कुर्सी हाय हाय हाय
: जगदीश सुधाकर
अधूरी आज़ादी / जगदीश सुधाकर हिंदी लेखक मंच, मणिपुर |
जगदीश सुधाकर .... इकहरे
बदन का तेज चलने और तेज बोलने वाला सलीकेदार आदमी ... हल्के रंग की कमीज, गहरे रंग
की पैंट .... नोंकदार पतली मूँछ .... जड़ों तक रंगे हुए काले बाल ... आँखों में
शरारत भरी बालसुलभ मुस्कान ... चहरे पर आत्म-तृप्ति का भाव ...
धरती के किसी भी कोने
में अगर मुझे मित्र का बिंब बनाने को कहा जाए तो तय है कि मेरी अंतश्चेतना में बसी
हुई उसकी रूपरेखा भाई जगदीश सुधाकर [21 नवंबर 1946] की रूपरेखा होगी. जगदीश सुधाकर यानी हमारे अपने
सुधाकर जी ... अंतरंग मित्र भी, हितैषी भी, बड़े भाई सरीखे भी. हाँ, आयु में दस
वर्ष बड़े हैं मुझसे ... जीवनानुभव और सोच में और भी बड़े.
1973-74 में उनसे
परिचय हुआ होगा. लोग उन्हें हास्य-कवि के रूप में जानने लगे थे. खतौली में रेलवे
स्टेशन के पूर्व में ठीक रेलवे लाइन के किनारे का वह क्वार्टर याद आता है. शायद
ऊँचे से एक बरगद के नीचे था. पिछली खिड़की रेलवे लाइन की ओर खुलती थी. गणित का ट्यूशन
पढ़कर आते हुए मैं उसी खिड़की में से हाँक लगाता था ... ‘सुधाकर जी’ और उनकी बिटिया किलकती
थी – ‘डैडी .... छाकर जी वाले ... आए ...’ अर्धचंद्राकार परिक्रमा करके मुख्य
द्वार पर पहुँचता. सुधाकर जी मुझे भीतर ले जाते. सबसे कुशलक्षेम की बातें होतीं; और
फिर ... हम दोनों एक दूसरे को ताजा रचनाएँ सुनाते. सुनने-सुनाने का यह क्रम
सर्वत्र चलता - कभी घर में, कभी रेलवे स्टेशन पर, कभी चाय की दूकान पर, कभी रजवाहे
पर, कभी ट्यूबवेल पर. एक पंक्ति भी हो जाती, तो बेचैन रहते थे हम एक दूसरे को
सुनाने को. यह सिलसिला 1977 तक अनवरत चलता रहा. उसके बाद पहले उच्च शिक्षा और फिर
नौकरी के लिए मुझे लगातार खतौली से बाहर रहना पड़ा. तब का उखड़ा अभी तक उखड़ा हूँ. पूरा
हिंदुस्तान छान लिया, सुधाकर जी जैसा दूसरा दोस्त नहीं मिला. दोस्त मिले बेशक ...
वैसे ही पारदर्शी जैसे कि सुधाकर जी हैं ... पर एक लिहाज बना रहा ... मर्यादा बनी
रही सबके साथ .... लेकिन सुधाकर जी के साथ ... सुधाकर जी के साथ हूँ तो किसी बात
का लिहाज नहीं ... कोई पर्दा नहीं! वह दोस्ती ही क्या जिसमें पर्देदारी हो ... हम
दोनों एक दूसरे के समक्ष होते हैं तो भीतर से निर्वसन होने का सुख मिलता है ... कोई
आडंबर नहीं ... कोई औपचारिकता नहीं ... ऋषभ और सुधाकर जी के बीच. चाहे जैसा मौसम हो,
दिन हो या रात हो, खतौली जाने का अर्थ है, अपने घर जाने से पहले सुधाकर जी से मिलना
और खतौली से चलने का अर्थ है, आज भी ट्रेन पर या बस पर विदा कहने आए सुधाकर जी की
नम आँखें! उस पल कोई नहीं कह सकता कि यह व्यक्ति हास्य व्यंग्य का कवि है – अपनी
कविता की मीठी मार से अच्छे-अच्छों की आँखें नम करने वाला.
सुधाकर जी के लिए जीवन
कभी सुगम नहीं रहा. वे मात्र नौ महीने के बालक रहे होंगे, जब देश आजाद हुआ और भारत
विभाजन की त्रासदी के कारण उनके पूर्वज कलूरकोट (मियाँवाली, पाकिस्तान) से उजड़ कर
भारत आए. सुधाकर जी अपने आपको भाग्यशाली मानते हैं कि ‘अखंड भारत’ में जन्मे. बचपन
की स्मृतियाँ .... शरणार्थी परिवार ... अतीत की समृद्धि की कहानियाँ ... पंजाबी
कालोनी का प्रारंभिक सौहार्द... उजड़े हुओं के फिर से बसने का कठोर उद्यम .. माँ से
सुनी लोक कथाएँ ... जाने कितनी-कितनी बातें हैं सुधाकर जी के अवचेतन में जो उस समय
सक्रिय होती हैं जब वे लिख रहे होते हैं. सुधाकर जी चाहे हास्य लिखें, या व्यंग्य;
चाहे कविता लिखें या कहानी, चाहे चुटकला सुनाएँ या संस्मरण, चाहे गीत सुनाएँ, या
क्षणिका – आप पाएँगे कि वे अपने पाठक को/ श्रोता को गुदगुदाना और हँसाना जानते
हैं, लेकिन आपका अनुभव तब तक पूरा नहीं होगा जब तक आप उनके शब्दों के पीछे छिपी पीड़ा
को न पहचानें. मैंने आरंभ के दिनों से ही महसूस किया है कि चाहे सामाजिक जीवन हो,
चाहे राजनैतिक; चाहे साधारण जन हो, चाहे महापुरुष – सुधाकर जी जहाँ भी कथनी-करनी
का अंतर देखते हैं, बहुत पीड़ित सा अनुभव करते हैं. असुविधाओं से भरे जीवन को ईमानदार
बने रहकर जीने वाले किसी भी जुझारू व्यक्ति को अपने चारों ओर अवसरवादियों की भीड़ देखकर
पीड़ा और ग्लानि होनी भी चाहिए. सुधाकर जी की पीड़ा का एक और कारण है – गहरे प्रतीत होने
वाले मानवीय संबंधों के उथलेपन का अहसास. इसके लिए वे जिम्मेदार मानते हैं पारिवारिकता
के ह्रास को. सामाजिक और राजनैतिक जीवन की विसंगतियाँ और विडंबनाएँ उन्हें सतत बेचैन
रखती हैं. इस बेचैनी में वे तेज चलते हैं, तेज बोलते हैं, तेज रच्रते हैं. एक ऐसा
भावुक और संवेदनशील प्राणी, जिसे छोटी से छोटी असंगत बात गहरे चुभती है – व्यंग्यकार
के अलावा यदि और कुछ हो सकता है तो जनकवि हो सकता है. और मेरे विचार में जगदीश सुधाकर
की तमाम रचनाशीलता के ये दो आयाम हैं. वे सचेतन और संवेदनशील हैं इसलिए उनकी प्रतिक्रियाएँ
व्यंग्यात्मक होती हैं. वे मिटटी से जुड़े हैं, लोक संस्कार में रचे-पचे हैं, जनता
से कटे हुए नहीं हैं, सामाजिक और राजनैतिक गतिविधियों में सक्रिय रूप से भागीदारी निभाते
हैं, जनता की नब्ज को पहचानते हैं, इसलिए जनकवि हैं.
कितने कवि होंगे
ऐसे, जो साइकिल पर गाँव-गाँव घूमते हों. हमारे सुधाकर जी हैं. उनके साथ सड़क पर
चलना मुश्किल हो जाता है. हम दोनों इसीलिए इन दिनों जब मिलते हैं तो किसी निर्जन
स्थान की खोज करते हैं, अपने सुख-दुःख कहने-सुनने के लिए. पर मैं देख रहा हूँ कि
जनकवि के लिए कोई स्थान निर्जन नहीं. उनकी बैठक सबके लिए खुली है. उन्हें रास्ते
में कोई भी टोक सकता है. उन्हें खोजते-खोजते उनके प्रशंसक प्लेटफार्म की बेंच पर भी पहुँच सकते हैं और झारखंडेश्वर के मंदिर में
भी, नहर किनारे भी और ग्रामीण अंचल में भी. उनकी सबको जरूरत है – डिग्री कॉलेज के
प्राचार्य और प्राध्यापक हों, मेडिकल स्टोर का मालिक हो या मूँगफली वाला, मंत्री
हो या पार्षद, सूट-बूट वाला हो या लट्ठधारी, सेठ हो या चौधरी, मोटर साइकिल पर हो
या भैंसागाड़ी पर – कोई भी उन्हें कहीं भी आवाज दे सकता है. मैंने देखा है इन सबको उन्हें
समय-असमय, स्थान-अस्थान आवाज लगाते हुए और ताजी कविता का आग्रह करते हुए. लोग कहते
हैं कि कविता मर गई है, कविता की वाचिक परंपरा समाप्त हो गई है, कविता ने लोगों को
प्रभावित करना छोड़ दिया है, कविता अप्रासंगिक हो गई है. बकवास करते हैं सब. आइए तो
ज़रा एक दिन के लिए सुधाकर जी के साथ और देखिए कि लोग किस तरह आज भी चौपाल पर नहीं,
भीड़ भरे बाजार के नुक्कड़ पर उनका रास्ता रोक लेते हैं और सुधाकर जी किस तरह अपनी
कविता से उन्हें आंदोलित करते हैं. क्यों सुनते हैं लोग सुधाकर जी की कविता को? क्योंकि
सुधाकर जी वह कहते हैं जो लोगों के मन में खदबदा रहा होता है और उस तरह कहते हैं
जिस तरह लोग उसे कहना चाहकर भी कह नहीं पाते. सुधाकर जी चुटकी भी लेते हैं और
फटकार भी लगाते हैं – इसलिए वे अपने लोगों के कवि हैं – जनता के कवि. बाबा
नागार्जुन कुछ दिनों के लिए खतौली में डॉ. देवराज के यहाँ रहे, तो खतौली का यह फक्कड़
कवि उन्हें बहुत भाया था. सुधाकर जी अपना तकिया कलाम पुकारते – ‘आदरणीय जी’ ....
बाबा नहले पर दहला जड़ते – ‘फादरणीय जी’.
एक बार मैंने सुधाकर
जी से पूछा कि भई, आपके गीतों में उल्लू, गिद्ध, चमगादड़, बिल्ली, लोमड़ी, गीदड़
वगैरह पशु-पक्षियों के नाम गाली की तरह भरे रहते हैं – आखिर क्यों? वे बोले – “मंत्री जी (हम लोगों ने एक संस्था बनाई थी, मैं उसका संस्थापक मंत्री था,
तब से सुधाकर जी के लिए मैं ‘मंत्री जी’ हूँ और डॉ. देवराज ‘अध्यक्ष जी’!), ऐसा है
कि ये शब्द गालियाँ नहीं हैं, ये तो हमारे प्रतीक हैं, लोक मिथक हैं, इनके साथ इनके
स्वभाव जुड़े हैं, अनेक कथाएँ जुड़ी हैं, ये हमारे अनुभव में शामिल हैं, लोक-भाषा
में शामिल हैं इसलिए भले ही आप मुझे असाहित्यिक मान लें, मैं अपनी भाषा को बदल
नहीं सकता!” मैंने कुरेदा – “तो काव्यभाषा के लिए कोई सीमा नहीं, शालीनता नहीं...?” वे तैश में आ गए – “सीमा और शालीनता
पहले उन्हें सिखाइए जिन्होंने इस देश का बेड़ा गरक करके रख दिया है ... और आप और
आपके ये आलोचक क्या जानते हैं काव्यभाषा के बारे में ... सब चोंचलेबाजी है ... जनता
से बात करें तो पता चले ... किताबें लिखना और बात है ....!” मुझे मजा आ रहा था – “आपकी राय में कविता
की भाषा कैसी होनी चाहिए?” अब वे प्रतिपादन
की मुद्रा में आ गए शास्त्रार्थ छोड़कर – “देखिए
मंत्री जी, मेरी राय में तो कविता की भाषा वही है जो हमारे व्यवहार की भाषा है.
शब्द ऐसे हों जो हमारे साथ रास्ते पर चलते हों, गली मोहल्ले में टहलते हों, चारपाई
पर उठाते बैठते हों!” “बस, बस काफी हो
गया, अब आप इन शब्दों को चारपाई के साथ सोने के कमरे में मत ले जाइएगा, वरना .....” मैंने टोका तो गंभीरता जाती रही, उनकी आँखों में शरारत तैर आई – ‘वरना?’
मैं अचकचा गया, बोला, “वरना क्या? कल आप कहेंगे
कि मेरे खर्राटों को भी कविता मानो.” जोर से ठहाका लगाया
हम दोनों ने और भीतर तक धुल गए. वैसे सच यह है कि सुधाकर जी के खर्राटों में भी
कविता होती है – कई बार हम लोगों को इनके खर्राटे सुनने का अवसर मिला है – तालबद्ध
खर्राटे. हम लोगों (डॉ. देवराज और ऋषभ) की बेसुरी बातों से कभी उनकी ताल टूट जाती
है और वे झटके से उठ बैठते हैं – “ओ भाई! क्या हुआ
आदरणीय जी?” उनके इस चौंकने से हम भी चौंक जाते हैं
और हमारी हँसी रोके नहीं रुकती.
भारतीय लोकतंत्र की
विसंगतियाँ और विडंबनाएँ जगदीश सुधाकर को उद्वेलित करने वाला सर्वोपरी तत्व है.
उन्होंने राजनीति को अपनी कविता का ही विषय नहीं बनाया है, प्रत्येक राजनैतिक दिग्भ्रम
के समय चौपालों, नुक्कड़ों, गोष्ठियों और सम्मेलनों में जनता को सीधे संबोधित किया
है. राजनीति ने जब समाजवादी मुखौटा धारण किया और गरीबी हटाने का लोकलुभावन नारा
दिया तो जनता के इस कवि ने नेताओं की कथनी और करनी के अंतर को लक्षित करते हुए पूँजीवाद
और समाजवाद के बीच सम्राट और युवराज का संबंध बताया और साथ ही स्पष्ट कर दिया कि पूँजीपतियों
द्वारा पोषित यह तथाकथित समाजवाद श्रमिकों का हितैषी कभी नहीं हो सकता – अपनी बात
को उन्होंने संक्षिप्त से कथावृत्त में बाँधते हुए कहा – “एक समाजवादी नेता जी, पूँजीपति के यहाँ लंच कर/ श्रमिक श्रोतागण के मध्य
आए अकड़कर मंच पर/ कहने लगे – बा अदब, बा मुलाहिजा होशियार/ युवराज समाजवाद तशरीफ़
ला रहे हैं/ क्योंकि सम्राट पूँजीवाद कंपलसरी रिटायरमेंट को जा रहे हैं.” कहने की आवश्यकता नहीं कि यहाँ अर्थगत विरोधी समानांतरता, उपयुक्त परिवेश
का प्रभाव उत्पन्न करने के लिए तदनुरूप शब्दावली का चयन और कोड परिवर्तन कविता को संप्रेषणीय
बना रहे हैं. इतना ही नहीं, आगे जब समाजवादी नेता गरीबी के कभी न हटने के शाश्वत सत्य
का उद्घाटन करते हैं तो विपथन पाठक को चमत्कृत करता हैं और अगले ही पल जब गरीबों को
हटाने और अगले जन्म में धनवान के यहाँ जन्म लेने का परमिट निःशुल्क इशु कराने का
आश्वासन दिया जाता है तो करुणा और व्यंग्य एक साथ उपजते हैं और व्यवस्था के कलंकित
चेहरे को एक झटके में नंगा कर देते हैं. बात ऊपर से सपाट सी लगती है पर गहरे उतरने
पर उसके अर्थ गांभीर्य का भी पता चलता है. व्यवस्था के साथ-साथ व्यंग्य की यह मार उस
भारतीय मानसिकता पर भी है जो पुनर्जन्म के भरोसे इस जन्म में तमाम अत्याचार झेल
जाती है. व्यंग्य की यह मार चालाक नेता के साथ-साथ भारतीय मतदाता के उस भोलेपन पर
भी है जिसके कारण हर चुनाव में वह नए-नए आश्वासनों के झाँसे में आ जाता है. चुनाव
किस तरह एक महँगी लोकतांत्रिक अय्याशी साबित हुए हैं – यह किसी से छिपा नहीं है. सत्ता
परिवर्तन से गरीब को भला क्या मिलता है! सुधाकर जी ने बहुत सटीक उत्तर दिया है – “फर्क सिर्फ इतना होता, गरीब दास गरीब चंद हो जाते.” दास हो या चंद, गरीब तो गरीब हैं, सत्ता हो या विपक्ष दोनों ही उन्हें मूर्ख
बनाते हैं. ऐसी स्थिति में कवि अपनी जनपक्षधरता की खुल्लमखुल्ला घोषणा करता है – “मेरी राय में दोनों ही एक थैली के चट्टे-बट्टे हैं/ और इनकी राय में हम
उल्लू के पट्ठे हैं.” इतने पर भी आप अगर
समझने को तैयार न हों तो सुधाकर जी इस नेता नामधारी जीव के अवसरवादी चरित्र को
खोलकर आपके सामने धर देंगे. आप चाहें तो लोकतांत्रिक सूक्ति की तरह उनकी इस कविता
का इस्तेमाल कर सकते हैं – “थूक कर चाटते हैं/ उल्लू
सबका गाँठते हैं/ चुनावों से पहले गधे को बाप/ चुनावों के बाद बाप को गधा/ कहते
हैं सदा.” उनकी कविताओं में यह सूक्तिपरकता राजनैतिक
जीवन की गहरी समझ और भाषा की मुहावरेदानी पर पक्की पकड़ से आई है.
एक खास तरह की
तल्खी और कड़वाहट जगदीश सुधाकर की कविता में व्याप्त देखी जा सकती है. हास्य-व्यंग्य
की चाशनी अपनी जगह है, लेकिन उसके साथ जो कसैलापन मुँह में घुलता जाता है उसका स्वाद
देर तक पाठक/ श्रोता की स्मृति को कचोटता है. जब वे बेरोजगार ग्रेजुएट की इस
विडंबना पर गुदगुदा रहे होते हैं कि “मुझे नौकरी भले ही
न मिले. पर कानूनन मिलती है सेकेंड क्लास की जेल”
तो सामाजिक व्यवस्था और न्याय व्यवस्था की बखिया भी उधेड़ रहे होते हैं. व्यंग्य उत्पन्न
करने के लिए उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति में अनेक द्वंद्वों का सटीक और मारक प्रयोग
किया है. एक स्थान पर उन्होंने ‘राम’ और ‘रोम’ का एक नवीन सांस्कृतिक द्वंद्व
सिरजा है. हैदराबाद की एक साहित्यिक संस्था ने उनके इस द्वंद्व को इतना आकर्षक पाया
कि 2001 की होली पर सोनिया गांधी को यही उपाधि दी, जिसका ‘डेक्कन क्रानिकल’ जैसे
अंग्रेजी अखबार ने भी उल्लेख किया. उस कविता में पहला द्वंद्व तो ‘सोनिया’ और ‘संगम’
का है, दूसरा उनके ‘अर्द्ध स्नान’ और ‘डुबकी’ का है, तीसरा ‘मुख’ और ‘बगल’ का है, चौथा
‘राम’ और ‘रोम’ का है (‘छुरी’ और ‘रोम’ का समानार्थी युग्म यहाँ नेपथ्य में
विराजमान है), एक और द्वंद्व ‘दूध’ और ‘पानी’ का है, ‘वैतरणी’ और ‘संगम’ का पाँचवा
द्वंद्व है (पुनः युग्म संबंध में ‘चुनाव वैतरणी’ और ‘रोम नाम सत्त’ का प्रयोग गहन
अर्थ से युक्त है) तथा छठा विरोधाभासी द्वंद्व ‘रामनाम रटने’ और ‘खूब नारा लगाने’ के
बीच है. वह छोटी सी (मात्र एक बंध की) कविता इस प्रकार है – “श्रद्धेय सोनिया जी संगम में डुबकी लगा आई हो/ धन्यवाद, बधाई हो, बधाई
हो,/ मुख में राम, बगल में रोम/ राम-रोम शब्द विलोम/ सावधान, सकल जग जानी/ दूध का
दूध पानी का पानी/ चुनावी वैतरणी तरने हेतु/ रोम-राम में संगम सेतु/ ‘रोम नाम
सत्त, राम नाम रट’/ वहाँ नारा खूब लगाई हो/ श्रद्धेय सोनिया जी संगम में डुबकी लगा
आई हो.”
जगदीश सुधाकर जनता
के कवि इसलिए हैं कि वे जनता की बात कहते हैं और बिना लाग लपेट के कहते हैं. उनकी
पीड़ा वास्तव में भारतीय जन गण की पीड़ा है. उन्हें यह देख कर कष्ट होता है कि त्याग
और बलिदान जैसे मूल्यों की अनदेखी करने वाले नेतागण कुर्सी के पीछे इस कदर पागल
हैं कि देश कुर्सी के बोझ के नीचे दबा जा रहा है, सिद्धांत विहीन गठजोड़ किए जा रहे
हैं. नेता वेशधारी खूँखार जानवरों के जबड़ों में दबी कराहती मानवता को देखकर कवि का
हृदय चीत्कार कर उठता है कि – “कुर्सी माँ के आगे
हो गई/ भारत माँ अब छोटी/ कुर्सी भक्त नोंच रहे हैं/ भारत माँ की बोटी/ इन हडकाए कुत्तों
को अब कौन समझाए.” कुर्सी के लिए लड़ने
वालों को सुधाकर जी ने लकड़बग्घे और भेड़िये कहा तथा किसी समय उन्हें लड़वाकर अपना
स्वार्थ सिद्ध करने वाली तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की नीति को चालाक
लोमड़ी के सदृश बताया. मोरारजी आए तो कवि ने उन्हें जल्दी ही पहचान लिया – “मोरारजी इंदिरा जी के ताऊ हैं/ वे केतु थीं, ये राहु हैं.” चौधरी चरण सिंह के लिए उन्होंने ‘धरतीपुत्र आयोग सिंह’ नामकरण किया तो कवि
सम्मेलनों में जनता उछल पड़ी. इसी प्रकार ‘हम मंडल मुंशी विश्वनाथ हैं’, ‘डियरो के डीयर, माई डीयर, परमदलालनीय विन चड्ढ़ा,’ ‘माई
डीयर ममता बनर्जी,’ ‘माई डीयर मियाँ मुशर्रफ’ से लेकर ‘अटल बम-बटल बम’ तक उनकी ऐसी
अनेक कविताएँ हैं जिनमें उनका संबोधन–शब्दों का लाक्षणिक और व्यंजनागर्भित प्रयोग जन
समुदाय को तो संवेदना-बिंदु पर छूता ही है, व्यंग्य रचना की तकनीक का अध्ययन करने
वालों को भी चिंतन के लिए विवश करता है.
सुधाकर जी व्यंग्य के
लिए व्यंग्य लिखते हों, ऐसा नहीं. उनका मुख्य सरोकार भारत–राष्ट्र की जनता के साथ
जुड़ा हुआ है वे वक्त गुजारने ले लिए या मनोरंजन के लिए नहीं लिखते हैं. राजनीति का
अपराधीकरण और अपराधियों का राजनैतिक महिमा मंडन सुधाकर जी को कभी बर्दाश्त नहीं
होता. राजनीति और अपराध के इस अपवित्र गठजोड़ का एक प्रतीक है वीरप्पन. वीरप्पन के
माध्यम से समकालीन व्यवस्था की असफलता, त्रासदी और विडंबना का चित्र खींचते हुए कवि
सबसे पहले यही सवाल उठाता है कि “वतन का क्या होगा
अंजाम/ वतन तो वीरप्पन के नाम.” इस कविता में
सुधाकर जी की काव्य-कला में निहित तार्किक अन्विति को भी देखा जा सकता है. वे कभी
भी केवल भावनाओं को नहीं उकसाते, वरन तर्कपूर्वक पाठक को समझाकर अपने साथ ले चलना
चाहते हैं. अपराध और आतंक के आगे घुटने टेकने की राजनैतिक-संस्कृति के जेनेसिस की
खोज करते हुए वे पाते हैं कि “इस झगड़े की जड़ सारी/
राबिया नामक राजकुमारी/ राजकुमारी की करनी/ पड़ी राजकुमार को भरनी/ मुफ्त में मारे
गए गुलफाम/ वतन का क्या होगा अंजाम?”
स्पष्ट है कि कन्नड
फिल्म अभिनेता राजकुमार को बंधक बनाने जैसी त्रासदी का सूत्रपात तत्कालीन गृहमंत्री
की पुत्री राबिया को बंधक बनाए जाने के अवसर पर सरकार के आत्मसमर्पण जैसी घटनाओं
के द्वारा बहुत पहले हो चुका था.
सुधाकर जी की
काव्यभाषा में प्रसंग और परिवेश के अनुरूप शब्द चयन, विपथन, द्वंद्व रचना, युग्म रचना,
विडंबना और विसंगति के वाचक शब्दों का प्रयोग, सूक्तिपरकता, तार्किक अन्विति जैसी तकनीकों
के साथ ही कोड मिश्रण से निर्मित विचित्र परंतु सर्जनात्मक अभिव्यक्तियों और मुहावरों
ने मिलकर उनके व्यंग्य को अधिक संप्रेषणीय और मारक बनाया है. भूचाली कक्का, आस्तीनी
अजगर जहरी, तुर्की टोपी हरा रूमाल, तुष्टीकरणी रोमांस, कलमुँही कुर्सी, ममता मइया शक्तिशाली,
शेरे हिंद बाघिन बंगाली, नोनवेज नाश्ता, ओ बिन ब्याही लाँडी झुटिया, बुड्ढे सांड, डेली
नौटंकी, सुफेद जुमेरात की वेट जैसी अनेक सृजनात्मक व्यंग्यपरक अभिव्यक्तियाँ उनकी
कविताओं में भरी पड़ी हैं. मुहावरों और लोकोक्तियों के व्यंग्यात्मक उपयोग में तो
उन्हें कमाल हासिल है. देखें – “सीता अयोध्यापुरी
के रंगमहल में टांग पर टांग रखकर सोती/ रास्ते के काँटे भारत को कुत्ते की मौत/ पाँच
वर्ष तक खींचता वर्तमान टांग/ गधे के सिर से सींग की भांति गई खुदा की बंदी है/
लोकतंत्र की डुबी लुटिया/ या बेशर्मी तेरा सहारा/ तेरी उतर गई लोई, तेरा क्या
करेगा कोई/ हम कर देंगे तेरा बेड़ा गर्क/ प्रेम न उपजे बाड़ी में, प्रेम जरूरी यारी
में/ जैसी नीयत वैसी बरकत/ उल्टा चोर कोतवाल को डाँटता/ जब मुच्छड़ मूँछ मरोड़े,
सरकार के छक्के छोड़े/ पलीद करो ना मेरी मिट्टी/ बल्लिये बोल हुक हुक/ दाल में काला
ही काला/ बोल मेरी मछली कितना पानी/ मछली बोली हर-हर गंगे/ हुए हमाम में सब नंगे/
नंगे नमकहरामी कंजर/ दमादम मस्त कलंदर.”
ऐसा नहीं कि सुधाकर
जी केवल विकृतियों का ही चित्रण करते हों, बल्कि वे सौंदर्य के अन्वेषक, पारखी,
प्रशंसक और पुजारी हैं. असुंदर का चित्रण करने के पीछे भी वे यही कारण बताते हैं
कि जो कुरूप और विरूप है, उससे मुक्ति पाए बिना सौंदर्य के दर्शन नहीं किए जा
सकते. विकृति का चितेरा यह कवि प्रकृति का प्रेमी है. ग्रामीण अंचल के सहज-सुंदर
जीवन और प्रकृति के संपर्क से ही उन्हें वह ऊर्जा मिलती है जिसे अपने प्राणों में
भरकर वे अशिव, असुंदर और असत्य से संघर्ष करते हैं – वस्तुजगत में भी और काव्यजगत
में भी. उन्होंने कुछ प्रेमगीत भी रचे हैं, जिन्हें अंतरंग गोष्ठियों में
यार-लोगों के बीच खूब रस लेकर सुना-सुनाया जाता है, लेकिन सुधाकर जी के काव्य की मुख्य
भूमि व्यंग्य और करुणा ही है, इसमें संदेह नहीं.
19 अगस्त 2001, प्रातः 4:10 - ऋषभदेव शर्मा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें