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गुरुवार, 2 मई 2019

(पुस्तक समीक्षा ) संपादकीयम्— भविष्य का आईना, वर्तमान की नज़र


संपादकीयम्— भविष्य का आईना, वर्तमान की नज़र

डा० ऋषभदेव शर्मा ने बहुत स्नेह के साथ अपनी ये पुस्तक लगभग एक महीने पहले भेंट की, लेकिन इसे पढ़ने का अवसर अब मिला। इन दिनों व्यस्तता बहुत रही लेकिन ऐसा नहीं कि इस बीच कुछ पढ़ा ही नहीं। कुछ मिठाई ऐसी होती है जिसे आप स्वाद ले कर खाना चाहते हैं, और यही वजह है कि डा० ऋषभदेव शर्मा की कोई रचना मैं जल्दबाजी में नहीं पढ़ता।
यदि इस किताब की बात करूँ तो सबसे पहले इसके मुख्य पृष्ठ पर अंकित मोर पंख ध्यान आकृष्ट करता है और बरबस ही पौराणिक काल के पाण्डुलिपियों की याद ताज़ा हो उठती है, जिसमें कलम की जगह मोर पंख का इस्तेमाल होता था। जैसा कि इस किताब की भूमिका में आदरणीय योगेन्द्रनाथ मिश्र ने लिखा है कि ‘सामान्यतः संपादकीय एक बार ही पढ़ा जाता है’, लेकिन संपादकीय यदि ऐसे विषयों पर लिखी गई हो जिसका दीर्घकालिक प्रभाव हो, तो फिर ऐसे लेख की उम्र एक दिन की नहीं हो सकती और यदि ये लेख ऐसी तटस्थता और निरपेक्षता से लिखे गए हों कि कलम की स्याही के किसी खास रंग में रंगे होने का भ्रम तक न हो तो फिर ये किसी पौराणिक पाण्डुलिपि की तरह ही संग्रहणीय हो उठती है।
ऋषभदेव शर्मा की विनम्रता और ख़ुद से पहले दूसरों की सुविधा का ख़्याल रखने की कला का लोहा उनके सभी जानने वाले मानते हैं, इस पुस्तक में भी उन्होंने पाठकों की सुविधा के लिए संपादकीय लेखों को आठ खंडों में संकलित किया है। हर लेख के बाद उन्होंने इसके प्रकाशन की तिथि भी दी है जिससे भविष्य में शोधार्थियों को इस लेख की पृष्ठभूमि समझने में सहूलियत होगी।
पहले खंड ‘स्त्री संदर्भ’ के पहले लेख में ही वे डेनिस मुक्केगे और नादिया मुराद को 2018 का नोबेल शांति पुरस्कार दिए जाने पर लेख लिखते हुए, इराक में जन्मी नादिया मुराद पर इस्लामिक स्टेट द्वारा किए गए ज़ुल्मों का विवरण देते हैं। 2014 में इस्लामिक स्टेट द्वारा नादिया के गाँव को घेर कर 600 (यज़ीदी) पुरुषों को मार डाला गया और सभी औरतों और बच्चियों को यौन दासी बना लिया गया। नादिया तब सिर्फ़ 15 साल की थी। औरतों को न मारे जाने पर जब वो लिखते हैं “औरतों को मारने के बजाय ‘भोगना’ अधिक पौरुषपूर्ण (!) होता है न।“ तो ये एक पंक्ति आपको देर तक रोक लेती है और बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है। यही एक अच्छे संपादकीय की पहचान है।
13 अक्तूबर 2018 को ‘मी टू’ विषय पर लिखते हुए जहां एक ओर वे महिलाओं के इस प्रयास की ये कहते हुए सराहना करते हैं कि “आज भी उन्हें अपने इस बोलने की बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है लेकिन फिर भी अब वे साहस (दुस्साहस?) पूर्वक बोलने लगी हैं और इससे बहुत से चमकीले चेहरों के आवरण उतरने के कारण कुछ न कुछ असहजता अवश्य महसूस की जा रही है।“ तो लगे हाथ वे महिलाओं को नसीहत देते हुए कहते हैं “स्त्री-देह को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करने वाली महिलाएं भी समाज में सदा रही हैं। उनकी भी पहचान की जानी चाहिए और ख़ुद को ‘लुभाने वाली वस्तु’ की तरह पेश करने की प्रवृति की भी निंदा की जानी चाहिए।“ और संपादकीय ज़िम्मेदारी का निर्वाह करते हुए लिखते हैं “स्त्री और पुरुष दोनों ही अगर एक दूसरे की किसी भी प्रकार की स्वाभाविक कमजोरी का शोषण करते हैं, तो इसे वांछनीय नहीं माना जा सकता।
मुस्लिम महिलाओं के तीन तलाक का मामला हो या महिलाओं के ख़तना जैसी कुप्रथा, ‘संपादकीयम’ बेबाकी से अपनी राय रखता है। धारा 497 पर डा० शर्मा न्यायालय के आदेश का समर्थन तो करते हैं लेकिन साथ ही ये कहते हुए आगाह करना नहीं भूलते कि ‘अनैतिक संबन्धों की इस वैधानिक स्वीकृति का परिणाम भारत की सामाजिक व्यवस्था के लिए घातक भी हो सकता है।‘ ऐसे मामलों में न्यायालय की सीमा रेखा को रेखांकित करते हुए लिखते हैं कि ‘भले ही न्यायपालिका ने व्यभिचार को वैधता प्रदान कर दी हो, किंतु उसे नैतिकता प्रदान करना उसके वश की बात नहीं।‘ वहीं शबरीमला में महिलाओं के प्रवेश के मामले पर वे पूरी तरह से न्यायालय के फैसले से साथ खड़े नज़र आते है और लिखते हैं “भक्तों पर प्रतिबंध लगाने वाली कोई भी प्रथा उनके आराध्य देव को जड़-रूढ़ियों का बंदी बनाने के समान है। देवता तो लोक का है, उसे लोक से दूर करना हर प्रकार से अनुचित है — लोकद्रोह है।
दूसरा खंड ‘लोकतन्त्र और राजनीति’ संभवतः भविष्य की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण हो क्योंकि इस खंड में 12 संपादकीय लेखों के माध्यम से डा० शर्मा आज के ज्वलंत मुद्दों पर अपनी राय रखते हैं। सुप्रीम कोर्ट द्वारा मुंबई में डांस बार को पुनः खोलने की अनुमति देने के बाद 21 जनवरी 2019 के अपने लेख में वे चुभते हुए व्यंग से इस घटना को आज की राजनीति से जोड़ते हैं। उन्होंने लिखा है “चुनावी राजनीति ने देश को डांस बार बना रखने में कोई कोर-कसर तो छोड़ी नहीं है। जिधर देखिए उधर ही डांस चल रहा है। प्रत्यक्ष में तो नेता जनता को रिझाने के लिए नाचते-कूदते दिखाई देते हैं। पर है ये नज़रों का फेर ही। असल में तो वे खुद अपनी धुन और ताल पर जनता को नचा रहे होते हैं। ग्राहक को लगता है कि बार-बाला नाच रही है लेकिन सच में तो वह अपने संकेतों पर ग्राहक को नचा रही होती है।“ इस घटना को सामान्य संपादकीय की तरह न लिख कर जिस तरह से उन्होंने इसे आज की राजनीति से जोड़ते हुए इस पर व्यंग किया है, इसे न सिर्फ पठनीय बनाता है अपितु राजनीति के गिरते स्तर को भी हमारे सामने ला खड़ा करता है। उन्होंने लिखा, सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि डांस बार में सीसीटीवी लगाने की अनिवार्यता नहीं है क्योंकि इससे ‘निजता’ का उल्लंघन होता है तो क्यों न नेताओं के करतूतों की भी रिकॉर्डिंग की इजाजत नहीं होनी चाहिए। बेचारे वोटरों को रिझाने के लिए न जाने क्या-क्या करते हैं और लोग इसे रेकॉर्ड कर उन पर बाद में हमला बोलते हैं। ये उनकी ‘निजता’ का हनन है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बार-बालाओं पर पैसे बरसाए नहीं जा सकते, हाँ उन्हें टिप दिया जा सकता है। नेताओं के लिए भी इसकी अनिवार्यता जताते हुए वो लिखते हैं जनता पर बरसाए पैसे का हिसाब रखने में दिक्कत होती है, तो बेहतर है कि सीधे-सीधे जनता के हाथ में टिप दिए जाएँ ताकि बाद में गला पकड़ने में सहूलियत हो। डांस बार के धार्मिक स्थानों से एक किलोमीटर की दूरी पर होने के नियम को भी सुप्रीम कोर्ट ने हटा दिया तो डा0 शर्मा ‘राजनीति के नचनियों’ के लिए भी ये सुविधा चाहते हैं जहां वे धार्मिक स्थानों और शिक्षण संस्थानों का अपने मतलब के लिए उपयोग कर सकें। वो लिखते हैं “चुनाव नृत्य में धर्म और शिक्षा की जुगलबंदी के बिना मजा ही कहाँ आता है। इसके बिना उन्माद नहीं जागता और उन्माद जगाए बिना चुनाव नृत्य पूरा नहीं हो सकता।“ लेख के अंत में वो लिखते हैं “खूब नाच-गाना हो, शराब बहें, उपहार लिए-दिए जाएँ, उन्माद की वर्षा हो, वशीकरण के लिए यह जरूरी है — बार में भी, और चुनाव में भी।
एक राजनीतिक विश्लेषक द्वारा लिखे गए लेख से राजनीति की जटिलताएँ समझने में शायद मदद मिले लेकिन जब डा0 शर्मा जैसे साहित्यकार इस विषय पर लिखते हैं तो इसकी पठनीयता कई गुणा बढ़ जाती है। 22 दलों के साथ आ कर महागठबंधन बनाने पर वो लिखते हैं “संकल्प के सहारे बड़े-बड़े लक्ष्य प्राप्त किए जाने की कहानियाँ मिलती हैं। पर यह तभी हो पाता है जब समस्याओं के ‘जाल’ में फंसे सारे ‘कबूतर’ एक ही दिशा में उड़ें। इसके लिए एक दिशा में ले जाने वाला ‘मुखिया कबूतर’ भी चाहिए होता है। प्रस्तावित महागठबंधन की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि ‘मुखिया कबूतर’ नदारद है।
रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा “समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध। जो तटस्थ हैं,समय लिखेगा उनका भी अपराध।“ डा० शर्मा ये अपराध नहीं करते। मुद्दा चाहे कश्मीर का हो, लद्दाख का, आरक्षण का या राजनीति के गिरते स्तर का, सभी विषयों पर डा० शर्मा न सिर्फ वस्तु-स्थिति को सरल भाषा में पाठकों के सामने रखते हैं बल्कि हर मुद्दे पर अपने विचार भी सामने रखते हैं। संपादकीय में अमूमन कविता देखने को नहीं मिलती लेकिन जब संपादकीय लिखने वाले ‘कवि’ ऋषभ देव शर्मा हों तो वे इस बंधन को अपने ऊपर हावी नहीं होने देते। जातिगत राजनीति का दर्द बयान करते हुए वो लिखते हैं
मानचित्र को चीरती, मज़हब की शमशीर
या तो इसको तोड़ दो, या टूटे तस्वीर।
मुहर-महोत्सव हो रहा, पाँच वर्ष के बाद
जाति पूछ कर बंट रही, लोकतन्त्र की खीर।
किसानों की समस्याओं पर आधारित तीसरे खंड में चार लेखों के माध्यम से उन्होंने ‘अन्नदाता से दिल्ली दूर क्यों?’ और ‘आत्महत्याओं का इलाज़ कर्जमाफ़ी नहीं’ जैसे सटीक शीर्षक से लेख लिखे हैं।
‘शहर में दावानल’ नाम से लिखे गए खंड चार में 6 लेखों का संकलन है जिसमें भीड़-तंत्र द्वारा कानून अपने हाथ में लिए जाने पर चिंता व्यक्त की गई है। ‘अब किसके पिता की बारी है?’ शीर्षक, हालात की भयावहता के बारे में सोचने को विवश करता है। इसी विषय पर ‘अब जिसे भी देखिए, उस पर गुलेले हैं।“ शीर्षक से लिखे लेख में उन्होंने अपनी कविता की पंक्तियों को रेखांकित किया है:
ईंट, ढेले, गोलियाँ, पत्थर, गुलेलें हैं
अब जिसे भी देखिए, उस पर गुलेलें हैं
क्या पाता क्या दंड दे, यह आज क़ातिल को
भीड़ पर तलवार हैं, खंजर गुलेलें हैं।
‘ऊपरवाला देख रहा है’ शीर्षक से भारत सरकार द्वारा पारित आदेश जिसमें 10 सरकारी एजेंसियों को अधिकार दिया गया है कि ये किसी भी नागरिक के फोन और कंप्यूटर की निगरानी बिना किसी अतिरिक्त आदेश के कर सकते हैं, पर लेख लिखते हुए उन्होंने लिखा है “इसमें दो राय नहीं कि किसी भी देश की सुरक्षा सर्वोपरि है और उसके समक्ष नागरिकों के व्यक्तिगत अधिकार गौण एवं स्थगित हो जाने चाहिए। लेकिन ऐसा केवल असामान्य स्थिति या आपात स्थिति में ही स्वीकार्य है। साधारण परिस्थितियों में भी यदि नागरिक को यह लगता है कि कोई एक आँख लगातार उसकी हर गतिविधि को ताक-झांक कर देख रही है, तो सरकार का यह अबाध अधिकार नागरिक के लोकतान्त्रिक अधिकार का अतिक्रमण है।“ सनद रहे कि ऐसा कहने वाले डा० शर्मा खुद इंटेलिजेंस ब्यूरो के लंबे समय तक अधिकारी रह चुके हैं।
अगले तीन खंड ‘व्यवस्था का सच’, ‘हमारी बेड़ियाँ’ और ‘अस्तित्व के सवाल’ हैं जिनमें कई समसामयिक विषय जैसे सड़कों की बदहाली, पानी की किल्लत, जातिगत समस्याएँ, बच्चों की सुरक्षा, बुढ़ापे की असुरक्षा और ग्लोबल वार्मिंग पर महत्वपूर्ण लेख संकलित हैं।
अंतिम खंड में उन्होंने ‘वैश्विक संदर्भ’ के नाम से 7 लेख रखे हैं। ये ऐसे विषय हैं जिनमें गंभीरता की आवश्यकता है और डा० शर्मा इनके साथ पूर्ण न्याय करते हैं। इस खंड में वो सिर्फ साहित्यकार न हो कर वैश्विक राजनीति के जानकार के तौर पर नज़र आते हैं और अपने लेखों में अमेरिका, चीन, फ्रांस, संयुक्त राष्ट्र, उत्तर कोरिया जैसे विषयों पर ऐसे लेख लिखे हैं जिनकी उपयोगिता आने वाले समय बढ़ती जाएगी।
महाभारत के युद्ध में जैसे कौरव और पांडव दो पक्ष थे लेकिन संजय ने इस युद्ध का हाल किसी एक पक्ष के तौर पर नहीं सुनाया। संजय ने वो सुनाया जो उन्होंने देखा और समझा। समाचार में भी हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। ‘संपादकीयम’ इन दोनों पक्षों को उजागर तो करता ही है, साथ ही संजय की तरह डा० शर्मा इसमें अपने विचार रखकर इन दो पक्षों में एक तीसरा आयाम जोड़ते हैं। इस पुस्तक के विषय ऐसे हैं जिन्हें वर्षों बाद भी इसलिए देखा जाएगा कि अमुक विषय पर डा० शर्मा के विचार क्या थे और क्या उनका आकलन सही निकला। इन मायने में ये पुस्तक निश्चय ही संग्रहणीय है। पुस्तक की बाइंडिंग और बेहतर हो सकती थी। एक बार आद्योपांत पढ़ने से ही यदि किताब से पन्ने, शरीर से आत्मा की तरह निकलने को मचलने लगे तो लंबे समय तक इसकी संग्रहणीयता मुश्किल हो जाएगी।
‘संपादकीयम’ पुस्तक का सही आकलन भविष्य में होगा जब डा० शर्मा के विभिन्न विषयों पर रखे विचार मूर्त रूप लेंगे। इस पुस्तक के लिए उन्हें मेरी बहुत बहुत शुभकामनाएँ इस उम्मीद के साथ कि ‘संपादकीयम’ सिर्फ एक पुस्तक न हो कर इस नाम से एक शृंखला होगी जिसमें ऐसे कई महत्वपूर्ण लेख संग्रहीत किए जाएंगे।