डॉ. हरिश्चंद्र विद्यार्थी के काव्य 'उर्वरा' की भूमिका
डॉ. हरिश्चंद्र विद्यार्थी साहित्य सृजन, पत्रकारिता और समाजसेवा के हलकों में
हैदराबाद की चर्चित शख्सियत हैं. उन्होंने अपने जीवन काल की विविध अवस्थाओं में
अनेक कविताएँ रची हैं और कलम के माध्यम से मानवीय जीवन की चरितार्थता खोजने का
प्रयास किया है. उनकी कविताओं में जहाँ एक ओर निजी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति निहित
है, वहीं दूसरी ओर वे सामाजिक और राष्ट्रीय मुद्दों तथा समस्याओं पर भी अपनी
प्रतिक्रिया दर्ज करके अपने कवि की सार्थकता तलाशते हैं,
कवि विद्यार्थी अपने मन को पहचानने की पहल करते हैं तो सबसे पहले उनका सामना अस्तित्व के प्रश्नों से होता है. अस्तित्व को
नकारात्मक परिभाषाओं के आधार पर चीन्हने
की आध्यात्मिकता को अस्वीकार करके वे अहम् और अस्मिता की स्वीकृति चाहते हैं – भले
ही उसकी सीमाएँ हों. दूसरी और उन्हें जीवन और मृत्यु का चक्र भी भ्रामक प्रतीत
होता है. वे चाहते है कि प्रकृति माँ अब इस अस्तित्व के भार को बार-बार लपेटना छोड़
दे. उन्हें इसकी परवाह नहीं कि जीवन यात्रा भटकाव की दिशा में अग्रसर है या सहारा
मिलने की, अथवा अस्तित्व बहाव में है या किनारे पर; वे तो निष्काम कर्मयोगी की तरह
मौन के अर्थ स्वयं ढूँढने और अनंत गहराइयों को स्वयं नापने का संकल्प संजोए हुए
हैं और फल की इच्छा से निस्पृह रहकर आत्मनिवेदन करते दिखाई देते हैं – ‘’भटकाव में
हूँ या सहारे पर/ बहाव में हूँ या किनारे पर/ तुम ही जानो- / बस मेरा समर्पण
स्वीकार करो...’’
अपने इस कविता संकलन ‘’उर्वरा’’ में कवि हरिश्चंद्र विद्यार्थी आध्यात्मिक
प्रश्नों से भी टकराते दिखाई देते हैं. ‘उस’ रहस्यमय के विषय में कवि की सहज
जिज्ञासा द्रष्टव्य है – ‘’शून्य बादलों से मौन गुमसुम/ किस माया के परिवेश में
आच्छादित तुम!/ समय की दिशाओं सी बदलती करवटें/ तुम और तुम्हारा व्यक्तित्व, भीतरी
आवास/ का रूप बदलता प्रशिक्षण,’’ इस विरत की तुलना में मनुष्य का लघु अस्तित्व
घुटन और कुंठाओं से दबा-दबा मौन प्रतीक्षा की घड़ियाँ गिनता है. इस प्रक्रिया में
वह कई प्रकार के अनुभवों को आयत्त करता
है. यथा – माटी के काछे घड़े ज्यों फूटते हैं सभी / हम और आप सभी प्यार करने वाले
बिन जल के मीन से जलचर हैं. पाप-पुण्य का द्वंद्व भी कवि मन को घेरता है. कवि को
यह अहसास है कि प्यार को न समझने वाले विश्व की कसौटी पर सहज समर्पण को भी दोष माँ
लिया जाता है. तभी तो ‘’मेरा दोष इतना ही है/ और मैं अपराधी हुआ भी कि नहीं/ कि
तुम्हें अपना प्यार बांटता रहा.’’ दुनियावी कसौटियों की निरर्थकता इस प्रेमी को इस
आत्मस्वीकृति के लिए प्रेरित करती है ‘’कि और विकृत न हो जाएं/ मेरे विकार – मुझे डँसें / कि – सदा सदा के
लिए/ मैं स्वत्व को समर्पण कर दूं/ स्वाह-आहुति में/ मेरे शेष सपने न रहें/ कि
दूषित मन से किसी को प्यार करता रहूँ.’’ कवि की दृष्टि में प्यार गंगा के जल सा
स्वच्छ है और उसकी परिभाषा केवल आकाश की विराटता के रूप में की जा सकती है.
हमारे समय की बड़ी विडम्बना यह है कि
व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों ही सन्दर्भों में हम प्रेमहीन और प्रेमविरुद्ध समय में
जीने के लिए विवश हैं. आदमी के हाथ से आदमी का हाथ छोतता जा रहा है और हम असहाय से
खड़े देख रहे हैं. सिकंदर हों या अशोक, सभी की विस्तार लिप्सा आदमी और आदमीयत का खून
पीकर बलवती होती है. आज भी तरह तरह की भोगवादी और साम्राज्यवादी शक्तियां धर्म से
लेकर राज्य तक के नाम पर धरती को हिंसा रूपी दैत्य के जबड़ों में पीस रही हैं. काश
ये शक्तियां भी सत्ता की भंगुरता के सच को कवि की तरह देख पातीं – ‘’लाशों के ढेर
ढहाए/ अपनी पताका लहलहाए/ गीत विजय अगीत गाए/ पर उनका अहम् का स्तूप-दीप/ आज अब
मेरे नयनों के सम्मुख/ बुझा हुआ, धूल धूसरित विकृत.’’
ऐसी स्थिति में कवि का अपने प्रभु के समक्ष अपलक प्रार्थना में खड़े होना
स्वाभाविक है क्योंकि पीड़ित-कलुषित ब्रह्माण्ड की शांति का यही एक उपाय बचा है.
कवि को दुःख है कि विश्व कलह चक्र बन गया है, चर-अचर/ चेतन-अचेतन का भेद किए बिना
अणु-अणु में ज्वालामुखी फूट पड़े हैं; मन अमन हो गया है. सृष्टि की सहज शांति के
भंग होने के भय सत्य की परछाइयां तक आशंकित और आतंकित हैं. यही कारन है कि गाँव के
ताल-किनारे डूबते सूरज के समक्ष कवि समग्र पर्यावरण और मानवता की रक्षा के लिए
शांतिपाठ करते हैं – ‘’आओ! हृदय के कलुषित कंकाल को ढहा दो,/ और- / एक पवित्र
स्वच्छ दिशा की ओर / भुजाओं को फैला दो, शायद इसी में / शांति, अमरता, मोक्ष – सभी
कुछ हमें मिल जाए.’’
अंत में, इतना और कि इस संग्रह की बहुत सी कविताएँ कवि ने वयस के चौथेपन में
रची हैं. ऐसी कविताओं में वृद्धावस्था जनित खास तरह की उदासी में लिपटी हुई मृत्यु
की प्रतीक्षा की गहरी साँसों को महसूस किया जा सकता है. इसे आस्तिक कवि की सृजनशील
जिजीविषा की विजय ही कहा जाएगा कि यहाँ मृत्यु का भय नहीं बल्कि मुक्ति का आवाहन
है – ‘’प्राण! मौत के दायरों से घिरा घिरा/ हर दिशा को निहारता है;/ कि मुक्ति के
लिए / कोई मर्म मिल जाए!/.....ओ दिशाओ!/ मृत्युंजयी बनकर/ मृत्यु की मधुर कल्पनाओं
को संवारो/ लोकतृष्णा और मुमुक्षु / इन क्षणों पर तुषारपात/ अपराध-/ सर्वांग बंधन
मुक्त कर दो!’’
इतनी अर्थपूर्ण, मार्मिक और सामयिक कविताओं के लिए इनके रचनाकार डॉ. हरिश्चंद्र
विद्यार्थी का अभिनंदन करते हुए मैं इस कविता संग्रह की सफलता की कामना करता हूँ.
प्रेम बना रहे!
31 मई, 2015 - ऋषभदेव शर्मा
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