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मंगलवार, 24 अक्टूबर 2023

भारतबोध : सांस्कृतिक-साहित्यिक संदर्भ

भारतबोध : सांस्कृतिक-साहित्यिक संदर्भ
- ऋषभदेव शर्मा

'भारतबोध' का सीधा सा अर्थ है 'भारत का ज्ञान', 'भारत की चेतना' अथवा 'भारतीय जीवन मूल्यों के प्रति जागरूकता'। यह एक अवधारणा है जो भारत के इतिहास, संस्कृति और मूल्यों की गहरी समझ को बढ़ावा देना चाहती है। 2017 में नई दिल्ली में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में इसे 'भारत के विचार' के रूप में रेखांकित किया गया था। सेमिनार का आयोजन भारतीय शिक्षण मंडल (बीएसएम) द्वारा किया गया था, जो पारंपरिक भारतीय मूल्यों को बढ़ावा देने वाला शैक्षिक संगठन है।

'भारतबोध' की अवधारणा इस विचार पर आधारित है कि भारत के पास एक अद्वितीय सभ्यतागत विरासत है जो संरक्षित करने योग्य है। भारतीय शिक्षण मंडल का तर्क है कि वैश्वीकरण और सांस्कृतिक समरूपीकरण की ताकतों द्वारा इस विरासत को नष्ट किया जा रहा है। उनका मानना ​​है कि भारतबोध भारत के अतीत और वर्तमान की गहरी समझ प्रदान करके इन ताकतों का मुकाबला करने में मदद कर सकता है। इसे 'ग्लोबल' होती जा रही दुनिया में 'लोकल' को सहेजने का भारतीय अभियान भी कहा जा सकता है। इसके लिए भारत शिक्षण मंडल ने पांच स्तंभों पर आधारित पाठ्यक्रम भी विकसित किया है। इसके अंतर्गत- 

1. इतिहास (प्राचीन काल से लेकर आज तक भारत का इतिहास),

2. संस्कृति (भारतीय कला, साहित्य और दर्शन),

3. मूल्य (भारतीय सभ्यता के मूलभूत जीवनमूल्य, जैसे अहिंसा, सहिष्णुता और करुणा),

4. विज्ञान और प्रौद्योगिकी (विज्ञान और प्रौद्योगिकी में भारत का योगदान) और

5. वैश्विक आउटरीच (विश्व में भारत की भूमिका और अन्य संस्कृतियों के साथ इसके संबंध) 

- शामिल हैं। भारतबोध के शिक्षण का समर्थन करने के लिए पाठ्यपुस्तकों, वीडियो और ऑनलाइन पाठ्यक्रमों सहित कई प्रकार की शैक्षिक सामग्री भी विकसित की गई है।

कहना न होगा कि भारतबोध की अवधारणा को मिश्रित प्रतिक्रिया मिली है। कुछ लोगों ने भारत की अनूठी सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने के एक तरीके के रूप में इसका स्वागत किया है, तो दूसरे कुछ ने इसे हिंदू राष्ट्रवाद का एक रूप बताकर इसकी आलोचना भी की है। विवाद अपनी जगह है, लेकिन इस बात को नकारा नहीं जा सजता कि भारतबोध की अवधारणा भारत में लोकप्रियता हासिल कर रही है।

भारतबोध की अवधारणा को परिपुष्ट करने में पं. दीन दयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मुखर्जी के विचारों का योगदान अविस्मरणीय है। वस्तुतः पं. दीन दयाल उपाध्याय भारतबोध के विचार के प्रमुख प्रस्तावक थे। उनका मानना ​​था कि भारत के पास एक अद्वितीय सभ्यतागत विरासत है जो संरक्षित करने योग्य है। उन्होंने तर्क दिया कि वैश्वीकरण और सांस्कृतिक समरूपीकरण की ताकतों द्वारा इस विरासत को नष्ट किया जा रहा है। उनका मानना ​​था कि भारतबोध भारत के अतीत और वर्तमान की गहरी समझ प्रदान करके इन ताकतों का मुकाबला करने में मदद कर सकता है। अपने लेखन में डॉ. उपाध्याय ने अक्सर 'एकात्म मानववाद' के महत्व के बारे में चर्चा की है। एकात्म मानववाद एक ऐसा दर्शन है जो सभी चीजों की परस्पर संबद्धता पर जोर देता है। यह व्यक्तिवाद के विचार को खारिज करता है और इसके बजाय समुदाय और सहयोग के महत्व पर जोर देता है। डॉ. उपाध्याय का मानना ​​था कि एकात्म मानववाद भारत की अद्वितीय सभ्यतागत विरासत को संरक्षित करने का सबसे अच्छा तरीका है। उन्होंने तर्क दिया कि एकात्म मानववाद एक ऐसे समाज के निर्माण में मदद करेगा जो अहिंसा, सहिष्णुता और करुणा के सिद्धांतों पर आधारित होगा।

श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारतबोध के विचार के एक अन्य प्रमुख प्रस्तावक थे। वे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पूर्ववर्ती भारतीय जनसंघ के संस्थापक थे। मुखर्जी का मानना ​​था कि भारत एक अद्वितीय संस्कृति और विरासत वाला एक 'आध्यात्मिक राष्ट्र' है। उन्होंने तर्क दिया कि भारत को एक 'हिंदू राष्ट्र' होना चाहिए, जिससे उनका अभिप्राय एक ऐसे राष्ट्र से था जो 'हिंदू मूल्यों पर आधारित' हो। अपने लेखन में मुखर्जी ने अक्सर 'राष्ट्रीय एकता' के महत्व के बारे में चर्चा की है। राष्ट्रीय एकीकरण किसी राष्ट्र के विभिन्न हिस्सों को एक साथ लाकर एक एकीकृत इकाई बनाने की प्रक्रिया है। मुखर्जी का मानना ​​था कि भारत के भविष्य के लिए राष्ट्रीय एकता आवश्यक है। उन्होंने तर्क दिया कि राष्ट्रीय एकता से एक मजबूत और एकजुट भारत बनाने में मदद मिलेगी। डॉ. उपाध्याय और मुखर्जी दोनों का मानना ​​था कि भारतबोध भारत के भविष्य के लिए आवश्यक है। उनका मानना ​​था कि भारतबोध भारत की अद्वितीय सभ्यतागत विरासत को संरक्षित करने और एक मजबूत और एकजुट भारत बनाने में मदद करेगा। डॉ. उपाध्याय और मुखर्जी के विचारों का भारतीय राजनीति और समाज पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। उन्होंने साहित्य को भी कहीं प्रत्यक्षतः तो कहीं परोक्षतः प्रभावित किया है।

यदि भारतबोध को एक आलोचना दृष्टि के रूप में ग्रहण किया जाए, तो कहना होगा कि हिंदी के भक्ति काल, नवजागरण काल, जागरण-सुधार काल और छायावाद काल के साहित्य में भारतबोध किसी भी प्रकार के मतवादी आग्रह से परे, सहज रूप में अभिव्यक्त हुआ है। छायावाद के बाद विचारधाराओं के आग्रह के कारण भारतबोध के स्वर नेपथ्य में अवश्य चले गए, लेकिन लुप्त कभी नहीं हुए। इसका बड़ा कारण यह रहा कि हिंदी साहित्य कहीं भी भारतीय संस्कृति से विमुख नहीं हुआ। जहाँ जहाँ साहित्य ने भारतीय संस्कृति को सम्मुख रखा, वहाँ वहाँ भारतबोध की मुखरता ध्यान खींचती है।

स्मरणीय है कि भारतीय संस्कृति भारतवर्ष में बसे हुए विभिन्न मानव समुदायों की हजारों वर्षों की उस साधना का परिणाम है जो उन्होंने जीवन को उत्कृष्ट, उदात्त और श्रेष्ठ बनाने के लिए की। मनुष्य को उसके आदिम स्तर से उठाकर दिव्यता से भर देने के लिए जुड़े जो प्रयास अलग-अलग देशकाल में संपन्न हुए, यह संस्कृति उन्हीं का संपुंजन है। इसे यों भी कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति मनुष्य के भीतर छिपी हुई उसकी दिव्यता को प्रकाशित करने के प्रयत्नों का सामूहिक नाम है। यह इतनी बहुआयामी है कि इसका कोई एक लक्षण निर्धारित नहीं किया जा सकता।

इसमें संदेह नहीं कि भारतवर्ष मनुष्यों का ऐसा महासमुद्र है जिसमें अनेक मानव समूह समय-समय पर आकर घुलते-मिलते गए हैं और इसकी सामासिक संस्कृति का निर्माण करते चले हैं। कई बार लोग यह कहते सुने जाते हैं कि भारत में ‘कई’ संस्कृतियाँ हैं। हम कहना चाहते हैं कि भारतीय संस्कृति तो ‘एक’ ही है, लेकिन उसका सृजन करने वाली सांस्कृतिक धाराएँ अनेक हैं। महासमुद्र में मिल जाने पर अलग-अलग नदियों की धाराओं की पहचान खोजना पानी पर नाम लिखने जैसा व्यर्थ प्रयास कहा जाएगा। इन विभिन्न धाराओं में जो ‘अविरोधी भाव’ है वही भारतीयता है, भारतीय संस्कृति का केंद्रीय मूल्य है; और भारतबोध का आधार भी। विरोधों को खोज-खोज कर रेखांकित करना संस्कृति की सामासिकता को विघटित करने जैसा है। “जंगल में जिस प्रकार लता, वृक्ष और वनस्पति अपने अदम्य भाव से उठते हुए पारस्परिक सम्मिलन से अविरोधी स्थिति प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार राष्ट्रीय जन अपनी संस्कृति के द्वारा एक-दूसरे के साथ मिलकर राष्ट्र में रहते हैं।” (अग्रवाल, वासुदेवशरण: ‘राष्ट्र का स्वरूप’; पृथिवी पुत्र)। सामूहिकता, सहअस्तित्व अथवा अविरोधी भाव की व्याख्या करते हुए डॉ. देवेंद्रनाथ शर्मा ने सही कहा है कि, “रहन-सहन, खान-पान, आचार-विचार, उत्सव-त्योहार सब एक-एक हैं। एक कतार में खड़े कर दिए जाएँ तो कहना असंभव होगा कि कौन हिंदू है, कौन मुसलमान, कौन ब्राह्मण, कौन क्षत्रिय, कौन वैश्य, कौन शूद्र। बिना बताए बगल के गाँव का भी कोई व्यक्ति इसका अंतर नहीं समझ सकता। भारत से जो लोग विदेश जाते हैं, वे सब के सब भारतीय समझे जाते हैं।... हमारी न तो ब्राह्मण संस्कृति है, न क्षत्रिय संस्कृति, न लुहार संस्कृति, न सुनार संस्कृति, न बढ़ई संस्कृति, न जुलाहा संस्कृति। ये तो विभिन्न पेशों के वर्ग हैं। संस्कृति सबकी एक ही है और वह है भारतीय संस्कृति। रीति-रिवाज, आचार-व्यवहार, रस्म-रिवाज प्रायः एक ही हैं।” (शर्मा, देवेंद्रनाथ: भाषा, धर्म, संस्कृति और राष्ट्रीयता: निबंधश्री: पृ. 75-76)।

अपने समस्त सांस्कृतिक वैभव को सुरक्षित रखने और संवर्द्धित रूप में अगली पीढ़ियों को सौंपने की जिम्मेदारी प्रत्येक ‘वर्तमान’ की होती है। कहना यह भी होगा कि आज इस समेकित विरासत के विभक्त होकर बिखर जाने का ख़तरा हमारे सामने है। इसीलिए सांस्कृतिक दृष्टि से हमारे समय की सबसे पहली चुनौती इस संस्कृति के स्वरूप को बनाए रखने की है। आवश्यकता इस बात की है कि “देश के विभिन्न अंगों को अलग-अलग लीकों में पड़कर विच्छिन्न हो जाने से बचाने के लिए प्रयत्न किया जाए। सदियों से साथ रहने वाले समाज क्रमशः एक-दूसरे से इतना परे हट जाएँ कि जब एक-दूसरे की ओर देखें तब उनकी आँखों में सख्य का आलोक न हो, जिज्ञासा अथवा कौतूहल का आकर्षण भी न हो, केवल घनीभूत अपरिचय और उपेक्षा एक पत्थर की दीवार की तरह बीच में खड़ी हो जाय – यह किसी भी देश के लिए स्वयं एक भारी ट्रेजेडी है।” (अज्ञेय: पुराण और संस्कृति: निबंधश्री: पृ. 68)। इस ट्रेजेडी की रचना उन तत्वों ने की है जिनकी सत्ता देश को बिखेरे रखकर ही बनी रह पाती है। ऐसी शक्तियाँ हमारी उपलब्धियों को भी हमारी न्यूनताओं के रूप में देखती-दिखाती हैं तथा हमारी परंपराओं, मिथकों, पुराणों और इतिहास की विकृत व्याख्याएँ करके देशवासियों को एक-दूसरे के विरुद्ध खडा कर देती है। संप्रदाय, भाषा, जाति, दल, नस्ल और विचारधारा पर आधारित इन कट्टरवादी और पृथकतावादी ताकतों को पहचाने और निष्प्रभावी बनाए बिना भारतीय संस्कृति और भारतबोध का संरक्षण और संवर्धन नहीं हो सकता।

वर्तमान में संपूर्ण विश्व इस भय से ग्रसित है कि जाने कब पृथ्वीवासियों को उपलब्ध सारे प्राकृतिक संसाधन समाप्त हो जाएँ। खतरा इतना बढ़ गया है कि शुद्ध हवा और पानी भी क्रमशः लुप्त होने के कगार पर हैं। भविष्य की चिंता करने वाले तो यहाँ तक सलाह देने लगे हैं कि मनुष्यों को शीघ्र ही पृथ्वी को छोड़कर कहीं और बसेरा ढूँढ़ लेना चाहिए। इसका अर्थ है कि उन्हें यह लगता है कि धरती पर मानव-अस्तित्व-विरोधी परिस्थितियाँ इतनी विकट हो चुकी हैं कि उनका कोई इलाज नहीं किया जा सकता। यह स्थिति मनुष्य और प्रकृति के रिश्ते को बिगाड़ने के कारण पैदा हुई है। पाश्चात्य देशों की संस्कृतियाँ यह मानती हैं कि मनुष्य प्रकृति का स्वामी है और प्रकृति की रचना मनुष्य के लिए हुई है। यही कारण है कि इन संस्कृतियों की प्रेरणा से मनुष्य ने प्रकृति का क्रूरतापूर्वक दोहन और शोषण किया है तथा हवा और पानी तक का संकट खुद पैदा किया है। इस संकट का समाधान भारतीय संस्कृति के पास है। हमारी संस्कृति में प्रकृति को पूज्य माना गया है। मनुष्य उसका स्वामी नहीं, बल्कि वह मनुष्य की माता है। माता और संतान के संबंध का यह भाव यदि आज के मनुष्य के भीतर पैदा किया जा सके, तो जितना कुछ बिगड़ा है उसे सुधारा जा सकता है। बात केवल इतनी ही नहीं है, बल्कि यह सारा का सारा जीवनमूल्य और नैतिकता की भिन्नता का मामला है। भारतबोध का सर्वाधिक ज़ोर भारतीय जीवनमूल्यों और नैतिकता की पुनर्स्थापना पर है, जिसके केंद्र में पुरुषार्थ चतुष्टय (धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष) की समझ विद्यमान है।

भारतीय मूल्य दृष्टि जीवन के दो मुख्य लक्ष्य मानती है – अभ्युदय (प्रोस्पेरिटी) और निःश्रेयस (लिबरेशन)। अभ्युदय से जुड़े हैं धर्म, अर्थ और काम; तथा निःश्रेयस से जुड़ा है मोक्ष। ये चारों जीवनमूल्य या पुरुषार्थ परस्पर निर्भर हैं। धर्म अर्थात कर्तव्य का पालन करते हुए, अर्थ अर्थात भौतिक सुख साधन अर्जित करना और कामनाओं को इस प्रकार पूर्ण करना कि यह सारी प्रक्रिया धर्मसम्मत बनी रहे, अभ्युदय का नैतिक आधार है। इसके साथ ही भोग में त्याग की वृत्ति बने रहना लोक कल्याण की प्रेरणा देता है। ऐसा व्यक्ति या ऐसा समाज ही तृप्ति की एक सीमा पर पहुँचकर अपने समस्त अर्जित को लोक के लिए अर्पित कर सकता है। इस विसर्जन से ही मोक्ष की भूमिका तैयार होती है। भारतीय अर्थशास्त्र का सार यह है कि उत्पादन का मोक्ष उपभोग में नहीं, दान में है। इसी सूत्र को आज भी यह विश्व अपना ले, तो बाजारवाद की तमाम विकृतियों पर विजय प्राप्त करके ‘कुटुंब भाव’ की प्रतिष्ठा की जा सकती है। अभिप्राय यह है कि भारतीय संस्कृति आज की दुनिया को साहचर्य, सामूहिकता और सहअस्तित्व को संभव बनाने वाला ‘कुटुंब भाव’ सौगात के रूप में दे सकती है. ‘कुटुंब भाव’ से हमारा अभिप्राय है, अपने हित से पहले विश्व परिवार के अन्य सदस्यों के हित की चिंता करना।

भारतीय संस्कृति की परंपरा बहुत पुरानी है। तरह-तरह के आक्रमणों के कारण इस परंपरा का काफी हिस्सा क्षत-विक्षत और नष्ट हो गया. फिर भी, लोक संपदा के रूप में जितना कुछ बचा है, वह भी कम नहीं है. उसे सहेजने तथा आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की कसौटी पर परखने और उसे नया जीवन देने की बड़ी आवश्यकता है। ज्योतिष, योग, चिकित्सा, ललित कला, कृषि, प्रबंधन, राजनय, शिक्षा, वास्तु, मौसम विज्ञान आदि अनेक जीवनोपयोगी ज्ञान क्षेत्रों में भारत ने जो कुछ अर्जित किया, वह शास्त्र और लोक दोनों में फैला पड़ा है। इसे समेटा और सहेजा न गया तो यह नष्ट हो सकता है। इसलिए आज के संस्कृतिकर्मी के समक्ष इस सारी संपदा को संरक्षित करने की बहुत बड़ी चुनौती उपस्थित है, क्योंकि इस संपदा से ही हमारे सांस्कृतिक वैभव का निर्माण होता है।

यहाँ भाषा और साहित्य की चर्चा करना इसलिए भी आवश्यक है कि किसी भी राष्ट्र की संस्कृति साहित्य और भाषा द्वारा ही सँभालकर भावी पीढ़ियों को हस्तांतरित की जाती है। किसी एक साहित्यिक कृति का खो जाना या विकृत हो जाना संस्कृति के किसी पक्ष का खो जाना या विकृत हो जाना है। इसी प्रकार किसी एक मातृभाषा का लुप्त हो जाना भी उसके साथ जुड़ी हुई समूची सांस्कृतिक विरासत का लुप्त हो जाना है। नित नएपन की झोंक में यदि हम अपने साहित्य को विकृत करते हैं, या भाषा के एक भी प्रतीक को मर जाने देते हैं, शब्दों को प्रचलन के बाहर चला जाने देते हैं, साहित्यिक धाराओं को लुप्त हो जाने देते हैं, तो वस्तुतः हम संस्कृति की हत्या कर रहे होते हैं! अतः आवश्यकता इस बात की है कि हजारों मातृभाषाओं और जनभाषाओं से लेकर अनेक क्लासिक भाषाओं तक की विराट भाषिक और साहित्यिक संपत्ति को हम सँभालकर रखें, उसे समझें और समझाएँ तथा उसमें निहित उच्च मानवीय मूल्यों और उदात्त भारतीय संस्कृति को विश्व के समक्ष रखें।

वर्तमान संदर्भ में यह पूछा जा सकता है कि भारतबोध के विकास की दृष्टि से नए भारत के साहित्य से क्या अपेक्षाएँ हो सकती हैं। सो, इस दिशा में सबसे पहली अपेक्षा है कि हमारा साहित्य भारत के इतिहास और संस्कृति की गहरी समझ को व्यक्त करे। ज्ञान और समझ को व्यक्त करने के लिए साहित्य एक शक्तिशाली उपकरण हो सकता है। भारत के अतीत और वर्तमान के विमर्श के सहारे साहित्य भारत के समृद्ध इतिहास और संस्कृति की गहरी समझ को बढ़ावा देने में मदद कर सकता है। दूसरी अपेक्षा है कि साहित्य में भारत की विविधता का उत्सव रूपायित होता दिखाई दे। भारत अपने लोगों और संस्कृतियों दोनों के मामले में महान विविधता का देश है। साहित्य भारत को बनाने वाले विभिन्न लोगों और संस्कृतियों को कथ्य बनाकर इस विविधता का जश्न मनाने में भूमिका निभा सकता है। तीसरी अपेक्षा यह है कि साहित्य भारत के मौलिक मूल्यों की पुनः पुष्टि करे। भारतबोध अहिंसा, सहिष्णुता और करुणा जैसे मौलिक भारतीय जीवनमूल्यों के महत्व पर जोर देता है। नए भारत के साहित्य को विभिन्न विधाओं में इन मूल्यों की पुष्टि करने वाला पाठ गढ़ना चाहिए। चौथी अपेक्षा यह है कि वह भारत के भविष्य के लिए एक स्पष्ट दृष्टिकोण प्रस्तुत करे। इस तरह हमारा साहित्य भारत के भविष्य की कल्पना का साधन भी हो सकता है। भारत कैसा हो सकता है, इसे कथ्य बनाकर साहित्य लोगों को अपने देश के बेहतर भविष्य की दिशा में काम करने के लिए प्रेरित करने में मदद कर सकता है।

बेशक, ये कुछ उम्मीदें हैं जो भारतबोध के संदर्भ में नए भारत के साहित्य से की जा सकती हैं। याद रहे कि भारत के भविष्य को आकार देने में साहित्य की भूमिका भारत के लेखकों और पाठकों पर निर्भर है। यहाँ ठहरकर, कुछ विशिष्ट उदाहरण दिए जा सकते हैं कि भारतबोध को बढ़ावा देने के लिए साहित्य का उपयोग कैसे किया जा सकता है:

- ऐतिहासिक उपन्यास जो किसी प्रसिद्ध भारतीय नेता या घटना की कहानी कहता हो।

- लघु कथाओं का संग्रह जो भारत की विभिन्न संस्कृतियों का पता लगाता हो।

- कविता जो भारत के लोगों की विविधता का उत्सव मनाती हो।

- नाटक जो आज भारत के सामने आने वाली चुनौतियों और अवसरों की पड़ताल करता हो।

- ग्राफिक उपन्यास जो ऐसे युवा भारतीय की कहानी बताता हो जो दुनिया में अपना स्थान खोजने की कोशिश कर रहा है।

संभावनाएँ अनंत हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि साहित्य का उपयोग उन कथानकों और विमर्शों को रचने के लिए किया जाए, जो भारत और उसके लोगों के लिए सार्थक हों तथा भारत के सांस्कृतिक वैभव को उसके आज से जोड़ सकें।

यहाँ यह कहना भी जरूरी है कि हम अपने इस सांस्कृतिक वैभव को प्रदर्शित करके न तो किसी को चमत्कृत करना चाहते हैं, न आतंकित। हम यह भी नहीं कहना चाहते कि कोई अन्य संस्कृति या संस्कृतियाँ हमारी संस्कृति से कमतर हैं। हम तो बस अपने सांस्कृतिक गौरव को महसूस करना चाहते हैं – बराबरी के साथ। हमारे इस सांस्कृतिक गौरव का आधार हमारी वह जीवनदृष्टि है जो किसी के साथ भी मेरा-तेरा जैसा भेदभाव नहीं करती, सबमें एक जैसी दिव्यता के दर्शन करती है और संपूर्ण पृथ्वी को अपना परिवार तथा सारे ब्रह्मांड को अपना घर मानती है- ‘यत्र विश्वं भवत्येक नीडम्’। 000

- ऋषभदेव शर्मा

मंगलवार, 10 अक्टूबर 2023

(समीक्षा) कहीं कुछ कम है: पूर्णमेवावशिष्यते!

 


कहीं कुछ कम है:

पूर्णमेवावशिष्यते!

  • ऋषभदेव शर्मा



अनिल कुमार शर्मा (1955) के कविता संकलन 'कहीं कुछ कम है' (2020; दिल्ली : विजया बुक्स) में प्रवेश करना किसी किले में प्रवेश करने जैसा है। आप इस कविता संकलन की कविताओं से सीधे-सीधे नहीं मिल सकते। पहले आपको अनेक महान नामों और उनके वक्तव्यों रूपी प्राचीर से होकर गुजरना पड़ेगा। इस प्राचीर के कंगूरों अशोक चक्रधर सुशोभित हैं जिन्हें अनिल कुमार शर्मा की काव्योक्तियाँ सूक्तियाँ बनती प्रतीत होती हैं;  हरीश नवल हैं जिन्हें ये कविताएँ सादगी से लिखी गई सशक्त कविताएँ लगती हैं; विमल कुमार शर्मा के लिए ये कविताएँ जीवन के सभी पहलुओं को उजागर करने वाली हैं।  कमलानंद झा शब्दों और अवधारणाओं में नए अर्थ भरने के प्रयास को लक्षित करते हैं, तो ब्रज श्रीवास्तव को इन कविताओं का अलग, अनूठा और अविरल होना आकर्षित करता है। बजरंग बिहारी तिवारी इस संकलन को पाठक वर्ग को भागीदार बनाने में समर्थ मानते हैं, तो श्याम लाल यादव राजेश का मन इन कविताओं को पढ़ने में खूब रमता है। चंद्रकांत पाराशर के लिए इन कविताओं का प्रवाह सहज और नैसर्गिक है, तो अखिलेश श्रीवास्तव के विचार से कवि शिल्प को अलग ढंग से बरतने में समर्थ  है। कुसुम भट्ट को मन की भीतरी तह पर नमी की परत से उपजी ये कविताएँ शांत झील के साफ पानी सी प्रतीत होती हैं, जबकि विजय कुमार सिंह यह निष्कर्ष देते हैं कि हर रचना अनूठी है जो मन पर छाप छोड़ देती है। इसीलिए हरिहर झा ने उचित ही यह विश्वास प्रकट किया है कि साहित्य जगत इस कृति का स्वागत करेगा। करेगा भी क्यों नहीं जब किले के प्रवेश द्वार पर ओम निश्चल यह यकीन दिलाने के लिए उपस्थित हों कि अनिल कुमार शर्मा की कविताएँ जीवन की वास्तविकताओं का निर्मम आख्यान हैं तथा भूपेंद्र अजीज परिहार हाथ उठाकर यह घोषणा कर रहे हों कि भाषा के माध्यम से कवि ने कल्पना की है एक पुनःजागरण की जिसकी प्रतीक्षा हम सभी को है! वे यह भी बताते चलते हैं कि 'कम' तो हर दौर में रहा है, आज हमारे जीवन में कितना कुछ कम हो रहा है इसका चित्रण इन कविताओं की एक बड़ी खूबी है, हमारे लिए एक संस्कार, एक दीक्षा। आप कहीं इधर-उधर भटक न  जाएँ, इस हेतु हरीश नवल ने आमुख में यह स्पष्ट निर्देश कर दिया है कि कवि अनिल कुमार शर्मा की रचनात्मकता की रेंज बहुत बड़ी व महत्वपूर्ण है। उन्होंने बताया है कि इस संकलन में अतीत को याद करती कविताएँ नॉस्टैल्जिया से संपन्न हैं, तो कुछ कविताएँ प्रेम से पगी हुई हैं।  साथ ही यह भी कि न्याय प्रक्रिया, नारी सुरक्षा, सैनिक स्मरण, आम जन संवेदनशून्यता, मानवता, मृत्यु बोध व विसंगति दर्शन इस संकलन की कविताओं के मुख्य विषय हैं। इन सूत्रों का विस्तार करते हुए प्रांजल धर ने विस्तृत भूमिका में अनिल कुमार शर्मा को सृष्टि और सभ्यता के सूत्रों की गहन पड़ताल करने वाले कवि के रूप में सप्रमाण प्रस्तावित किया है। वे यह बताते हैं कि इस संग्रह की कविताएँ हमारे समय, संबंधों और समाज की गहरी विडंबनाओं और अंतर्विरोधों को केंद्र में लाते हुए गहरे सरोकारों और प्रतिबद्धता के मर्मवेधी चित्र खींचती हैं। ये चित्र अनेकानेक देशी बिंबों से भरे पड़े हैं और इस बात को सत्यापित करते हैं कि हजार शब्द मिलकर भी जो बात नहीं कह पाते उसे एक चित्र यूँ ही अभिव्यक्त कर दिया करता है। उन्होंने यह भी रेखांकित किया है कि अनिल बतौर कवि  किसी नवीन विकल्प की तलाश में व्याकुल हैं। वे ज़ोर देकर यह भी कहते हैं कि उनकी कविताओं में प्राचीनता को याद करना निष्क्रिय या नॉस्टैल्जिक हो जाना नहीं है बल्कि विवेकवान और समतावादी हो जाना है। बड़े मार्के की बात यह है कि उनके मतानुसार इस संग्रह में विवशता के लोक में विचरण करते उस आधुनिक मानव की विडंबना व्यंजित है जो छीजते चले जा रहे मानवीय मूल्यों से त्रस्त हो और अनावश्यक संत्रास से ग्रस्त हो गया है। वे मानते हैं कि कवि अनिल शर्मा के इस नवीनतम संग्रह में देशी सरोकार लबरेज हैं और यहाँ बिना लाग लपेट के कही जाने वाली वज़नदार सपाटबयानी मौजूद है; और निष्कर्ष देते हैं कि अनिल कुमार शर्मा के इस कविता संग्रह में अनेक ऐसी कविताएँ हैं जो हमारी जड़ों, गुम होती चली जा रही हमारी विरासत, हमारी सोच और चिंतन की विसंगतियों की ओर इशारा करती हैं। इसी क्रम में उपमा ऋचा ने प्राक्कथन में यह आह्वान किया है कि इससे पहले कि अर्ध सत्यों के साथ जीना हमारी विवशता बन जाए या हमारे अर्थ पूरी तरह स्वार्थ का शिकार हो जाएँ और हमारी संवेदना की चिड़िया को कठोरता के बाज खा जाएँ, बेहतर यही है कि हम भी गुनगुनाएँ एक गीत कल के लिए; फिर भले ही कहीं कुछ कम रह भी जाए, तब भी स्याहियों का कर्ज़ ढोने का मलाल नहीं रहेगा!


इतने सारे समीक्षात्मक वक्तव्यों, भूमिकाओं और प्रस्तावनाओं आदि के पार कहीं अनिल कुमार शर्मा की 66 कविताएँ पाठक का स्वागत करने के लिए आतुर हैं। कहना न होगा कि सामान्य पाठक इतनी सारी विद्वत्तापूर्ण मार्गदर्शक उक्तियों से कुछ सीमा तक उकता भी जाता है और आतंकित भी होता है। लेकिन इस सबसे उसके मन पर यह प्रभाव तो पड़ता ही है कि जिस कवि की कविताओं का साक्षात्कार अब उससे होने जा रहा है वह ज़रूर कोई बड़ी चीज़ है जिसको बड़े बड़ों ने इतना मान दिया है और वह कविता के भीतरी मंदिर में प्रवेश करने से पहले सम्मान से कवि के समक्ष नतशिर हो जाता है।  यह बात अलग है कि यदि इस सारी दीक्षा के बिना पाठक को सीधे अनिल कुमार शर्मा के कविता जगत में छोड़ दिया जाता तो भी वह इन कविताओं से सहज ही संवाद स्थापित कर लेता। कहने का अभिप्राय यह है कि 'कहीं कुछ कम है' संग्रह की कविताओं में एक समर्थ संप्रेषणीयता का गुण विद्यमान है, जिसके कारण ये कविताएँ बड़ी ललक के साथ अपने पाठक से जुड़ने का प्रयास करती हैं और बिना किसी आलोचककीय दावे के, उसके चित्त को अपने साथ बाँध कर बहा ले जाती हैं। इसलिए यह तो ज़रूर कहा जा सकता है कि कंगूरे से लेकर प्रवेश द्वार तक पर अंकित विद्वानों और समीक्षकों का वैदुष्य पूरी तरह प्रामाणिक और विश्वसनीय है,  लेकिन यह भी कहना होगा कि अगर उँगली पकड़ कर ले जाने वाले इतने सारे मार्गदर्शक न भी होते तो भी काव्योत्सुक पाठक सीधे इन कविताओं के मर्म तक पहुँच जाता, क्योंकि ये कविताएँ उसी वास्तविक लोक की कविताएँ हैं जिस लोक में आज की कविता का पाठक जीता है। 


कुछ तो कम है


कुछ न कुछ न्यूनता या अभाव तो जीवन में रहता ही है। पूर्णता जीवन के पार कहीं स्थित हो सकती है, जीवन में नहीं। लेकिन इन अपूर्णताओं के प्रति सजग रहना हर किसी के बस में नहीं होता। कई न्यूनताएँ ऐसी भी होती हैं जिन्हें हम स्वीकार नहीं करना चाहते और एक भ्रम में जीते रहते हैं कि हम तो पूर्ण हो गए, हमने तो पूर्णता प्राप्त कर ली। लेकिन कवि अनिल कुमार शर्मा ईमानदारी से यह मानते हैं कि प्रिय का स्पर्श तक पूर्ण नहीं हो सका और जीवन बीत चला। मन को न छुआ जा सका क्योंकि वह आकाश की तरह पकड़ के परेऔर विस्तृत था। साँसों के उद्गम को ना खोजा जा सका क्योंकि वे पवन के स्रोत की तरह अलक्षित थीं। आलिंगन के ठहराव को न नापा जा सका क्योंकि वह धरती के धीरज जैसा अमाप था, अपरिमेय था। और तो और प्रिय के नैकट्य में त्वचा की तरलता को अकेले महसूस न किया जा सका क्योंकि वह तरलता सात्विक थी, आंगिक नहीं। प्रेम की अग्नि  को कवि ने इतनी शिद्दत के साथ महसूस किया है कि उसके बिना जीने की कल्पना भी नहीं की जा सकती।  इतनी सारी न्यूनताओं के बोध के कारण ही यह इच्छा उत्पन्न हुई है कि 'जब हो तुम पंचतत्व में विलीन/ मुझे भी समाहित कर लेना'।  सहमरण की यह कामना शाश्वत सामीप्य प्राप्त करने की कामना का ही दूसरा रूप है। यहाँ पहुँच कर प्रेम पंचतत्व से निर्मित देह का अतिक्रमण करके भक्ति में विलीन होता दिखाई पड़ता है और इस तरह कहीं कम रह गए 'कुछ' का संधान एक आध्यात्मिक यात्रा की प्रेरणा बनता है। 


इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि कवि अभावों को खोज खोज कर अपने व्यक्तित्व को हीनता ग्रंथि में जकड़ देना चाहता हो। बल्कि इसके विपरीत कवि को तो वर्तमान में जीना पसंद है। भले ही इसके लिए अपने चाक़ जिगर को सीना पड़े। उसे तो अभावों को याद करके अपने भावों को दयनीय स्थिति में लाना असामान्य लगता है। इसलिए इन अभावों की पूर्ति के लिए वह वर्तमान का जश्न मनाने में विश्वास रखता है और उस वैचारिक औदात्य को आयत्त करना चाहता है जो  हर अभाव, न्यूनता और 'कहीं कुछ कम' के परे परिपूर्णता के परम लक्ष्य की ओर प्रेरित कर सके। यही कारण है कि बिना किसी प्रकार की कुंठा के कवि यह स्वीकार कर सका है कि 'जीवन की सरिता अपनी लय में बही/  कमियाँ थीं/ कमियाँ रहीं।' लेकिन उनके अहसास ने कवि-मन  को परेशान नहीं किया। बल्कि जीवन की उमंग ने कमियों का समायोजन किया।  अनिल कुमार शर्मा यह मानते हैं कि अभाव या कमी का अहसास कहीं न कहीं मनुष्य का स्वभाव है और इसकी जड़ इस मूल प्रवृत्ति में है कि जिस वस्तु को व्यक्ति जितनई अधिक उत्कटता के साथ पाने के लिए व्यग्र होता है उसके पास आने पर उसे न पाने की प्यास और हुडके उतनी ही तेजी से बुझ जाती है। लेकिन यह प्यास और इस प्यास का बुझना संवेदनशील व्यक्ति को यह जरूर सिखा जाता है कि जीवन की सरिता की गति हमारी प्यास से नियंत्रित नहीं होती, वह तो सदा अपनी लय में बहा करती है। इसलिए वे यह भी संदेश देते हैं कि महान व्यक्तित्व में कमी निकलते रहने वाले लोग इस बहाने खुद अपने व्यक्तित्व की कमियों को छिपाने और लोक में स्वीकृति और प्रतिष्ठा पाने के ओछे प्रयासों में लगे रहते हैं। इस न्यूनता  के बोध से ग्रस्त कुंठित लोग किसी भी विराट व्यक्तित्व को जाने-परखे बिना वैसे ही दोषारोपण करते रहते हैं, जैसे प्राय: कृष्ण-द्वेषी लोग कृष्ण के चरित्र पर उँगली उठाया करते हैं। न्यूनताबोध का यह चक्र केवल व्यक्तिगत जीवन तक सीमित नहीं है बल्कि इसमें जीवन और जगत का तमाम विस्तार भी समाया हुआ है। कवि को लगता है कि हम आज एक ऐसे संवेदनशून्य युग में जी रहे हैं जहाँ सब कुछ होते हुए भी कहीं कुछ तो ज़रूर कम है;  और वह है संवेदना जो लगातार घटती जा रही है। कवि को अफसोस है कि सभ्यता की तथाकथित दौड़ में बहुत आगे निकलते हुए मनुष्य ने बहुत कुछ खो दिया है और एक ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जहाँ संवेदनाओं की चिड़िया को कठोरता के बाज़ लील रहे हैं। कवि की राय में यह सारा का सारा विकास इसलिए विनाश का पर्याय बनता जा रहा है क्योंकि हमें संहार,  घोटालों और आतंक की चटपटी खबरें देखने की बुरी लत पड़ गई है।  इस विकृति की हद तक संवेदनशून्य हो चुके दौर में कवि उदास है और पूछता है कि 'क्या इसका हल आपके पास है?'  इसका उत्तर शायद किसी हद तक कविता के पास हो। लेकिन कवि को मालूम है कि किसी सियासी साहित्यकार के पास तो यह हल हो नहीं सकता,  क्योंकि सियासी साहित्यकार न तो उन महिलाओं के दर्द को लिखने का साहस कर सकता है जो निरंतर अत्याचार झेले हैं, न देश के  बँटवारे का ज़िक़्र कर सकता है, न उस क़त्ले-आम का चित्रण कर सकता है जिसमें अनगिनत बच्चे रातों-रात अनाथ बना दिए गए, न उन छद्म जननायकों और जनसेवकों के मुखौटे ही उतार सकता है जो यह मानते हैं कि भेदभाव के मसले अगर हल हो गए तो वे क्या करेंगे! प्रकारांतर से कवि अनिल कुमार इस और इशारा करते हैं कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से लेकर अब तक यद्यपि हमने बहुत प्रगति की है, बहुत विकास किया है, बहुत कुछ पाया है, लेकिन अभी भी कहीं तो कुछ कम है। यह कमी शायद सियासी पार्टियों की इस मानसिकता पर चोट करके पूरी की जा सकती है कि 'प्रेम करना ही है तो खुद से करो/ अपने परिवार से करो/ देश से भी कोई प्रेम होता है!'  कवि बड़े सहज भाव से उन कथित महापुरुषों की भी खबर लेता है जिनके कारण स्वतंत्रता के समर में कहीं कुछ कम रह गया और 'फांसी पर लटका दिए गए/ देश से प्रेम करने वाले/ और उनके पक्ष में/ उनको माफ करने की सिफारिश में / किसी तथाकथित ने न तो कोशिश की/ और न किसी को करने दी!'  कहना न होगा कि कवि अनिल कुमार शर्मा की रचनाएँ निज से पर तक व्याप्त  इन तमाम अभावों को पहचानने और उनकी पूर्ति के लिए अपनी रचनात्मक ऊर्जा को समर्पित करने के साक्ष्य की कविताएँ हैं। 


लोकतंत्र और मानवाधिकार


कवि अनिल कुमार शर्मा अपने समय के सभी सवालों और सरोकारों का सामना और निर्वाह अपनी कविताओं में बखूबी करते हैं। एक बड़ी विशेषता है कि वे हर तरह की नारेबाजी और बड़बोलेपन से परहेज करते हैं और अपनी बातों को, प्रतिक्रियाओं को बिना आवेश और उत्तेजना के व्यक्त करने में विश्वास रखते हैं। अपने इस खास लहजे में वे बहुत बार गहरी सामाजिक और राजनीतिक टिप्पणियाँ सहज प्रवाह की तरह कर जाते हैं। रामराज्य को लेकर उनकी टिप्तत्ववेत्ता की तरह सलाह देते हैं कि हमें तथ्यों को निर्मल दृष्टि से परख कर देखना चाहिए और सत्य को अपनी अंतर्दृष्टि प्रदान करनी चाहिए। वे अपने समशील रचनाधर्मियों से यह अपेक्षा रखते हैं कि वे इतिहास और वर्तमान के बीच घालमेल न करें, 'अन्यथा/ इतिहास में वर्तमान व्यवस्था को भी तुम/ रामराज्य ही लिख जाओगे/ वह रामराज्य  जो तुमने कभी देखा ही नहीं/  जिसमें निर्दोष पत्नी का परित्याग किया गया/ और रामराज्य के सभासद चुप रहे/ आज की तरह उसे समय भी राजा के निर्णय के/ विरुद्ध बोलने वाले/ राष्ट्रद्रोही कहे जा सकते थे।' स्पष्ट है कि यहाँ एक ओर तो कवि का स्त्रीपक्षीय विमर्श सामने आया है, लेकिन दूसरी ओर इन पंक्तियों में गहरा समकालीन राजनीतिक विमर्श भी बड़ी कुशलता से पिरोया गया है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर राज्य द्वारा लगाए जाने वाले अंकुश ही नहीं, विरोधी विचार रखने पर राष्ट्रद्रोह के मुकदमे चलाए जाने की प्रवृत्ति पर गहरी चोट की गई है। इस तरह रामराज्य के मिथकीय महावृत्तांत का विखंडन करके उसे तानाशाही का पर्याय बताना कवि की मानवाधिकार चेतना का व्यंजक तो है ही, वर्तमान व्यवस्था के प्रति असंतोष का भी प्रतीक है। 


भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त होने पर बड़े उल्लास के साथ लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाया था और यह कामना की थी कि एक ऐसा सर्व कल्याणकारी राज्य स्थापित होगा जो सचमुच रामराज्य होगा। लेकिन यह सपना बहुत जल्दी खंडित हो गया और भारतीय जनता ने अपने आप को छला हुआ महसूस किया। छलने वाले वे लोग थे जिन्हें जनता ने अपना पूरा विश्वास देकर इस रामराज्य के सपने को साकार करने के लिए चुना था और सर्वजन के योग और क्षेम के वहन का दायित्व सौंपा था। इस प्रवंचना को कवि ने सीधे-सीधे इस तरह शब्दबद्ध किया है 'शंकित हूँ/ आज मैं/ उस आदमी के बदले हुए रुख से/ भयभीत हूँ उसकी नजरों से/ जिसे चुना था मैंने/ अपना अमूल्य 'मत' देकर।'  यहाँ बिना लिखे ही कवि ने लिख दिया है कि उसकी निगाह में भारत में लोकतंत्र विफल रहा है। लेकिन इसे कहने के लिए उसने किसी प्रकार के आक्रोश और आक्रमण की मुद्रा नहीं अपनाई है। कहना ही होगा कि कवि की ये अभिव्यक्तियाँ बड़ी हद तक साक्षी भाव की अभिव्यक्तियाँ हैं। अब वह उनके प्रति निर्लिप्त है और एक हद तक अनासक्त भी। यही कारण है कि राजनीतिक किस्म की कविताओं में भी अनिल कुमार शर्मा का अंदाज़ बड़ी हद तक ठंडेपन से आवृत प्रतीत होता है। लेकिन इसका यह अर्थ न समझा जाए कि कवि की राजनीतिक चेतना में किसी प्रकार का झोल है। उसकी जनपक्षधरता एकदम स्पष्ट है जिसे व्यक्त करने के लिए वह अपने चारों ओर से ही कोई रोचक प्रसंग या सुलभ प्रतीक उठाता है। जैसे, लोक में आम को फलों का राजा कहा जाता है, माना जाता है। लेकिन कवि इसे आप्त कथन की तरह स्वीकार करने के लिए तत्पर नहीं है। उसके लिए आम साधारण का वाचक है। राजा विशिष्ट का। जो साधारण है वह विशिष्ट हो नहीं सकता; और जो विशिष्ट बन गया वह साधारण रह नहीं सकता। आम है तो राजा होगा नहीं। राजा हुआ तो आम रहेगा नहीं। इस लिहाज से आज राजगद्दी पा चुके कल तक आम रहे जनप्रतिनिधियों के चरित्र के दोगलेपन पर कवि का कटाक्ष बहुत गहरा है, 'राजा कोई आम व्यक्ति नहीं होता/  तो फिर उसे आम कहना/ गुस्ताखी नहीं तो और क्या है/… राजा आम तो नहीं हो सकता/ हाँ! यह तो संभव है कि आम राजा बन जाए/ लेकिन एक बार राजा बन कर वह आम हो जाए/ ऐसा हो नहीं सकता।' संकेत स्पष्ट है कि सत्ता पा लेने पर जनप्रतिनिधि जनता का नहीं राजन्य वर्ग का हितैषी बन जाता है। 


भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था की विडंबनाओं पर टिप्पणी करने के लिए कवि ने प्राय: बेहद परिचित और साधारण प्रतीकों को चुनकर उनमें विशिष्ट अर्थ भरने में संप्रेषण का विशेष कौशल दिखाया है। काले रंग के माध्यम से की गई यह टिप्पणी सचमुच मार्मिक बन  पड़ी है कि  'संसद में बहुत सावधानी से बोलिए/ कहीं ऐसा न हो कि कोई मुझे आपके मुँह पर पोत दे।' कहीं न कहीं यह वक्तव्य जनप्रतिनिधियों के साथ-साथ जनता को भी संबोधित है। जहाँ जनप्रतिनिधियों को कवि सचेत करता है कि संसद में भाषिक मर्यादा का पालन करें, अन्यथा जनता भी मर्यादाहीन हो सकती है।  वहीं दूसरी ओर जनता से भी प्रकारांतर से यह कह रहा है कि संसद में अमर्यादित आचरण करने वाले जनप्रतिनिधियों को अब उसे और अधिक बर्दाश्त नहीं करना चाहिए तथा उनकी निशानदेही करके उन्हें दंडित करना चाहिए। लोकतंत्र में किसी नेता को दंडित करने का सहज मार्ग यही है न कि उसे आगे समर्थन न दिया जाए? लेकिन विडंबना यह है कि जनता अपने प्रतिनिधियों को इस प्रकार दंडित करने के अधिकार का प्रयोग करने के बजाय बार-बार उन्हीं को चुनौती है और अमर्यादित आचरण का कलंक हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली के माथे पर लगता है। असली अपराधी तो दूध के धुले बने रहते हैं। यह स्थिति किसी भी संवेदनशील नागरिक की तरह कवि के मन को भी कचोटती है और वह कामना करता है कि कोई तो आगे आए और इन बेशर्मों के चेहरे पर काला रंग पोत दे।


प्रेम


प्रेम कविता का शाश्वत विषय है। लेकिन हम एक ऐसे विडंबनापूर्ण समय में जी रहे हैं जहाँ प्रेम पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध लागू हैं। शायद यह केवल हमारे समय का ही द्वंद्व नहीं है। बल्कि प्रेम के समक्ष सदा ही तरह-तरह की चुनौतियाँ रही हैं। कहने को प्रेम व्यक्तित्व की पूर्णता और मुक्ति का प्रतीक है। लेकिन समाज इस पूर्णता और मुक्ति के मार्ग में खलनायक बनकर खड़ा दिखाई देता है। प्रेमीजन समाज की बनाई दीवारों को तोड़ने और खाइयो को पटाने के लिए सदा से प्रयासरत रहे हैं।  लेकिन समाज नई-नई दीवारें खड़ी करने और खाइयाँ खोदने में लगा ही रहता है। कथात्मक शिल्प में बुनी गई कविता में कवि ने इस संकट की ओर मार्मिक ढंग से इशारा किया है,  'अब/ जब यह पत्र मेरे हाथ में आया है/ मैं धर्म संकट में हूँ/  मुझे और थोड़ा समय दो/ कहीं ऐसा न हो/ कोई खाप की पंचायत/ सुना दे एक तानाशाही फरमान।'  कहना न होगा कि यह कविता एक सुंदर प्रेम कविता तो है ही, एक सटीक व्यंग्य भी है जाति व्यवस्था से ग्रस्त रूढ़िवादी समाज पर। इन रूढ़ियों के बावजूद लोग प्रेम करते हैं और प्रेम जीते हैं। इसीलिए दुनिया में मनुष्यता बाकी है, कविता बाकी है और बाकी हैं सपने। तभी तो अनिल की कविता की मुग्धा स्त्री यह भोला प्रश्न कर पाती है कि 'क्या/ मैं भी तुम्हारे ख्वाब में आती हूँ जैसे तुम आते हो?' कवि अनिल सपनो के पर अगले जन्मों और अगली पीढ़ियों के लिए प्रेम-बेल बोना चाहते हैं, यह जानते-बुझते कि 'प्रेम करना शायद आसान हो सकता है/ वैसे इतना आसान भी नहीं/ लेकिन प्रेम/ बोना बहुत कठिन प्रयत्न है/ बहुत सींचना होता है इसे/  देखभाल, रखवाली, धूप जाड़े पाले से बचाव, न जाने क्या क्या!'


रिश्ते और यादें


आज का समय बड़ी हद तक स्मृतिविहीन और जडविहीन होते जाने का समय है। कविता किसी न किसी तरह इन्हें बचा लेना चाहती है। अचरज नहीं कि कवि अनिल कुमार शर्मा बार बार अतीत को आवाज़ लगाते हैं, सिमटती जा रही पारिवारिक संवेदनाओं को सींचते हैं, ग्राम जीवन और लोक संस्कृति को पोसते हैं, मूल्य विघटन को देख कर कलपते हैं और घर-परिवार पर बाज़ार के आक्रमण से दुखी होते हैं। वे गाँव और प्रकृति को वापस पाना चाहते है क्योंकि ऐसा करके ही नैसर्गिकता और आत्मीयता को बचाया जा सकता है। यही कारण है कि उन्हें चिड़िया और दादी के समय से जागने और मेहनत करके खाने में बिंब-प्रतिबिंब संबंध दिखाई देता है। पितृत्व में जीवन की पूर्णता नज़र आती है। वे याद दिलाते हैं कि एक समय था जब घर सभी रिश्तों को मजबूती से पकड़कर दिन-रात खड़े रहते थे। उन घरों के आँगन दिल में बने होते थे जबकि आज की शहराती ज़िंदगी में दिलों के वैसे उदात्त रिश्ते गायब हो गए है। इन घरों में जगह तो बहुत है लेकिन रिश्तों की मजबूती का कंक्रीट नहीं है। जहाँ ये रिश्ते हैं वहाँ आज भी एक दूसरे के लिए सर्वस्व वरन का जज़्बा बाकी है, भले ही गरीबी में पूछे गए भूख के कठिन सवालों के जवाब में किसी अंगूरी को सकुचाकर डबडबाई आँखें फेर लेनी पड़ती हों। ऐसी ही स्थिति में तो हँसिया अधिक से अधिक गेहूँ काटने के लिए व्यग्र हो उठता है। ज़्यादा से ज़्यादा काटने को बेचैन यह हँसिया कवि की दमित क्रांति कामना का भी प्रतीक है। कवि ने महसूस किया है कि शहर और बाजार की ओर बेतहाशा दौड़ में पीछे छूट गए गाँव और परिवार के साथ ही प्रायः रिश्ते-नातों की नैसर्गिक ऊर्जा और सहज निश्छलता भी कहीं बिला जाती है। तब जाकर समझ में आता है कि सब कुछ पाने में बहुत कुछ छूट गया। कहीं कुछ बढ़ गया तो कहीं कुछ कम हो गया - 'क्या नहीं था वहाँ/ बस बनावट ही तो नहीं थी/ जो शहर में है!


प्रश्न और सुभाषित


अनिल की कई कविताएँ बड़ी हद तक एक विविध प्रकार के जीवनानुभवों से संपन्न व्यक्ति के मन में ऊभ-चुभ करते रहने वाले प्रश्नों की उपज हैं। यह प्रश्नाकुलता बहुत सारी कविताओं में सीधे-सीधे प्रश्नवाचक संरचना के रूप में मुखर होती है और पाठक को सोचने के लिए विवश करती है। जैसे कवि का प्रश्न है, 'किसको जीत लेना है? किसके लिए जीत लेना है? दिखावे के लिए? आत्म संतुष्टि के लिए? या कुछ और हासिल कर लेने के लिए?'  कहना न होगा कि विजय प्राप्त करने की जो अदम्य इच्छा मनुष्य को अपने दैनिक जीवन के तमाम घात-प्रतिघातों के बीच सक्रिय रहने के लिए प्रेरित करती है, वही जब घनीभूत हो जाती है तो विस्तार की ऐसी महत्वाकांक्षा को जन्म देती है जिससे युद्ध, षड्यंत्र, विनाशलीला,  परतंत्रता और दासता के कुटिल और कुत्सित वृत्तांत रचे जाते हैं। हद तो यह है कि जीत की यही इच्छा अनेक बार किसी विजिगीषु व्यक्ति या जाति के भीतर दूसरे व्यक्तियों या जातियों को अपना बौद्धिक उपनिवेश तक बनाने के लिए प्रेरित करती है। विजय कामना के चिंतन से निकला कवि का प्रश्न अंततः एक सूक्ति के रूप में इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि 'जीत के लिए योग्यता नहीं/ चाहिए हथकंडे।' प्रश्न से आरंभ करके निष्कर्ष तक पहुँचने वाली इस तार्किक रचना प्रक्रिया को कवि अनिल ने अनेक कविताओं में अपनाया है और इस बहाने बहुत सी सूक्तियाँ गढ़ने में सफलता पाई है। जैसे 'कि रेखाएँ होती नहीं हैं/ बनाई जा सकती हैं/ अपनी मेहनत से, सतत परिश्रम से/ ईमान से, ज़मीर से/ संयम से, धैर्य से।'  ऐसे अवसरों पर कई बार यह जरूर लगता है कि कवि ने उपदेशक का बाना ओढ़ लिया है और कवित्व तार्किकता का शिकार हो गया है। सूक्ति उपलब्ध करने के लिए काव्य का इतना बलिदान सह्य कहा जा सकता है। लेकिन ध्यान रखा जाना चाहिए कि सतह पर तैरता विचार कविता का शत्रु होता है। विचार को कविता में ढालना रचना-प्रक्रिया की एक बड़ी चुनौती है और 'कहीं कुछ कम है' के कवि ने उसका भली प्रकार सामना करते हुए अपने ये सुभाषित रचे हैं।


अन्यत्र कवि का यह प्रश्न बहुत स्वाभाविक है कि पेट भर खाकर भी पेट भर संतुष्टि नहीं होती, आखिर क्यों? या छुवन से पहले का अहसास छुवन के बाद नहीं रहता, ऐसा क्यों?  बात यहीं तक नहीं रुकती बल्कि प्रेमास्पद को प्राप्त कर लेने पर प्रेम के उथले हो जाने की आशंका के रूप में आगे बढ़ती जाती है। और तब प्राप्त होता है निष्कर्ष के रूप में यह सुभाषित कि 'क्या प्रेम परिपक्व हो गया है/ जिस्म की नदी के उथले किनारों से हटकर/  गहरा उतर गया है/ रूह के चिदानंद सागर की थाह लेने/  उस मोती की चाह में/ जिसे विशुद्ध प्रेम कहते हैं/ हाँ,  प्रेम विजय पा चुका है अपनी भूख पर/ प्यास पर।' यहाँ फिर लेखक का प्रेम विषयक वही जीवन दर्शन उभरता है जिसका मूल मंत्र यह है कि दैहिक अनुभवों के पार प्रेम का एक ऐसा आध्यात्मिक लोक है जहाँ देह पीछे छूट जाती है!


कुछ कविताएँ तो ऐसी भी हैं जो विचार को सीधे-सीधे सूक्ति में ढालती प्रतीत होती हैं। ऐसे अवसरों पर किसी मार्मिक दृष्टांत, सादृश्य विधान, लोक संदर्भ या मुहावरे का प्रयोग उक्ति को काव्यात्मक सौंदर्य से अभिमंडित कर देता है। घर की चर्चा करते हुए वैचारिकता के बोझ को कवि ने इसी तकनीक के सहारे हल्का किया है। यथा, 'अक़्ल की बात परिपक्व होने पर समझ आती है/ जैसे वृक्ष पर समय से पहले फल नहीं आते/… जैसे परिंदों को नहीं रहती शाम के खाने की चिंता/ मैं क्यों न सीख सका यह सीख उनसे/…  रघुनंदन फूले न समाएँ लगुन आई हरे हरे/ उस मधुर शब्द लहरी को याद कर तबीयत आज भी हरी हो जाती है/…  क्या मैं कभी/ इस घर के कृतित्व व मोह के सुखद भार से/  मुक्त हो सकता हूँ?'


समांतरता और विपथन


अपनी कविताओं में शैलीगत चमत्कार उत्पन्न करने के लिए अनिल कुमार शर्मा अनेक स्थलों पर बहुत सहज ढंग से समांतरता और विपथन जैसे शैलीय उपकरणों का प्रभावी तथा सफल प्रयोग करते दिखाई देते हैं।  जब वे तरह-तरह की शिकायतों को सूचीबद्ध कर रहे होते हैं तो केवल एक कुछ आंकड़े भर संचित नहीं कर रहे होते हैं; बल्कि एक ओर तो घरौंदों, वृक्षों, पर्वतों, रस्मों, खेलों, दिहाड़ी और व्यवस्था को तथा दूसरी और परिंदों, हवाओं, नदियों, महिलाओं, बच्चों, मजदूरों और सैनिकों को अलग अलग  सहयोगी समांतरता में रखकर दोनों समूहों को एक दूसरे के विरोध में प्रस्तुत करके अर्थस्तरीय द्वंद्वात्मक समांतरता भीउपस्थित करते हैं। खास बात यह है कि इन सारे द्वंद्वों और शिकायतों के परिणाम में जहाँ मुस्कुराने से लेकर खुलकर हँसने तक की प्रतिक्रिया व्यक्त की गई है, वहीं इससे आगे के अंश में जब शिकायत का संबंध आदमी और आदमी से जुड़ता है तो प्रतिक्रिया एकदम विपरीत होती है और पाठक कविता के इस विपथित अंत से चमत्कृत ही नहीं होता, विचलित भी हो उठता है,  'अब/ आदमी को लेकर आदमी ने शिकायत की है/ आदमी कहे जाने वाले/ आदमी से/ तो वह धर्म संकट में है/  हँस नहीं पा रहा है!'


कवि और कविता


कवि अनिल कुमार शर्मा को भली प्रकार यह भी मालूम है कि कवि और कविता की भूमिका में भी कहीं तो कुछ 'कम' ज़रूर है। इस 'कम' को वे एक मंचीय चुटकुले से बुनी गई कथात्मकता के सहारे बखूबी व्यंजित करते हैं। विडंबना ही तो है कि एक ओर कवि को मनीषी, परिभू, स्वयंभू और प्रजापति कहा गया है तथा दूसरी ओर कवि होना समाज में व्यापक उपहास, तिरस्कार और व्यंग्य का विषय बन गया है। इसके लिए निश्चय ही कुकुरमुत्तों की तरह फैलने वाली वह तथाकथित कवि नस्ल जिम्मेदार है जिसने अपनी कुकविता से कवि और विदूषक के बीच के अंतर को ही मेट दिया है। ऐसे किंकवियों को लक्षित करके कवि अनिल कुमार शर्मा एक कवि के मच्छर के रूप में पुनर्जन्म की मनोरंजक कल्पना करते हैं। वह मच्छर जिसे भी काटता है वही लिखने लग जाता है। इस संक्रामक रोग के फैलने से घर-घर कवि पैदा हो जाते हैं और लोग ऐसे आत्ममुग्ध कवियों के पुनर्जन्म पर उन्हें मारने के लिए तालियाँ बजाने लगते हैं। कहना न होगा कि इन आत्ममुग्ध रचनाकारों ने समकालीन कविता का बेड़ा ग़र्क़ किया है। वरना सही कविता तालियों की अभिलाषी नहीं होती, बल्कि अपने श्रोता के मानस में हौले से पैठकर उसकी संवेदनशीलता जगा कर उस भावनात्मक समृद्धि प्रदान करती है। अन्यथा तो सरस्वती के समक्ष भी सिर धुनकर पछताने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। 


कविता में गीति तत्व और स्वच्छंदता के द्वंद्व को भी कवि अनिल ने बखूबी समझा और समझाया है। उनकी पीड़ा यह भी है कि 'लड़की की स्वच्छंदता पसंद नहीं जैसे समाज को/ ऐसे ही मेरी कविता की स्वच्छंद बात/  छंद के समाज द्वारा दुत्कारी गई।' लेकिन संतोष यह है कि साहित्य के पाठकों ने उसे स्वीकारा। कवि की निगाह में गीत और स्वच्छंद कविता का रिश्ता भाई-बहन जैसा है और उसे बदला नहीं जा सकता। तमाम तरह के वर्गीकरणों के बावजूद साहित्य तो साहित्य ही है - अखंड और अविभाज्य। इन वर्गों और नामों से ज़्यादा ज़रूरी और महत्वपूर्ण है कवि की दृष्टि, अंतर्दृष्टि और विश्वदृष्टि 'जो पहुँच रखती है उस अंतर्मन के स्याह कूप तक/ जहाँ रवि की पहुँच नहीं/ जो चित्र बना सकती है शब्दों से उसका/ जिसको देखा नहीं।' कहना न होगा कि 'कहीं कुछ कम है'  की कविताएँ इसी व्यापक और सूक्ष्मवेधी दृष्टि की सारस्वत साधना की निष्पत्तियाँ हैं। 000



  • ऋषभदेव शर्मा, पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद। आवास : 208 ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स, गणेश नगर, रामंतापुर, हैदराबाद- 500013/ मो. 8074742572.



मंगलवार, 3 अक्टूबर 2023

(अभिनंदन आलेख) हिरनी-सी भटकती फिरूँ, नाभि में कस्तूरी!



भाषा, साहित्य, संस्कृति और समाज की सेवा में तन-मन-धन से समर्पित डॉ. अहिल्या मिश्र (ज. 1948) के अमृतोत्सव के अवसर पर यह हार्दिक शुभकामना कि वे शतायु हों; दिव्य आयु प्राप्त करें।

यों तो अहिल्या जी के लेखन से मैं काफ़ी पहले से परिचित था, लेकिन 1995 में जब मेरा स्थानांतरण चेन्नई से हैदराबाद हुआ तो उनसे प्रत्यक्ष परिचय का अवसर मिला। डॉ. रोहिताश्व, स्वाधीन और पुरुषोत्तम प्रशांत इस परिचय के माध्यम बने। इन त्रिदेवों ने ही मुझे कादंबिनी क्लब (हैदराबाद) के मासिक कार्यक्रमों में शिरकत के लिए प्रेरित किया। यह जानकर अच्छा लगा कि इस संस्था की गोष्ठी हर हाल में हर महीने तीसरे इतवार को एक ही स्थान पर एक ही समय हुआ करती थी। गोष्ठियों की विषयवस्तु से अधिक उनके पारिवारिक स्वरूप ने मुझे विशेष आकर्षित किया। शहर भर के हिंदी कवि-कवयित्री इन गोष्ठियों में जिस आत्मीय भाव से तब जुड़ते थे, उसी से आज भी जुड़ते हैं। सबका डॉ. अहिल्या मिश्र के साथ घरेलू रिश्ता है। मुझे भी साल, दो साल परखने के बाद उन्होंने भाई बना लिया। मैं भाग्यशाली हूँ कि अहिल्या जी जैसी बड़ी बहन हैदराबाद में मेरी अभिभावक हैं, संरक्षक हैं। जब वे स्नेह से ‘इन्हें’ भाभी कह कर पुकारती हैं और ममता से गले मिलती हैं, तो ‘ये’ भी गद्गद हो उठती हैं। ऐसा निश्छल और अहैतुक वात्सल्य आज की दुनिया में भला सबको कहाँ नसीब होता है? लेकिन कादंबिनी क्लब (हैदराबाद) परिवार के सब सदस्यों को अहिल्या जी से समभाव से यह वात्सल्य मिलता है। वे सहज वत्सलता का अवतार हैं।

मैंने देखा है, कई बार ऐसा हुआ कि किसी ने अहिल्या जी के इस वत्सल भाव पर आघात किया, तो वे छटपटा कर वेदना और आक्रोश से भर उठीं। उन्हें छली और प्रपंची लोग क़तई पसंद नहीं है। कुछ लोग ऐसी स्थितियों में चुपचाप किनारे हो जाते हैं, लेकिन अहिल्या जी ऐसे लोगों को तब तक खदेड़ती हैं जब तक वे अपने बिलों में न घुस जाएँ। एक ख़ास तरह की ज़मींदारना दबंगई भी उनके व्यक्तित्व का हिस्सा है - लेकिन सकारात्मक। दरअसल, वे सहज प्रेम पर प्रहार उसी तरह बरदाश्त नहीं कर पातीं, जिस तरह आदिकवि वाल्मीकि क्रौंच पक्षी पर बहेलिये के हमले को बर्दाश्त नहीं कर पाए थे। इसीलिए वे जब कहीं कुछ अघटनीय घटित होते देखती हैं, तो उनके भीतर का यह आदिकवि विचलित हो उठता है। यही वजह है कि वे केवल काग़ज़ रंगते रहने वाले निष्क्रिय बुद्धिजीवियों की जमात में शामिल नहीं हैं। बल्कि आज 75 वर्ष की अवस्था में भी, ख़ासतौर से स्त्रियों और बच्चों के लिए, कर्मरत रहने वाली सक्रिय कार्यकर्ता हैं। प्रश्न भाषा का हो या साहित्य का, स्त्रियों का हो या संस्कृति का, वे उससे सीधे टकराती हैं। उनके व्यक्तित्व के ये दोनों आयाम - वात्सल्य और जुझारूपन - उनके समग्र साहित्य की आधार भित्ति का निर्माण करते हैं।

अहिल्या जी ने खूब लिखा है, लगातार लिखा है और सार्थक लिखा है। कविता हो या कहानी, नाटक हो या निबंध, संस्मरण हो या आत्मकथा- वे वाग्जाल नहीं फैलातीं। वे अत्यंत प्रभावशाली वक्ता भी हैं, लेकिन वहाँ भी उतनी ही बे-लाग-लपेट दिखती हैं, जितनी अपने लेखन में हैं। उन्होंने अपने लेखन में व्यापक सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय सरोकारों को हमेशा सीमित व्यक्तिगत सरोकारों पर तरजीह दी है। उन्हें अपनी कविताओं में भारतवर्ष के सभी क्षेत्रों में बसने वालों की एकात्मता के लिए प्रार्थना करते, गौरवशाली इतिहास को बार-बार दोहराते और जागरण, बलिदान, परिवर्तन व नवनिर्माण के गीत गाते देखा जा सकता है। अहिल्या जी की पक्षधरता में किसी भ्रांति की गुंजाइश नहीं है। वे हमेशा बच्चों, स्त्रियों, दलितों, युवकों और वंचितों के पक्ष में तथा वर्चस्ववादियों और शोषकों के ख़िलाफ़ चुनौती की मुद्रा में खड़ी दिखाई देती हैं:

ज़ुल्म के मुखौटों से गीत तो न बना सकोगे,
किंतु फिर भी मेरे गीत तुम न छीन सकोगे।

इसका अर्थ यह बिलकुल नहीं है कि डॉ. अहिल्या मिश्र के साहित्य सरोकार में कोमल भावनाओं के लिए जगह नहीं है। इसके विपरीत सच तो यह है कि कर्मशिला से बनी हुई इस अडिग मूरत के भीतर मसृण भावुकता का मधुर स्रोत हिलोरें मारता है। ख़ुद मैंने कभी उनकी कविताओं में यह लक्षित किया था कि: "वे प्रिय से प्रिय शब्दों के स्पर्श द्वारा प्राण में गंगाजली भरने की मनुहार करती हैं, मन में सावन के घन जैसी आशा और शरच्चंद्रिका जैसे स्वच्छंद विश्वास की कामना करती हैं, संगदिल सनम की स्मृति में दिलों पर ख़ार की मेहरबानी और मादक प्याला पिलाने वाले साक़ी के कदमों के निशान को अंकित करती हैं और साथ ही अपने भावनात्मक अकेलेपन को रूपायित करते हुए कहती हैं - किससे करूँ गिला, कि कोई हमनशीं न मिला!"

अभिप्राय यह कि अहिल्या मिश्र का समग्र साहित्य उनके अफाट जीवनराग की निष्पत्ति है। यही वजह है कि बहुत बार हमें उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में कबीर और मीरा की अनुगूँजे एक साथ सुनाई पड़ती हैं:

देहरी से अँगना की दूरी की मजबूरी
हिरनी-सी भटकती फिरूँ
नाभि में कस्तूरी!

इसी क्रम में अगर डॉ. अहिल्या मिश्र के कथाकार रूप का भी अवलोकन किया जाए, तो लगेगा कि जो चीज़ें उनकी कविताओं में बीज या संकेत के रूप में उपस्थित हैं, कहानी सहित अपने सारे गद्य लेखन में वे उन्हें बाक़ायदा पल्लवित, पोषित और संप्रेषित करने में पूर्ण सफल रही हैं। इस लिहाज़ से उनकी कहानियाँ अधिक प्रभावशाली बन पड़ी हैं। एक कहानीकार के रूप में वे हिंदी कहानी के समसामयिक परिदृश्य से बड़ी हद तक असंतुष्ट हैं और चाहती हैं कि कहानियाँ सामाजिक विघटन, राष्ट्रीय विखंडन, वर्ण, वर्ग, जाति, धर्म व संप्रदाय के नाम पर चलने वाले युद्धों तथा स्त्रियों और वंचितों के मानवाधिकार हनन जैसे सवालों पर खुल कर बोले, ताकि साहित्य के मूलधर्म की क्षति न हो। वे मानती हैं कि साहित्य को लोकमंगल का पक्ष लेते हुए मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए समर्पित होना चाहिए। यही वजह है कि उनकी ज़्यादातर कहानियाँ यथार्थ पर आधारित होते हुए भी आदर्श की दिशा में इंगित करती हैं।

डॉ. अहिल्या मिश्र की जड़ें मिथिला में हैं और उनके साहित्यिक व्यक्तित्व का कल्पवृक्ष हैदराबाद की आबोहवा में लहलहाया है। इसलिए उनकी कहानियों में बहुत बार शहरी मूल्यों के प्रति असंतोष और मैथिल संस्कृति के प्रति प्रेम झलकता-छलकता दिखाई देता है। बचपन की स्मृतियाँ प्रौढ़ावस्था के अनुभवों से टकराती हैं, तो लेखिका अनेक सामाजिक मान्यताओं और आचारों का निर्मम मूल्यांकन करने में व्यस्त हो जाती हैं। उन्होंने अपने आसपास के परिवेश को उसके सारे अमृत और विष के साथ इस तरह गटक रखा है कि कहानियों के देशकाल, विषयवस्तु और पात्रों में उसकी प्रामाणिकता सहज साकार हो उठती है।

… कहने को बहुत कुछ है। लेकिन फ़िलहाल इतना ही। ...

पुनश्च...
'देखें शत शरदों की शोभा,
जियें सुखी सौ वर्ष!'
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