निबंधकार ‘मर्मज्ञ’ की रचना-प्रक्रिया
✍️ _ऋषभदेव शर्मा_
ज्ञानचंद मर्मज्ञ (1959) का नाम मुख्य रूप से दक्षिण भारत में सक्रिय हिंदी साहित्यकारों में प्रथम पंक्ति में शामिल है। कर्नाटक उनका विशिष्ट कार्यक्षेत्र है, जहाँ वे लगभग चार दशकों से निरंतर हिंदी की अलख जगाए हुए हैं। एक सरस और ओजस्वी गीतकार तथा मार्मिक निबंधकार के रूप में उन्होंने निजी और अनन्य पहचान अर्जित की है।
मानवीय संवेदनशीलता, प्रशस्त भारतबोध और उदात्त जीवन मूल्य मर्मज्ञ के साहित्य सृजन के आधारभूत मूलत्रिकोण की रचना करते हैं। अपने मुक्तकों और गीतों से लेकर आलेखों और निबंधों तक में वे एक ज़िम्मेदार नागरिक के रूप में स्वतंत्रता और लोकतंत्र के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं। उनके निकट साहित्य सृजन शब्दक्रीड़ा और मनोरंजन नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का सजग आंदोलनी उपक्रम है। उनके निबंधों में उनकी यह नागरिक चेतना अत्यंत मुखर रूप में लक्षित की जा सकती है।
यह मणिकांचन संयोग है कि ज्ञानचंद मर्मज्ञ कवि भी हैं और निबंधकार भी। निबंध/गद्य को कवियों की कसौटी कहा जाता है। मर्मज्ञ ने स्वयं अपने कवित्व को गद्य की इस कसौटी पर रख/परख कर यह सिद्ध किया है कि वे इन दोनों विधाओं के सिद्धहस्त रचनाकार हैं। दरअसल कविता का नाभिक भाव होता है, जबकि निबंध का नाभिक है विचार। कविता में विचार अगर ऊपरी तल पर तैरता दिखाई दे तो कवित्व छूँछा पड़ जाता है और निबंध अगर भावना में ऊभ-चूभ होने लगे तो गद्य वायवीय हो जाता है। इस दोहरे खतरे को पहचानते हुए, मर्मज्ञ ने अपनी कविताओं में विचार को काव्य सौंदर्य के उपकारक तत्वों और कल्पना के सर्जनात्मक उपयोग के सहारे जिस खूबी से भाव में ढाला है, उसी खूबी से अपने निबंधों में भाव तत्व को विचार के साथ निबद्ध करते हुए ललित गद्य की सृष्टि की है। उनके निबंधों के गद्य में भी खास तरह की अंतर्लय और भावप्रवणता है। इस तकनीक के सहारे वे अपने पाठक को भावोद्वेलित तो करते ही हैं, वैचारिक दृष्टि से सजग भी बनाते चलते हैं।
गद्य की कसौटी पर मर्मज्ञ की प्रतिभा तब और भी निखर जाती है, जब वे पाठक को अपने साथ भावों और विचारों की समांतर पटरियों पर सरपट दौड़ाते हैं। इस दौड़ में वे पाठक को कभी अकेला नहीं छोड़ते। अपने लक्ष्य विचार के प्रतिपादन और सटीक भाव के जागरण के लिए वे उसे इस तरह संबोधित करते चलते हैं कि उनके कथन बतकही और कथारस में भींजकर पाठक के मर्म को वेध जाते हैं। अवसर पाकर वे कभी कोई दृष्टांत सुनाते हैं, तो कभी मुक्ता जैसी कोई अनुभवसिद्ध सूक्ति जड़ देते हैं। प्रश्नों से लेकर आह्वान तक को उन्होंने बड़ी सफलता से अपनी निबंध शैली का चमत्कारी अंग बनाने में विलक्षण सफलता प्राप्त की है।
ज्ञानचंद मर्मज्ञ की निबंध शैली में चिंतन और काव्य इस तरह परस्पर अंतर्ग्रथित हैं कि पता ही नहीं चलता कब वे चिंतन की डोर पकड़कर कविता की नदी में उतर जाते हैं और कब कवित्व के प्रवाह के साथ बहते-बहते विचार के भँवर जाल को मथने लगते हैं। इस दौरान वे एक ओर अगर रमणीय चित्रात्मकता का एक समांतर संसार रच डालते हैं, तो दूसरी ओर प्रश्नों की झड़ी तथा विडंबना और व्यंग्य के अद्भुत संयोजन से जीवन और जगत के कठोर और विरूपित चेहरे का साक्षात्कार भी कराते हैं। इतने सब झंझा-झकोर-गर्जन के बाद वे पाठक के हाथ को तब तक आत्मीयता से पकड़े रहते हैं, जब तक उसे अपने अभिप्रेत आदर्श की कोमल ज़मीन पर न उतार दें। इसीलिए उनका कोई निबंध अचानक समाप्त नहीं होता। बल्कि भावों और विचारों के चरमोत्कर्ष को छूकर हौले-हौले अवरोह की ओर बढ़ता है। इस तरह वे अपनी नागरिक चेतना को सफलतापूर्वक पाठकीय चेतना में संक्रमित करते हैं।
मेरी समझ में यही निबंधकार ज्ञानचंद मर्मज्ञ की रचना प्रक्रिया का मर्म है। इसकी पुष्टि के लिए उनके गद्य और पद्य दोनों से अनेकानेक उद्धरण दिए जा सकते हैं और उनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। आशा है, कोई शोधार्थी अवश्य ही एक दिन इन तमाम बिंदुओं का अनुसरण करते हुए पूर्णाकार शोधप्रबंध प्रस्तुत करेगा। 000