20-21 मार्च  2014 को शोलापुर [महाराष्ट्र] में ''संत काव्य के धरातल पर हिंदी और भारतीय भाषाओं का अंतःसंबंध [ मराठी, कन्नड़ और तेलुगु के विशेष सन्दर्भ में]'' विषय पर द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन था. शोलापुर विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति डॉ. इरेश स्वामी जी के सौजन्यपूर्ण आतिथ्य और महाराष्ट्र हिंदी साहित्य अकादमी के डॉ. दामोदर खडसे [पुणे] व डॉ. त्रिभुवन राय [मुंबई] के सान्निध्य में शोलापुर प्रवास सुखद एवं स्मरणीय रहा. अक्कलकोट [स्वामी समर्थ], पंढरपुर [श्रीकृष्ण-रुक्मिणी] और तुलजापुर [तुलजा भवानी] के दर्शनों का धर्म-संस्कृति-लाभ भी डॉ. त्रिभुवन राय [मुंबई] के अप्रतिहत और प्रणम्य उत्साहवश मिल गया - वरना मैं तो ठहरा सहज आलसी व यात्रा भीरु प्राणी. पर अपने भाग्य पर इतराने का मन तो तब हुआ जब उन्हीं की कृपा से शोलापुर के दो धार्मिक स्थलों पर अयाचित सत्कार मिला.
संगोष्ठी का एक सत्र ''हिंदी तथा तेलुगु के प्रमुख संतों की रचनाओं में अंतःसंबंध'' पर केंद्रित था. इसकी अध्यक्षता का दायित्व मुझ पर था.  प्रवर्तन व्याख्यान डॉ. जी. नीरजा (हैदराबाद) ने दिया. चार आलेख विभिन्न विश्वविद्यालयों से आए प्रतिनिधियों ने पढ़े. चर्चा भी अच्छी-खासी हुई - सौहार्दपूर्ण.  अपनी अध्यक्षीय टिप्पणी यहाँ चेप दे रहा हूँ - शायद कभी इन बिन्दुओं के आधार पर पूर्णाकार लेख बन जाए. वरना इतना तो है ही ---------
राष्ट्रीय संगोष्ठी : शोलापुर : 20 मार्च
2014 : अध्यक्षीय भाषण 
हिंदी
तथा तेलुगु के प्रमुख संतों की रचनाओं में अंतःसंबंध
-   
प्रो. ऋषभ देव शर्मा
- संत – 
‘संत’
शब्द का प्रयोग साधारणतः किसी भी पवित्रात्मा और सदाचारी पुरुष के लिए किया जाता
है. और कभी कभी यह साधु एवं महात्मा शब्दों का पर्याय भी समझ लिया जाता है. किंतु संत
मत शब्द में आ जाने पर इसका एक पारिभाषिक अर्थ भी हो सकता है जिसके अनुसार यह उस
व्यक्ति का बोध कराता है जिसने सत् रूपी परम तत्व का अनुभव कर लिया हो और जो इस
प्रकार अपने व्यक्तित्व से ऊपर उठकर उसके साथ तद् रूप हो गया हो. अतएव विशिष्ट
लक्षणों के अनुसार संत शब्द का व्यवहार केवल उन आदर्श महापुरुषों के लिए ही किया
जा सकता है जो पूर्णतया आत्मनिष्ठ होने के अतिरिक्त समाज में रहते हुए निःस्वार्थ
भाव से विश्वकल्याण में प्रवृत्त रहा करते हैं. इसके अलावा यह शब्द अपने रूढ़िगत
अर्थ में उन ज्ञानेश्वर आदि निर्गुण भक्तों के लिए भी प्रयुक्त होता आया है जो दक्षिण
के विट्ठल व वारकरी संप्रदाय के प्रचारक थे और कदाचित अनेक बातों में उन्हीं के समान
होने के कारण उत्तरी भारत के कबीर आदि के लिए भी इसका प्रयोग होने लगा है. (परशुराम
चतुर्वेदी)
- निरबैरी निहकामता, साईं सेती नेह/
     विषया सूं न्यारा रहै, संतनि का अंग एह (कबीर, साधा का अंग)
- संतों की परंपरा में पहली और
     महत्वपूर्ण बात है : आत्मज्ञान की उपलब्धि 
- दो अभिप्राय – 1. किसी में आत्मज्ञान
     की जागृति का उसकी जाति-पांति से कोई संबंध नहीं है. 2. जब आत्मज्ञान जागृत
     होता है तो वह समाज के सारे बंधनों को तोड़कर वैश्विक एकता को स्थापित करने की
     ओर बढ़ता है. संत का सबसे बड़ा लक्षण - विश्वात्मा में विश्वास 
- संत : महत्वपूर्ण लक्षण, समर्पण भाव संत
     काव्य की परंपरा तत्वतः उस काव्य रचना पद्धति की ओर संकेत करती है जो मानव
     समाज की मूल प्रवृत्तियों पर आश्रित है. 
- धीरे धीर संत शब्द का प्रयोग सामान्यतः
     निर्गुणोपासकों के लिए ही व्यवहृत होने लगा. निर्गुण साधकों की आचारपरक एक
     विशिष्ट दृष्टि : कबीर, दादू, नानक आदि 
- संत :  सत्-चित-आनंद रूप ब्रह्म की उपासना में सतत
     संलग्न 
- स्व-पर-भेद से रहित 
- श्वास-प्रश्वास में लोक कल्याण की
     भावना ही प्रवाहित 
मध्य युग के संतों का
सामान्य विश्वास – (हजारी प्रसाद द्विवेदी) हिंदी साहित्य की भूमिका
सबसे
पहली बात जो इस संपूर्ण साहित्य के मूल में है, यह है कि भक्त का भगवान के साथ
एक व्यक्तिगत संबंध है. भगवान या ईश्वर इन भक्तों की दृष्टि में कोई शक्ति या
सत्तामात्र नहीं है बल्कि एक सर्वशक्तिमान व्यक्ति है, जो कृपा कर सकता है, प्रेम
कर सकता है, उद्धार कर सकता है, अवतार ले सकता है. 
- हरि जननी, मैं बालक तेरा. काहे न औगुन
     बगसहु मोरा.
कहे कबीर एक बुद्धि
बिचारी. बालक दुखी दुखी महतारी. (कबीर)
आप अपरछन होइ रहे, हम
क्यों रैन बिहाइ.
दादू दरसन कारने,
तलफि तलफि जिय जाइ. (दादू)
·  भागवत : अखंडानंद स्वरूप तत्व के तीन रूप हैं –  ब्रह्म (ज्ञानाश्रयी भक्त), परमात्मा (योगी) भगवान
(भक्त). 
·       प्रेम ही परम पुरुषार्थ है मोक्ष नहीं – प्रेमा पुमर्थो महान 
·       दरसन दे, दरसन देहौं तो तेरा मुकति न माँगों रे.
सिधि ना माँगों रिधि
ना माँगों तुम्हहीं माँगों गोविंदा.
जोग न माँगों भोग न
माँगों तुम्हहीं माँगों रामजी. 
घर नहीं माँगों वन
नहिं माँगों तुम्हहीं माँगों देवजी.
‘दादू’ तुम्ह बिन
और न जानै दरसन माँगों देह जी. – (दादू दयाल) 
·        
वे दिन आवेंगे माइ./ जा कारिन हम देह धरी है मिलिबौ अंगि लगाइ. – (कबीर)
·      मध्य युग के भक्ति आंदोलन की एक बड़ी विशेषता यह है कि भक्त और भगवान को
समान बताया गया है. प्रेम का आधार ही समानता है. गुरु को भगवान का रूप बताया गया
है. 
·      नाम बिन भाव करम न छूटै./ साधु संग और राम भजन बिन काल निरंतर लूटै. – (दरिया
साहब) 
अन्नमाचार्य 
- जन्म : मई 1408 
- जाति, मत, कुल आदि मूर्खों के द्वारा
     स्थापित अवरोध की दीवारें हैं. 
- शठकोपयति = गुरुदेव 
- शठकोपयति - सच्चे वैष्णव की परिभाषा
     दी – मदमत्सरमु लेका मनसु पेदैपो वदलिना यासनवाडु वो वैष्णवुडु. सहज
     वैष्णवाचार वर्तनुलु सहवास में मा संध्या. (मद-मत्सर को छोड़कर, मन को सरल
     रखने वाला ही वैष्णव (संत) कहलाता है. निर्मल वैष्णव आचारों से युक्त व्यक्ति
     का साथ ही हम चाहते हैं. (कबीरा सांगत साधु की)
- रामानुजाचार्य के विधानों को, वेदांत
     देशिकों की स्फूर्ति को, शठकोपयति के आदेशों को अन्नामाचार्य ने अपने संकीर्तनों
     के माध्यम से आंध्र भर में प्रचारित किया
- एकमात्र लक्ष्य : लोग परोपकार की
     भावना रखते हुए, सब प्राणियों के प्रति दया दिखाते हुए सरल जीवन व्यतीत करते
     हुए परमात्मा के सायुज्य को प्राप्त करे.
- रामानुजाचार्य अन्नामाचार्य के आदर्श
     थे : गुरु के मंत्रों को गुप्त रूप में रखने के लिए कहने पर भी, रामानुजाचार्य
     ने मानव कल्याण के लिए श्रीरंग का गोपुर चढ़कर ऊँची आवाज में शरणागत के मन्त्र
     सब लोगों को सुनाए थे. 
- मधुरा भक्ति 
- रायल से कहा) मुकुंद की स्तुति करने
     वाली इस जीभ से तुम्हारी स्तुति नहीं की जा सकती : बंदी बनाकर बंदीखाने में
     रख दिया - रायल का मुकुट और शृंखलाओं का बंधन टूटकर आचार्य के चरणों पर गिर
     पड़े. 
- जाति भेद नहीं. हरि ज्ञान दासत्व ही
     उत्तम जाति. वह किसी कुल से संबंधित क्यों न हो, कोई भी क्यों न हो, हरि को जानने
     वाला ही उत्तम कुल का होता है. 
- यह संसार परब्रह्मत्व से भरा हुआ है.
     निम्न, उच्च का भेद उसमें नहीं है. इसके लिए जाति, कुल, वर्ग से कोई संबंध
     नहीं है. सब के लिए श्री हरि ही अंतरात्मा है. राजा की नींद और सेवक की नींद एक
     ही होती है. ब्राह्मण और चांडाल के लिए भूमि एक ही होती है. देवताओं के लिए
     या पशु पक्षियों के काम सुख एक ही होता है. दिन और रात धनवान या निर्धन के
     लिए एक ही होते हैं. धनवान और गरीब की भूख भी एक ही होती है. दुर्गंध और सुगंध
     पर बहने वाली वायु एक होती है. हाथी और कुत्ते पर पड़ने वाली धूप एक ही होती
     है. पुण्य पुरुष हो या पापी हो, दोनों की समान रूप से रक्षा करने वाला श्री
     वेंकटेश्वर नाम भी एक होता है. (एक लोहा पूजा में राखत, एक घर बधिक परयौ/ यह
     अंतर पारस नहिं जानत, कंचन करत खरयौ (सूरदास)  
- अन्नमाचार्य ने मन को समझाया – हे मन!
     तुम नट रूपी भ्रम में मत पड़ो. यह संसार एक मोहित करने वाली हथिनी है. यहाँ
     धोखे सच दीख पड़ते हैं. अगले दिन वे हिम के समान गल जाते हैं. यही माया है. इसके
     लिए एकमात्र पर्दा वेंकटेश तत्व का अनुभव ही होता है. ९माया महा ठगिनी हम
     जानी, यह संसार कागद की पुड़िया बूंद पड़े गल जाना है/ पानी करा बुदबुदा, अस मानुस
     की जात – कबीर)
- समुद्र में लहरों के रुकने पर ही हम
     स्नान करेंगे. ऐसी भावना वैसी ही है जैसे मन की सभी इच्छाएँ समाप्त होने के
     बाद ही हम भगवान के बारे में सोचेंगे. वास्तव में समुद्र में न लहरें रुकती
     हैं न मन में इच्छाएँ कभी समाप्त होती हैं. अगर हम यह समझेंगे कि इंद्रियों की
     प्यास बुझाने के बाद ही हम तत्व को जानेंगे, यह तो साध्य होने वाला काम तो नहीं
     है. यह प्यास न बुझने वाली है, न तत्व जानने वाला होता है. देह के रहने तक
     पदार्थों के प्रति मोह दूर नहीं होता. अंतरंग और बहिरंग दोनों में शुद्धि
     होने पर ही माया हटकर यथार्थ प्रकाशित होता है. यह दिन का प्रकाश है. इसे
     प्राप्त करना आसान है. 
- इस जीवन यान में मैं बहुत थक गया
     हूँ. तुम्हारे दर्शन के लिए मेरा हृदय संतप्त है. अब तो तुम ही मेरे लिए एकमात्र
     रक्षक हो. मैं तुम्हारी शरण में हूँ. 
- वैष्णव भक्त प्रेम से तुम्हें विष्णु
     कहकर सेवा करते हैं तो शैव भक्त शिव कहकर तुम्हारी उपासना करते हैं. कापालिक
     तुम्हें आदिभैरव कहकर स्तुति करते हैं तो शक्य लोग तुम्हें शक्ति स्वरूप कहते
     हैं. 
- अन्नमाचार्य का जीवन लक्ष्य एक महान सामाजिक
     प्रयोजन है. उसे स्वयम अपना उद्धार करना नहीं, इसके साथ मानव समाज का भी
     उद्धार करना है. 
- अन्नमाचार्य की समस्याएँ एक या दो
     नहीं अनेक थीं. पंडित परिषद ने यह प्रस्ताव किया कि पदकर्ता नीति बाह्य है तो
     गायक पंक्ति बाह्य है. 
- अन्नामाचार्य एक प्रकार से अपने समय के
     राजनीतिक, सामाजिक विप्लवों से ऊब गया था. संगम वंश के विरूपाक्षराय का वध,
     उसके भाई दूसरा विरूपाक्षराय ने किया. तो उसे सेनापति साल्व नर्सिंग राय ने
     राज्य से भगाकर विजयनगर संहासन पर बैठ गया. उस समय सांप्रदायिक दंगे अधिक हो
     रहे थे. दिन दहाड़े स्त्री का मानभंग, पति के देखते पत्नी पर अत्याचार होता
     था. बूढ़ी कूबड़ी के सिर उठाकर देखने तक उसके पुत्र का सिर काट दिया जाता था. मंदिर
     ढह दिए जाते थे. भगवान की देख-रेख करने वाले कोई नहीं थे. कलिमाया अधिक हो गई
     थी. लोग भाई-बहन रिश्ते के संबंध पर ध्यान न देकर विवाह कर रहे थे. 
- यति मुनि धनवान हो गए थे. प्रतिव्रता
     स्त्रियाँ अधिकारियों की रखेल बन गई थीं. ब्राह्मण युवतियों ने किरातों से
     विवाह कर आग में कूदकर प्राण त्यग दिए थे. राजा की पत्नियां वेश्या बन गई थी.
     इस प्रकार के सांप्रदायिक, राजनैतिक, सामाजिक आंदोलनों में किसी ने
     अन्नमाचार्य की पूजा की मूर्तियों का अपहरण किया था. 
- अन्नमाचार्य के तेलुगु के शब्द व्यावहारिक हैं, शब्द कोश का नहीं है.
भक्त रामदास
- यह सारा संसार राममय है. सूरज, चंदा,
     देवता, नक्षत्र, सागर, वृक्ष, अंड-पिंड-ब्रहमांड, ब्रहम, नदी, जंगल, मृग सब में
     राम ही दिखाई पड़ रहा है. 
- रामदास की भक्ति से संबंधित जितनी
     कहानियाँ संसार में प्रचलित हैं उतनी कहानियाँ अन्य किसी कवि के लिए नहीं. इनकी
     भक्ति भावना का यही एक मात्र दृष्टांत है. पुत्र के मांड के कडाह में गिरने
     पर राम की कृपा से उसे फिर से जीवित करना, स्वयं भगवान राम द्वारा तानाशाह के बंदीखाने से, पीड़ाओं
     से, मुक्त करना, पुष्पक विमान पर चढ़कर वैकुंठ जाना, कुछ लोगों के मत के अनुसार अद्भुत कल्पनाएँ हैं. 
- कहा जाता है कि आनंदभैरव राग का
     प्रारंभ भी इन्होंने किया था. 
- मुझे तारक मंत्र मिल गया है. इसलिए मेरा जीवन धन्य हो गया है. हर एक के अंतरंग में भगवान स्थित है. इसलिए तीर्थ यात्रा के नाम से 108 तिरुपतियों में बर्मन करने की आवश्यकता नहीं है. पुन्य नदियों में डुबकी लगाना भी व्यर्थ है. कितने जन्म लेने पर भी नारायण तो एक ही है. मानव जन्म उत्तम और अंतिम जन्म है. रामचंद्र को विश्वास के साथ अपने हृदय मंदिर में रख लेना है.
भक्त क्षेत्रय्या
- क्षेत्रय्या ई सन 1595 से 1660 के
     मध्य 
- क्षेत्रय्या ने अपनी आँखों खोल दी तो
     उसने देखा 1500 पद उसके सामने थे. 
- उनके अधिक पद अभिनय के उद्देश्य से ही लिखे
     गए हैं. घुटनों से ले का प्रदर्शन करना संप्रदाय है. 
- इस पूर्वार्द्ध में वह चापलचित्त था. 
- एक स्त्री के त्यागफल के कारण 
- उसके जीवन को एक नया मोड़ प्रदान किया. 
- कलाभिज्ञ के रूप में, संगीत, साहित्य और
     अभिनय के कोविद के रूप में, मुव्व गोपाल के चरण सेवक के रूप में, पदकर्ता के
     रूप में. अद्वैत योगी के रूप कें, विरागी के रूप में, गुरु के रूप में, स्थिर
     चित्त के रूप में, मधुरा भक्ति के रूप में, प्रबोधक के रूप में, जाज्वल्य के
     रूप में, जाति के गर्व के रूप में, उसका जीवन प्रकाशित होकर परमात्मा में
     एकाकार होया गया.   
- 15 वीं शती – भतृहरी के समान जीवन 
- कबीर, तुलसी और रहीम से तुलनीय
- समन्वय और लोकमंगल के अग्रदूत 
- श्रेष्ठता की पहचान – जन्म और जाति के आधार
     पर नहीं गुण के आधार पर 
- अज्ञान ही शूद्रता है और सुज्ञान ब्रह्मत्व 
- दूध से धो धो कर भी क्या कभी कोयले को गोरे
     रंग का बनाया जा सकता है. 
- दंभी विद्वान सुगंध धोने वाला गधा है. रहे तो
     गधे ही परिमल भी धोया तो क्या?
- जिसे चमड़े का जूता चबाने की आदत हो उसे गन्ने
     का रस क्या मालूम 
- बंदर का राज तिलक करके/ ठहल करते मरकट घेर
     करके 
- वह लड़ाका कैसा जो संकट पड़ने पर मैदान छोड़ जाए
     
- पशु-वर्ण जुदा, दूध का न जुदा,/ पुष्प-जाति जुदा, पूजा न जुदा./ रूप हैं बहुत, एक ही देव तो,/ विश्वदाभिराम सुन रे वेमा
- गंगा देवी तिरुमलाम्बा, मधुरवाणी आदि
     कवयित्रियों ने संस्कृत में काव्यों की रचना कर बड़ा नाम प्राप्त किया है तो
     उसी प्रकार तेलुगु में भी मोल्ला, रंगाजम्मा, मुद्दुपलनी, तरिगोंडा वेंगमांबा
     आदि ने देशी, मार्ग रीतियों में काव्यों की रचना की है. 
- मोल्ला कहती हैं – मैं पढ़ना-लिखना कुछ
     नहीं जानती. मैंने केवल श्रीकंठ मल्लेश्वर के वरप्रसाद से ही कविता लिखना
     सीखा है. 
- जन सामान्य में मोल्ला और तेनाली
     रामकृष्ण के समकालीन होने से संबंधित कितनी ही कहानियाँ प्रचलन में हैं. 
- 16 वीं शताब्दी की पूर्वार्द्ध 
- मोल्ला ने तिक्कना सोमयाजी के वरप्रसाद से वचन रामायण ग्रंथ लिखकर उसे काकतीय राजा प्रतापरुद्र को समर्पित करने के लिए राजा के दरबार में चली गई थी. राजदरबार के विद्वानों ने उसे शूद्र कवित्व बताकर उसे स्वीकार करने से मना किया.
- 18 वीं शताब्दी के प्रारंभ में 
- सन 1730 में 
- हे पागल! क्या तुम भ्रांति में हो? क्या
     तुम नहीं जानते कि मेरा प्राण नायक, पति, प्रभु श्री वेंकटेश्वर है. मेरे
     पिटा माया में पड़कर ज्ञान शून्य होकर मेरा विवाह तुम्हारे साथ किया है. इसलिए
     मेरे निकट मत आओ. मेरे निकट आकार स्पर्श करने मात्र से तुम्हारे सर के हजार
     टुकड़े हो जाएँगे.
- मैं तो नित्य सौभाग्यवती स्त्री हूँ.
     नित्य मंगल श्री वेंकटेश्वर ही मेरे पति के रूप में मेरे हृदय में विराजमान
     हैं. उस परमेश्वर की आराधना करना मेरा परम धर्म है. तुम्हारी आज्ञा के अनुसार
     मैं केशों को अन्हीन हटाती. 
- वेंगाम्मा अपने हृदय में वेंकटेश्वर को
     स्थिर रूप में रखकर, उसकी पूजा करती हुई आनंद से चारों तरफ घूमती रही. 
- तुम्हारे यथार्थ को मैं अच्छी तरह
     जानती हूँ. तुम आदिमध्यांत रहित हो. तुम स्वयं प्रकाश हो. जगदीश्वर हो. ज्ञान
     स्वरूप हो. तुम परमज्योति नारायण हो. हे सर्वेश्वर! तुम मेरे पास स्थिर रूप
     से रहने पर भी समस्त ब्रहमांड में हर एक परमाणु में भरे हुए व्याप्त हो. 
- मुत्याला आरती - आज भी .






 
 


