फ़ॉलोअर

गुरुवार, 4 अप्रैल 2019

(पुस्तक समीक्षा) ‘संपादकीयम्’ : वर्तमान का आईना


पुस्तक समीक्षा 

‘संपादकीयम्’ : 

वर्तमान का आईना 

- डॉ. चंदन कुमारी 

chandan82hindi@gmail.com 


‘संपादकीयम्’(2019) ऋषभदेव शर्मा के चुनिंदा संपादकीयों का संग्रह है। ये संपादकीय नियमित रूप से हैदराबाद के एक दैनिक अख़बार में प्रकाशित होते रहे हैं और यह क्रम अब भी जारी है। डॉ. योगेंद्रनाथ मिश्र (गुजरात) उनके शब्द चयन के कायल हैं तो रवि श्रीवास्तव (हैदराबाद) उनकी पक्षकारिता-मुक्त पत्रकारिता के। डॉ. रामनिवास साहू का मानना है कि यह सब लिखने के लिए साहस चाहिए। सत्ता और व्यवस्था को उसका वास्तविक चेहरा दिखाने के लिए साहस तो चाहिए। वर्तमान को उसका चेहरा दिखाने वाली इस पुस्तक में कुल आठ खंड है जो विविध समसामयिक विषयों पर केंद्रित है। प्रो. गोपाल शर्मा ने इसे ‘भव’ साधना माना है जो अनायास ही सध गई। 

पहला खंड ‘स्त्री संदर्भ’ है। इक्कीसवीं सदी में जब माना जा रहा है कि हर स्त्री सशक्त और सक्षम है – यह पुस्तक उस घोषित सच का आवरण हटाकर समाज में स्त्री की वास्तविक स्थिति दिखाती है। स्त्री समाज के लिए सामाजिक वातावरण की असहजता का हिसाब बताती है। आंकड़ों के हिसाब से लेखक ने बताया है कि ग्लोबल एक्सपर्ट सर्वे में यह पाया गया कि भारत महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश है। महिलाओं से गुलाम जैसा व्यवहार करने और यौन हिंसा में यह देश ‘नंबर वन’ है तथा स्त्री अधिकारों की हत्या करने में इसने अफगानिस्तान व सीरिया जैसे युद्धग्रस्त देशों को भी पीछे छोड़ दिया है। वैसे लेखक का मानना है कि इस रिपोर्ट में कुछ अतिरंजना भी हो सकती है। 

युद्ध और संघर्ष में यौन हिंसा की भुक्तभोगी नादिया जिसका संबंध यजीदी समुदाय से है, उस यौन दासी की आपबीती एक किताब ‘द लास्ट गर्ल : माइ स्टोरी ऑफ़ कैप्टिविटी एंड माइ फाइट अगेंस्ट द इस्लामिक स्टेट’ (2017) के रूप में सामने आई। खुद को उस नारकीय जीवन से मुक्त करने के बाद नादिया ने यौन हिंसा के खिलाफ जागरूकता अभियान चलाया। उनके इस अभियान के लिए उन्हें और यौन हिंसा की शिकार स्त्रियों की चिकित्सा के लिए समर्पित डेनिस मुक्वेगो (स्त्री रोग विशेषज्ञ, कांगो) को 2018 का नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया। संघर्षशील नादिया की जिजीविषा सबके लिए प्रेरणा है। जरा सी बात पर मायूसियत ओढ़ने की फितरत जीते जी अपनी कब्र खोदना है। हर फ़िक्र से दूर एक जूनून कुछ कर गुजरने का होना ही चाहिए। शबरीमला मंदिर में 10–50वर्ष की महिला के प्रवेश पर रोक को लेखक ने लोकद्रोह की संज्ञा देते हुए, इसे लोक और भक्त के अधिकार से जोड़ा है। इस प्रतिबन्ध को समाप्त करने के न्यायालय के फैसले का स्वागत किया है। स्त्री का वस्तुकरण रोकते हुए न्यायालय ने कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं जिनका जिक्र इस पुस्तक में है। भारतीय दंड संहिता की धारा 497 को असंवैधानिक मानते हुए ख़ारिज किया गया क्योंकि स्त्री की सहमति और असहमति से कोई सरोकार न रखनेवाली इस धारा में स्त्री को पुरुष की संपत्ति माना गया था। इसके साथ ही अब विवाहेतर संबंध या व्यभिचार को अपराध की श्रेणी से मुक्त कर दिया गया है। ‘एक साथ तीन तलाक’ दंडनीय अपराध माना गया है। साथ ही स्त्री-खतना प्रथा को खत्म किया गया है। 

कानूनन स्त्री की इच्छा को तवज्जो दिए के बावजूद देश में स्त्रियों के लिए भयमुक्त वातावरण नहीं बन पाया है और इस सच का भयावह चेहरा ‘मी टू’ के माध्यम से बहुत बार सामने आया। संयुक्त राष्ट्र के एक अध्ययन में यह स्पष्ट हुआ है कि स्त्री के लिए घर सबसे खतरनाक जगह है। न सिर्फ गाँव, घर और शहर बल्कि बड़े से बड़े सफेदपोश स्थल भी स्त्री-शोषक के किरदार में फिट बैठते हैं। भारत के राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार महिलाओं की कुल हत्या के मामले में 40 से 50 प्रतिशत तक दहेज़ हत्या के मामले होते हैं। इन तथ्यों का जिक्र करते हुए लेखक पुरुष वर्चस्व वाले समाज में पुरुष आयोग की सिफारिश को यह कहते हुए ख़ारिज करते हैं कि “पुरुष को किस उत्पीडन का भय? उत्पीड़न की स्थिति में न्यायालय तो है।” कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय में 30 छात्राओं की पिटाई का जो मामला सामने आया वह भी इसमें शामिल है। अश्लीलता का विरोध न करने की नसीहत विद्यालय में दी गई। उसे न मानते हुए जब छात्राओं ने अपने विवेक की सुनी और विरोध किया तो क्या पाया? उनकी दुर्गति करनेवालों में तीन महिलाओं का शामिल होना विडंबना ही तो है! सच को सच और झूठ को झूठ बताना गुनाह बन गया! ये अपनी दुनिया के सारे समीकरण कैसे उलट-पुलट हो रहे हैं! डर और दर्द से सबकी मुक्ति की दास्तान है ‘‘संपादकीयम्’’! 

‘लोकतंत्र और राजनीति’ दूसरा खंड है इसमें राजनीति की भाषा में बढती अशिष्टता, जाति और गोत्र की वेदी पर लोकतंत्र, मतदाता की उदासीनता का अर्थ, उपेक्षित लद्दाख का दर्द, रिश्ता वोट का शराब से, विरोध भी समर्थन भी -जैसे आलेखों में चुनावी मौसम का मिज़ाज मापते हुए लोकतंत्र और राजनीति की वास्तविक स्थिति को उघाड़ा गया है। 

तीसरा खंड ‘जो उपजाता अन्न’ किसान की दुर्दशा पर केंद्रित है। किसान की आत्म्हत्याओं का हल निकलना चाहिए। हमने आत्महत्या की, आपने कर्ज माफ़ कर दिया; बस हो गया। इस व्यवस्था/ तंत्र से किसान को ‘कर्ज की जरूरत की परिस्थिति’ से मुक्ति चाहिए । चौथे खंड ‘शहर में दावानल’ में ‘लोकतंत्र को कलंकित करता भीड़ न्याय’, ‘अब किसके पिता की बारी है’ जैसे आलेख हैं। 

पाँचवाँ खंड ‘व्यवस्था का सच’ में ‘इंतजाम की पोल खोलती पहली बारिश’, ‘ये मौत की सड़कें’ अपने काम के प्रति हमारी ईमानदारी पर प्रश्न चिह्न हैं। छठा खंड ‘हमारी बेड़ियाँ’ है। इस खंड में शामिल कुछ आलेख हैं - ‘प्रणय की हत्या प्रतिष्ठा के नाम पर’, ‘तुम्हारी जाति क्या है डॉक्टर’, ‘तो शब्दकोश में नहीं रहेगा दलित’, ‘आधुनिक गुलामी और हम’ इत्यादि। सभी आलेखों का इशारा उन बेड़ियों की तरफ है जिनमें हमने जबरन खुद को जकड़ कर अपनी जिन्दगी को जटिल बना रखा है। उन्मुक्त हवा में बोझिल मन से दुरूहता जीने की हमारी स्व-अर्जित बेबसी की ओर महज ध्यान खींचना लेखक का उद्देश्य नहीं रहा होगा। व्यवस्था बदलनी चाहिए और इसे जीने वाले ही इसे बदल सकते हैं। 

सातवाँ खंड ‘अस्तित्व के सवाल’ है। इसमें इंसान का ही नहीं, पर्यावरण का अस्तित्व भी शामिल है। ग्लोबल वार्मिंग से समुद्र का जल स्तर निरंतर बढ़ रहा है। यह तटीय इलाकों के लिए विशेष चिंताजनक है। पर्यावरण संरक्षण के साथ बच्चों की असुरक्षा, भुखमरी और असहाय बुढ़ापा से संबंधित आलेख भी इस खंड में हैं। ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट 2018 के अनुसार जिन 44 देशों को भूख के मामले में गंभीर स्थिति वाला माना गया है उनमें भारत भी एक है। भारत के झारखंड राज्य में 50% से अधिक परिवारों को जरूरत के मुताबिक खाना नहीं मिलता है। 4% लोग एक वक्त के अपर्याप्त खाने पर असंतोष करते हैं। 

अंतिम खंड ‘वैश्विक संदर्भ’ में दुर्गा पूजा में विदेशी रुचि का अर्थ समझाते हुए लेखक का मानना है, “धार्मिक-सांस्कृतिक मेलजोल का फायदा उठाकर वे भारतीयों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव बनाना चाहते हैं। सारी कवायद वाणिज्य के वास्ते है; संस्कृति तो बहाना है।” इसके अतिरिक्त युद्ध का विकल्प शांति, विश्व व्यापार संगठन नीति, आतंक बनाम सभ्य रिश्तों का पाखंड जैसे आलेख भी हैं जिनमें मानवीय सभ्यता और संस्कृति को वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखने-समझने की कोशिश नजर आती है। इंसानों ने धरती और समुद्र नाप लिया,अब आसमान नापने की तैयारी में व्यस्त हैं। अंतरिक्ष पर कब्जा ज़माने की मंशा को भांपते हुए लेखक के भीतर का तेवरीकार कहता है : 

“हिंसा की दूकान खोलकर, बैठे ऊँचे देश। 
आशंका से दबी हवाएँ, आतंकित परिवेश।। 
गर्म हवाओं के पंखों पर, लदा हुआ बारूद; 
खुसरो कैसे घर जाएगा, रैन हुई चहुँ देस।।” 

इस प्रकार यह पुस्तक एक ओर तो लेखक के व्यापक सरोकारों का पता देती है तथा दूसरी ओर किसी भी प्रकार की नारेबाजी और फतवेबाजी से परे रहकर पाठक को अपने समय और समाज से जुड़े सवालों से रूबरू कराते हुए उन पर सोचने के लिए विवश करती हैं। निष्कर्षत:, ढेर सारी विविधतापूर्ण और पौष्टिक बौद्धिक खुराक देने वाली यह पुस्तक ध्यान से पढ़ने और विचारने योग्य है। 

समीक्षित कृति : संपादकीयम् (लेख/ पत्रकारिता)/ लेखक- ऋषभदेव शर्मा/ आईएसबीएन: 97893-84068-790/ प्रकाशक- परिलेख, नजीबाबाद/ वितरक- श्रीसाहिती प्रकाशन, हैदराबाद : मोबाइल +91 98499 86346 


- डॉ. चंदन कुमारी 

(पुस्तक समीक्षा) ‘संपादकीयम्’ : शब्दहीन का बेमिसाल सफर



पुस्तक समीक्षा 

‘संपादकीयम्’ : 

शब्दहीन का बेमिसाल सफर 


समीक्षक : प्रो. गोपाल शर्मा 


‘संपादकीयम्’ पुस्तक में संकलित और ‘डेली हिंदी मिलाप’ में पूर्व प्रकाशित विभिन्न सामयिक विषयों पर डॉ. ऋषभदेव शर्मा द्वारा लिखे गए ‘संपादकीय’ हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में पदार्पण करने के इच्छुक और अनुभवी दोनों प्रकार के पत्रकारों के लिए समान रूप से पठनीय हैं, क्योंकि इनमें आदर्श संपादकीय के सभी गुण हैं। विषय-चयन और शीर्षक के चुनाव से लेकर वर्णन की सहज शैली से होते हुए उनके समापन संदर्भ तक लेखनी का गतिशील रहना पाठक को अनायास ही बाँधता चला जाता है। 

संपादकीय–शीर्षकों पर नजर दौड़ाते ही ठहर जाती है। कहीं प्रश्न हैं- अब किसके पिता की बारी है? कहीं विस्मययुक्त प्रश्न- सबका अन्नदाता हड़ताल पर है !? कहीं कविता के शिल्प में- जलाओ पटाखे पर रहे ध्यान इतना; और कहीं लोक और लोकवाणी सिंचित- ऊपरवाला देख रहा है! 

और फिर आता है- लीड वाक्य। संपादकीय वह उत्तम माना जाता है जिसमें पाठक को बेकार में ही वर्णन-विवरण की हवाई पट्टी पर न दौड़ना पड़े। उसकी उड़ान हैलीकॉप्टर सी बुलंद और उत्तुंग हो। इस निगाह से ये संपादकीय प्रिंट-मीडिया के पहले पाठ को आत्मसात करके लिखे गए लगते हैं। पहला वाक्य सब कुछ तो कहता ही है, और कुछ पढ़ने की ललक भी जगाता है। एक उदाहरण है - ‘मी टू अभियान के तहत मनोरंजन उद्योग, मीडिया, राजनीति, शिक्षा जगत और अध्यात्म की दुनिया तक से महिलाओं के यौन उत्पीड़न की घटनाओं के खुलासों से आम लोग सहमे हुए हैं।’ 

इसी प्रकार संपादकीय का समापन वाक्य चिंतन का समाहार उपसंहार की तरह करता है और पाठक को वांछित ‘फूड फॉर थॉट’ देता चलता है- ‘जब तक व्यवस्था की ओर से यह संदेश आपराधिक तत्वों तक नहीं जाएगा, तब तक वे भीड़ का मुखौटा लगाकर इसी तरह उपद्रव मचाते रहेंगे , हत्याएँ करते रहेंगे और हर बार किसी बेटे को यह पूछना ही पड़ेगा कि- अब किसके पिता की बारी है?’ 

लेखन में शब्दों की धार यूँ तो सहजता को निभाती चली है, किंतु मार्मिक स्थलों पर धार नुकीली भी हो जाती है – धनुष की टंकार हो जाती है। ‘समानता और पूजा-पद्धति के अधिकारों का टकराव’ और ‘परंपरा के नाम पर भेदभाव कब तक’ में लेखक धर्म और उपासना जैसे नाजुक मसलों पर क्षुब्ध होकर कहता है- “यदि प्रभु के राज्य में भी असमानता-पूर्ण नियम लागू हैं तो या तो वह राज्य प्रभु का नहीं (पुजारियों का है), या फिर वह नियम प्रभु का नहीं (दरबानों का है)।” 

अपने वक्तव्यों को धार देने के लिए और उपसंहार करने के लिए कई बार लेखक के मन में उकड़ू बैठने को मजबूर सा हो गया कवि तेवरी चढ़ाकर काव्य पंक्तियाँ उधार भी लेता है – वैभव की दीवानी दिल्ली – और कभी थोड़ा बदलकर – जलाओ पटाखे पर रहे ध्यान इतना – बोलता है; और कभी फिलहाली बयान करने के लिए कह उठता है- भीड़ पर तलवार हैं, खंजर गुलेले हैं। कल्लो क्या कल्लोगे ? है तो है। चुटकी ली जाए तो चुटकी लगे और चूँटी काटी जाए तो वही लगे। ऐसे अवसर भी रंदे पर घिसे गए, पर पेशे खिदमत रहे हैं- ‘खूब नाच-गाना हो, शराबे बहें, उपहार लिए-दिए जाएँ, उन्माद की वर्षा हो, वशीकरण के लिए यह जरूरी है । बार में भी, और चुनाव में भी।’ 

कहा जाता है कि अखबारी दुनिया से जुड़ने के बाद भाव, भाषा, भंगिमा और भूमिका को नए सिरे से साधना पड़ता है और लोगों को बहुत उठना-गिरना पड़ता है। वे और होंगे शोर-ए-तलातुम में खो जाने वाले! ‘संपादकीयम्’ में ‘कोरे कागद’ कारे भर नहीं किए गए हैं, बल्कि एक युगधर्म का पालन भी किया गया है। इसलिए ‘भव’ साधना संभव हुआ है। लगता है, यह खेल खेल में ही हो गया है; और जो हुआ वो ग्रेट है। तोप मुक़ाबिल हो तो अखबार निकालने के दिन अब नहीं रहे, पर तरवार की धार पर दौड़ने वाले दीवानों को कोई ‘रवि’ तभी प्रकाशित कर सकता है, जब कलम में कमाल हो और उसकी श्री वास्तव में हो! 

‘संपादकीयम्’ के इस पाठ को लिखने से किसी पत्रकारिता महाविद्यालय में फीस भरे बिना मुझे पहला पाठ मिल गया। इसका शुक्रगुजार होना बनता है। यह भी मेरा फर्ज़ बनता है कि नाई की ताईं आपको बुलावा दे दूँ, ‘परिलेख प्रकाशन, नजीबाबाद’ से प्रकाशित इस मोर-पंखी पुस्तक के साथ फ़र्स्ट डेट पर जरूर-बेजरूर जाना । दूसरी-तीसरी किताब की प्रतीक्षा न करना; वे पाइप-लाइन में हैं। 

समीक्षित कृति : संपादकीयम् (लेख/ पत्रकारिता)/ लेखक- ऋषभदेव शर्मा/ आईएसबीएन: 97893-84068-790/ प्रकाशक- परिलेख, नजीबाबाद/ वितरक- श्रीसाहिती प्रकाशन, हैदराबाद : मोबाइल +91 98499 86346 

- गोपाल शर्मा 
प्रोफेसर, अंग्रेजी विभाग, अरबा मींच विश्वविद्यालय, अरबा मींच, इथियोपिया