… नित प्रति धोक हमारा हो!
ऋषभदेव शर्मा
"पंच परमेष्ठी, गुरुवर शि. प्र. सिंह, आ. ह. प्र. द्विवेदी एवं अन्य सभी मेरे नमनीय अथ च प्रिय बने, सभी का स्मरण व नमन कर लिया है।
-दास कबीर जतन ते ओढ़ी, जस की तस धर दीनी चदरिया- लेकिन मेरी चादर बहुत मैली है- इसमें मेरा दोष नहीं, फिर भी रखनी है ही। निराशा नहीं है- आशा है। यह तो लिख दिया है; चूँकि भविष्य समय के हाथ है। वरमेको गुणी पुत्रो न च मूर्ख शतान्यपि- सो मेरे पास है। मैं पूर्ण संतुष्ट हूँ।
स हि गगनविहारी ज्योतिषां मध्यचारी।
दशशतकरधारी कल्मषध्वंसकारी।।
विधुरपि विधियोगात् ग्रस्यते राहुणासौ।
लिखितमपि ललाटे प्रोज्झितं कः समर्थः।।
देवराज! ऋषभ!
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित्दुःख भाग भवेत् ।।
(आशा है, स्वस्थ होगे।)
सन्तानवत् शिष्य-शिष्याएँ एवं सन्तान प्रगतिपथ पर बढ़ें! भवितव्यता बलवती होती है। भ्रातृज-परिवार श्रेष्ठ है। मनोनुकूल है। हिमांशु, श्रद्धा साहस से काम लेना है। आशीष!
प्रिय गजेन्द्र-हेम-शिशु; प्रिय पूनम एवं अन्य सभी-सभी आगन्तुकों-शुभेच्छुओ को बहुत-बहुत आभार।
दिनांक 23 सितम्बर, 2001:
2 बजकर 6 मिनट।"
(डॉ. प्रेमचंद्र जैन, हम तो कबहुँ न निज घर आये: 2007, पृष्ठ 54)
… अर्थात, पूज्य गुरुदेव डॉक्टर प्रेमचंद्र जैन को ओपन हार्ट बायपास सर्जरी के लिए जाते समय अपनी आत्मज संतानों के साथ ही अपने शिष्यों का भी पूरा पूरा खयाल था। सर्जरी सफल रही। गुरुदेव स्वस्थ होकर घर आए। पूरे दो दशक उसके बाद वे प्रत्यक्ष रूप से हमें आशीर्वाद देते रहे। लेकिन एक दैनिक समाचार पत्र के हाशिये पर, नर्स से लिए बॉलपेन से अंकित, इस ऑपरेशन से पूर्व का उनका यह बयान उनके हृदय की विशालता का ही प्रतीक नहीं, हमारे (खास तौर से मेरे!) प्रति उनके अहेतुक स्नेह का घोषणापत्र भी है। ठीक है कि उन्होंने उस क्षण में डॉक्टर देवराज को याद किया। देवराज और पीसी जैन एक जमाने में पर्याय की तरह जाने जाते थे न! लेकिन मुझ अकिंचन का स्मरण क्यों किया होगा, यह समझने में मैं असमर्थ हूँ। मैं तो प्रायः उन्हें बस दूर- दूर से देखते रहने वाला चकोर भर था! प्रोफेसर देवराज अगर यह पुस्तक (हम तो कबहुँ न निज घर आये, 2007, रुड़की: सिद्धांताचार्य पंडित फूलचंद्र शास्त्री फाउंडेशन) मुझे न भेजते और भाई दानिश जी ने कुछ लिखने को बार-बार न कहा होता, तो शायद इस प्रसंग से में अनजान ही रह जाता। गुरुदेव ने इस कथन को इस पुस्तक में 'मृत्यु-पूर्व सही होश-ओ-हवास में दिए गए लिखित बयान' के रूप में उद्धृत किया है। इसके पुनरवलोकन को उन्होंने 'आत्म-परीक्षण करने का सुअवसर' माना है। इससे उन्हें 'संस्कारों को शाणित करने का भरपूर सुयोग' मिला और वे जीवन और मृत्यु के द्वंद्व से ऊपर उठ सके। आयु के अंतिम दो दशक उनके भीतर दिव्य आभा के प्राकट्य के वर्ष थे। इस अवधि में वे सचमुच 'प्रेम' का सर्वसुखकर 'चंद्र' बन गए थे। राहु भी अब उन्हें नहीं ग्रस सकता था- विधुरपि विधियोगात् ग्रस्यते राहुणासौ! 'हम तो कबहुँ न निज घर आए' इसी आत्म-परीक्षण और दिव्यता के अवतरण का साक्ष्य है। इस कृति के बहाने संत वाणी के निरंतर चिंतन-मनन-कीर्तन से वे समस्त कषायों और कल्मषों से मुक्त हो गए। यह कृति उनके पवित्र और निष्कलुष हृदय की वाणी है। बालपने से ही अपने अत्यंत प्रिय कविवर दौलतराम जी की रचनाओं के सहारे इस कृति में उन्होंने अपनी अध्यात्म यात्रा में भी पाठकों को शामिल होने का शुभ अवसर दिया है। ऐसी गहन अनुभूतिप्रवण रचना पर कुछ कहने-लिखने की अपनी अपात्रता से मैं परिचित हूँ, इसीलिए टाल रहा था। लेकिन अग्रजों के आदेश का पालन न करूँ तो अपराध होगा, इसलिए ये कुछ शब्द …!
कहूँ तो ज़्यादती नहीं होगी कि इस पुस्तक के हर पन्ने से गुरुदेव झाँक रहे हैं और हर शब्द में सीधे हमसे बतिया रहे हैं। उन्हें 'निज घर' न पहुँच पाने की कवि दौलतराम की पश्चात्ताप-जनित छटपटाहट और मर्मांतक वेदना अपनी वेदना महसूस होती है। यही वेदना अंततः उन्हें वेदना से मुक्ति के उस आकाश तक ले गई, जहाँ मुक्त आत्माओं का 'निज घर' है। अंतर्वेदना के समान धरातल को पाने के लिए वे बार-बार अतीत में गोता लगाते हैं और संतवाणी का कोई ऐसा सुथरा मोती खोज लाते हैं जिसकी आब में परमतत्व के चिन्मय आलोक की मृदु-मधुर अनुभूति मिलती है। यह ऐसी भाव दशा है जब साधक 'भवसागर के मिथ्या दुःखों-सुखों को छोड़कर सच्चे सुख को भक्ति के माध्यम से प्राप्त करने का लक्ष्य' साध लेता है। अपनी इस उपलब्धि को इस कृति के माध्यम से वे हम सबको (लोक को) सौंप गए हैं।
तीर्थंकरों, संतों और भक्त कवियों के हवाले से इस कृति में लेखक ने 'निज घर' तक पहुँचने की राह में महाठगनी माया से बचने और पिंड छुड़ाने का सीधा सा तरीका गब्बर सिंह के स्टाइल में बताया है- 'जो सम्यग् रत्न त्रय के दुर्गम पथ पर निडर होकर बढ़ गया, वह तर गया।' (वरना तो, जो डर गया, समझो, मर गया!) दर्शन-ज्ञान-चरित्र के इस सम्यग् मार्ग का प्रतिपादन करते हुए लेखके ने सर्वत्र स्वानुभव पर ज़ोर दिया है और गतानुगतिकता से बचने की सलाह दी है। वे मानते हैं कि किसी विशेष तापमान की अग्नि में तपने के बाद स्वर्ण कुंदन बनता है, तो किसी विशेष दबाव के कारण कोयला हीरा बन जाता है। इसी तरह अध्यात्म के शिखर पर अवस्थित 'निज घर' तक आने के लिए 'पर घर' तो छोड़ना ही पड़ेगा। तप-साधना-आराधना के बिना आत्म-कल्याण संभव नहीं। यहीं डॉ. प्रेमचंद्र जैन यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि 'निज घर' की तलाश में निकलने वाले को पाखंडों के पचड़े से भी बचना होगा। वे बताते हैं, "जैन दर्शन के वैज्ञानिक दृष्टिकोण में मेरी आस्था है। पाखंड, द्वेष, मतवाद, जाति-वर्णवाद के पचड़ों में मेरा विश्वास नहीं है।… निर्ग्रंथ गुरु एवं देव-शास्त्र मेरे उपास्य हैं। अनेकांतवाद का दृष्टिकोण शिरोधार्य है।" यही कारण है कि दौलतराम के काव्य-स्फटिक में उन्हें मानव संस्कृति की तमाम उदात्त छवियाँ अलौकिक नृत्य करती दिखाई देती हैं। कोई आग्रह-पूर्वाग्रह-दुराग्रह नहीं। ज़ोर है तो बस अनुभव पर- "जीवन में अनुभव इसलिए भी सार तत्व हैं, क्योंकि इन्हीं से स्वयं आत्मा से आत्मा की पहचान और उसी आत्मा में परमात्म-तत्व की व्याप्ति दिखाई देती है।" तभी तो किसी कबीर को वह सबसे न्यारा निज घर मिलता है जहाँ 'पूरन पुरुष हमारा' निवास करता है! गुरुदेव अपने पाठकों को उस घर का बोध कराना चाहते हैं- 'जहँ नहिं सुख-दुख साँच-झूठ नहिं, पाप न पुन्न पसारा!'
'निज घर' न आने का सीधा सा कारण है, 'पर घर' में भरम जाना, रम जाना। इसी का नाम आत्म-विस्मृति है। लेखक ने कई रोचक दृष्टांत देकर जीव के स्मृति-लोप के इस रोग की पहचान कराई है। पहचान होगी, तभी तो इलाज किया जा सकेगा। रोग बड़ा गहरा है। तन या मन नहीं, आत्मा का। "संसार का यही खेल है। जीव को आत्म-जागीर प्राप्त हुई है। वह सांसारिक बंधनों के कारण मोह-नींद से नहीं जाग पाता। उसकी सारी की सारी आत्म-जागीर आत्म-विस्मृति रूपी बकरी चट कर जाती है। विषय-वासनाओं के रूप में बकरियों का दल अपने पीछे दौड़ता रहता है। हमारी मोह-नींद नहीं टूटती। आत्म-विस्मृति के कारण ही यह जीव अनादिकाल से भटक रहा है।" जीव अगर यमराज के भयावह नगाड़ों की गर्जना सुन ले, तो संसार की असारता और अपनी भ्रम-नींद का बोध हो जाए। बुद्ध और सिद्ध बनने की राह इसी बोध से जाती है। लेखक कविवर दौलतराम की आवाज़ में अपनी आवाज़ मिलाकर चेताते हैं-
जम के रव बाजते, सुभैरव अति गाजते।
अनेक प्रान त्यागते, सुनै कहा न भाई।।
'बोध' प्राप्त होने पर 'बुद्धिमान' (धी-धारी)जीव संसार की नश्वरता और मोहजाल में न फँसकर मोक्ष-मार्ग के राही बन जाते हैं। पेंच यहीं तो फँसा है। किसी के चेताने से कहीं बोध होता है? नहीं। वह तो खुद के जागने से संभव है। इसीलिए पांडित्य का अर्थ बोध नहीं है। वह तो बोझ भर है। पंडित सकल शास्त्र की व्याख्या भले कर लें, अगर नहीं जानते कि देह में ही बुद्ध का वास है, तो आवागमन के चक्र से मुक्त नहीं हो सकते। निर्वाण के लिए पांडित्य नहीं, वह बोध ज़रूरी है जो कर्म-निर्जरा का आधार बन सके। यह तब तक संभव नहीं, जब तक जीव 'पर घर' को 'निज घर' 'माने बैठा' है। कवि दौलतराम का यह अमर गीत अगर एक बार भी 'अनुभव' में आ जाए, तो यह 'मान' बैठने की जड़ता टूट सकती है-
"हम तो कबहुँ न निज घर आये।
पर घर फिरत बहुत दिन बीते, नाम अनेक धराये।।
पर पद निज पद मानि मगन ह्वै, पर परनति लपटाये।
शुद्ध बुद्ध सुख कंद मनोहर, चेतन भाव न भाये।।
.......
यह बहु भूल भई हमरी फिर, कहा काज पछताये।
'दौल' तजौ अजहुँ विषयन को, सतगुरु वचन सुहाये।।
हम तो कबहुँ न निज घर आये।"
गुरुदेव जैन-दर्शन की बारीकियों की सरल व्याख्या करने के बाद दौलत-वाणी का मर्म समझाते हैं - दूसरों के घरों में घूमते-घूमते हमने अनंत काल बिता दिया। वहाँ-वहाँ न जाने कैसे-कैसे नाम रखे गए। हम अपने घर कभी नहीं आए। अध्यात्मपरक भाव यह है कि कवि निरंतर आत्मा में पछताता है और व्यग्र होता है कि यह भूल क्यों हो गई कि मैं अपने स्वरूप को न पहचानने के कारण अनादि काल से ही भटकता फिर रहा हूँ। फिर भी आत्म- परिणति प्राप्त नहीं कर सका। पर-परिणतियों में ही घूमते हुए न जाने कितने भव व्यतीत हो गए, फिर भी निज घर नहीं आया! साथ ही यह बोध भी कि इसी भूल ने हमारा विनाश किया है। अब यह समझ में आने के बाद पछताते हुए हाथ पर हाथ रखे बैठने से भी क्या लाभ? जितनी वेदना झेलनी थी, कहीं उससे अधिक पापड़ बेल चुके। हम अपने सतगुरु के उपदेश पर विश्वास करते हुए आज भी विषयों को त्याग कर सांसारिक आसक्ति-मोह आदि पर-पदार्थों से दूर हो लें, तो कोई कारण नहीं कि हमारी इस भूल में सुधार न हो। हमें निराश होने का कोई कारण नहीं है। लेकिन जागना तो हमीं को पड़ेगा। किसी और के जागे हमारी मुक्ति न होगी। यहाँ आकर डॉ. प्रेमचंद जैन कविवर दौलतराम को गोस्वामी तुलसीदास की वाणी में इस तरह पहचानते हैं- अब लौं नसानी, अब न नसैहौं।/ राम-कृपा भव-निशा सिरानी, उर-कर तैं न खसैंहौं।।
अंततः इतना ही कि इस आत्मबोध की सिद्धि और मृत्युभय पर विजय के बाद उपलब्ध 'ऋषित्व' का प्रसाद है गुरुदेव की यह कृति- 'हम तो कबहुँ न निज घर आये'। उन्होंने स्वानुभूति से, आत्मानुभव से 'निज घर' को भली प्रकार चीन्ह लिया था। एक बार पहचान हो गई, तो 'धी-धारी' इस जगत में न 'राचता' है, न 'नाचता' है। वह आत्मा-राम ही तो अनासक्त भाव से कर्म-निर्जरा और जीवन्मुक्ति को उपलब्ध हो पाता है! यह ग्रंथ गुरुदेव के जीते-जी 'निज घर' आने की 'साखी' है। कविवर दौलतराम के शब्दों में-
'दौलत' ऐसे जैन जतिन को,
नित प्रति धोक (नमन) हमारा हो! 000
ऋषभदेव शर्मा
208-ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स, गणेश नगर, रामंतापुर, हैदराबाद- 500013. मो. 8074742572. rishabhadeosharma@yahoo.com
इतिहास हुआ एक अध्यापक/ संपादक- दानिश सैफ़ी/ अविचल प्रकाशन, ऊँचा पुल हल्द्वानी-263139/ 2022/ कुल पृष्ठ 414 / द्रष्टव्य पृ.143-147. |