामों और रजाकारों ने ही नहीं, लोकतंत्र के नुमाइंदों ने भी तरह-तरह के अत्याचार ढाए हैं और इसकी संतानों को मौत के मुँह में धकेला है; वहीं उसे यह देखकर और भी धक्का लगता है कि पिछड़ेपन और अंधविश्वास की गुंजलक ने आज भी यहाँ के जन-जीवन को अपनी गिरफ्त में ले रखा है। गरीबी और बेकारी युवक-युवतियों को विद्रोही और नक्सली बनने के लिए मजबूर कर रही हैं। इस क्रूर यथार्थ के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक पहलुओं पर से भी ये कहानियाँ पर्दा उठाती हैं। इस यथार्थ का कारुणिक विद्रूप तब अपनी भयावहता के साथ सामने आता है जब हम भोले-भाले मनुष्यों को अमानुष आचरण करते देखते हैं। ऐसे अवसरों पर आर्थिक और सामाजिक विषमता तथा रूढ जातिप्रथा के दुष्परिणाम पाठक के रोंगटे खड़े कर देते हैं। कहानीकार प्रायः ऐसी स्थितियों को पाठक के सामने खोलकर तो रख देते हैं, लेकिन अपनी ओर से कोई बना-बनाया समाधान पेश नहीं करते। इससे पाठक विचलित तो होता ही है, अपने विवेक से समाधान खोजने की दिशा में भी प्रवृत्त होता है। कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि अपने समय की विवश मूल्यमूढ़ता और समाधानहीनता (प्रिकेरिटी) को पाठक के जेहन में उतारना भर लेखक को पर्याप्त लगता है क्योंकि उसे विश्वास है कि अगर पाठक ने अपने देश-काल के इन प्रश्नों को ठीक से समझ लिया तो साहित्यकार के अभीष्ट लोकमंगल के लिए भूमिका स्वतः तैयार हो जाएगी।
ऐसी सामयिक और सामाजिक चेतनासंपन्न कहानियों को पाकर हिंदी जगत गद्गद होगा और खुले मन से इनका स्वागत करेगा, इस विषय में मैं पूर्णतः आश्वस्त हूँ। इस महत्कार्य के लिए तेलंगाना साहित्य अकादमी का भूरिश: अभिनंदन!
- ऋषभदेव शर्मा
पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा
हैदराबाद-500004