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मंगलवार, 30 जनवरी 2024

डॉ. रमा द्विवेदी की लघुकथाएँ : मैं द्रौपदी नहीं हूँ

 


डॉ. रमा द्विवेदी की लघुकथाएँ

  • ऋषभदेव शर्मा


डॉ. रमा द्विवेदी हैदराबाद के हिंदी जगत में एक सुमधुर स्वर की धनी कवयित्री के रूप में सुचर्चित और लोकप्रिय हैं। उनके सुरम्य गीत हर पीढ़ी के काव्यरसिकों को पसंद आते हैं। लेकिन उनका रचना संसार केवल कविता तक सीमित नहीं है। वे पुस्तक समीक्षा और कथा-कहानी भी उसी तरह डूब कर लिखती हैं जिस तरह गीत, दोहे, मुक्तक और हाइकू। इसका जीवंत प्रमाण है उनका गत दिनों प्रकाशित लघुकथा संकलन “मैं द्रौपदी नहीं हूँ”।


संकलन की शीर्ष कथा ‘मैं द्रौपदी नहीं हूँ’ में भारतीय समाज में प्रचलित घरेलू हिंसा की विकृति और स्त्री की विवशता को दर्शाया गया है। घर की शांति और एकजुटता के नाम पर बहुओं के उत्पीड़न की यह कहानी आज भी बहुत से घरों में दोहराई जाती है। अकेली पड़ने पर बहुत बार बहुएँ इस उत्पीड़न के समक्ष या तो झुक जाती हैं या टूट जाती हैं। लेकिन रमा द्विवेदी की कथानायिका अपने पति के दब्बूपन और देवर की उद्दंडता दोनों का प्रतिकार करती है तथा खुद को द्वापर की द्रौपदी जैसी भाइयों में बँट जाने वाली वस्तु नहीं बनने देती। कथा का अंत खुला हुआ है क्योंकि यह कल्पना पाठक पर छोड़ दी गई है कि आत्मसम्मान की रक्षा पर उतारू बहू के साथ दकियानूसी परिवार और पुरुषवादी समाज आगे क्या सुलूक करेगा! इस लिहाज से यह लघुकथा किसी दीर्घकथा की प्रस्तावना भी कही जा सकती है। 


इतिवृत्तात्मकता और उपदेशात्मकता को लघुकथा लेखन की चुनौती कहा जा सकता है। यह चुनौती कथाकार रमा द्विवेदी के सामने भी बार बार उपस्थित होती है। इसका मुकाबला करने के लिए वे संक्षेप और संवाद का रास्ता अपनाती हैं। इसमें उन्हें कितनी सफलता मिल पाई है, इस बारे में मतभेद हो सकता है। लेकिन ‘चैलेंज’ इसका अच्छा उदाहरण है जिसमें लेखिका ने सोशल मीडिया के खतरों के बारे में पाठकों को आगाह किया है। ‘चुंबक-सा आकर्षण’ में भी फेसबुक के आभासी मोहजाल में फँसने से बचने की सीख देने के लिए ऐसे ही संवाद की अवतारणा की गई है। अन्यत्र ‘धारणा’ में यात्रियों के संवाद के माध्यम से लेखिका ने अपनी यह धारणा स्थापित की है कि उत्तर प्रदेश भ्रष्टाचार और अव्यवस्था का गढ़ है और दक्षिण भारत, उसमें भी हैदराबाद, में सुकून ही सुकून है क्योंकि यहाँ राजनीतिक व्यवस्था उत्तर से बेहतर है। (यह बात अलग है कि इसी हैदराबाद में विधानसभा चुनाव में सत्ता परिवर्तन राजनीतिक भ्रष्टाचार के मुद्दे पर होते देखा गया है!) ऐसे सरलीकरणों से बचा जाना चाहिए, वरना उन बयानों की तरफ शायद ही उँगली उठाई जा सके जिनमें हिंदीभाषियों को गोमूत्र पीने और संडास साफ करने वाले कहकर गरियाया जाता है। वैसे भी लघुकथा एक व्यंजनाप्रधान विधा है। इस दृष्टि से ‘टैगियासुर’ अवश्य ही रोचक और व्यंजक है। 


इसमें दोराय नहीं कि लघुकथाकार का एक बड़ा प्रयोजन वैयक्तिक और सामाजिक जीवन की विसंगतियों और पाखंड पर चोट करना भी है। लेकिन उसे ध्यान रखना पड़ता है कि लघुकथा भी कथारस की माँग करती है। इसके बावजूद सामाजिक चेतना संपन्न लेखक बहुत बार अपने सामाजिक प्रयोजन की सिद्धि के लिए कथात्मकता की बलि चढ़ाने में भी संकोच नहीं करते। लेखिका रमा द्विवेदी भी रचनाकार के संदेश को कला से ऊपर मानती हैं। ‘प्री वेडिंग शूट’ में इसीलिए वे कथाकार पर समाजसुधारक को हावी हो जाने देती हैं। ‘यह कैसी शादी’ में यद्यपि लेखिका ने सोलोगेमी को अमान्य करार दिया है, लेकिन बड़े मार्के की यह टिप्पणी भी की है कि प्यार में धोखा खाने से और तलाक़ लेने से तो अच्छा है कि खुद से ही विवाह करो और खुद से ही प्यार करो!


लेखिका की यह सामाजिक जागरूकता प्रायः सभी लघुकथाओं में झलकती है। कहीं प्रत्यक्ष, तो कहीं प्रच्छन्न। यह हमारे समय की कुरूप सच्चाई है कि अर्थ-पिशाचों से भरे इस स्वार्थी समाज में अनुपयोगी और बोझ बन चुके बूढ़ों के लिए अपने ही बच्चों के घरों में जगह नहीं बची है - दिलों में भी नहीं। खासकर अकेली विधवा माताओं की स्थिति तो बेहद कारुणिक है। ‘माई की ममता’ में ऐसी ही एक माँ की त्रासद गाथा वर्णित है। लेकिन लेखिका माँ के लिए निष्ठुर बेटों को दंडित होते नहीं देखना चाहती और ज़रा सा दबाव पड़ते ही बेटों का हृदय परिवर्तन करा देती हैं। अब यह आगे की बात है कि इन कृतघ्न बेटों का यह बदला चरित्र कितनी देर टिकता है। कहीं ऐसा न हो कि थाने से निकलते ही वे फिर से कपूत साबित हों! सोचने को मजबूर करती यह लघुकथा काफी संभावनापूर्ण कही जा सकती है। 


कुल मिलाकर, ‘मैं द्रौपदी नहीं हूँ’ सामाजिक चेतना संपन्न  तथा सोद्देश्य लघुकथाओं का सुरुचिपूर्ण संकलन है। ये लघुकथाएँ अपनी सहज भाषा और प्रवाहपूर्ण कथन शैली के सहारे पाठक को देर तक बाँधे रखने में सक्षम हैं। 000