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सोमवार, 27 जुलाई 2020

(रामायण संदर्शन_संपादकीय)।।साधु ते होय न कारज हानी।।

संपादकीय
।।साधु ते होय न कारज हानी।।

लोक में विभीषण के प्रति भले ही थोड़ा-बहुत हिकारत का भाव दिखाई देता हो और उन्हें लंका ढहाने वाला घर का भेदी समझा जाता हो, तुलसी के लिए वे परम राम-भक्त और साधु हैं। सोचने वाली बात यह है कि आप राम और रावण में से किसे वरेण्य मानते हैं। रावण विभीषण का भाई है और अधर्म का पर्याय भी। विभीषण भ्रातृ-धर्म निभाते हुए उसे अधर्म से विरत करने का यथाशक्ति प्रयत्न करते हैं। पर असफल होते हैं। तो क्या उन्हें रावण के साथ ही खड़े रहना चाहिए था? नहीं, तुलसी बाबा इस प्रश्न पर एकदम स्पष्ट हैं। उनकी तो घोषणा ही है कि जिसे राम-वैदेही से द्वेष हो, परम स्नेही हो तो भी उसे निस्संकोच त्याग देना चाहिए। राम से द्वेष किसी व्यक्ति से द्वेष नहीं है। वह तो धर्म से द्वेष है। राम साक्षात धर्म हैं न! साधु की पहचान ही है कि वह अधर्म और अनीति के साथ नहीं रह सकता। विभीषण को हनुमान राक्षस नहीं, साधु के रूप में पहचानते हैं - साधु ते होय न कारज हानी। विभीषण राम-काज की सिद्धि में माध्यम बनते हैं। भला सामने उपस्थित युद्ध के समय वे अधर्म के पक्ष में कैसे खड़े रह सकते थे। इसीलिए रावण द्वारा लात मार कर बाहर किए जाने पर वे राम की शरण में आ जाते हैं। खुलकर धर्म के साथ आ जाते हैं। स्वयं भगवान शिव यहाँ टिप्पणी करते हैं कि विभीषण जैसे साधु की अवज्ञा करने से उसी पल रावण का अमंगल सुनिश्चित हो गया; और उसके चाटुकारों की सभा आयुहीन हो गई। विभीषण ने अधर्म का समर्थन न करके धर्म अर्थात राम का वरण किया, इसीलिए वे परम भक्त हैं!
 -प्रधान संपादक