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बुधवार, 30 नवंबर 2016

तेलुगु ग्राम-जीवन की कहानियाँ

भूमिका 


भारत की विविध भाषाओँ में अनेक रचनाकार विविध विधाओं में साहित्य सृजन करते हुए इस महादेश की साझा सांस्कृतिक विरासत को सहेजते और अगली पीढ़ियों को हस्तांतरित करने का कार्य करते रहते हैं. इनमें से केवल कुछ को भाषा और साहित्य के गढ़ों और मठों का सान्निध्य मिल पाता है और उनके कार्य को व्यापक पहचान मिल जाती है. लेकिन अन्य बहुत सारे रचनाकार प्रकाशन-सरणियों से अपरिचित होने के कारण अपने छोटे से संप्रेषण-क्षेत्रों तक सीमित रहकर सेवा भाव से लिखते और संतुष्ट रहते हैं. सही अर्थ में ऐसे रचनाकार प्रायः लोकाश्रयी होते हैं और लोक के जीवन को लाग-लपेट के बिना अभिव्यक्त करते हैं. तेलुगु से हिंदी में अनूदित इस कथा-संग्रह के लेखक नरसिम्हा राजु और अनुवादक वेत्सा पांडुरंगा राव, दोनों ही, इसी कोटि के रचनाकार हैं. 

कहानीकार नरसिम्हा राजु इस समय 78 वर्ष के हैं. वे लंबे समय तक ओरिएंटल कॉलेज, एलुरु [आंध्र प्रदेश] के प्राचार्य पद पर आसीन रहे. अपने सेवाकाल में तथा सेवामुक्ति के उपरांत उन्होंने तेलुगु में कुछ कहानियों की रचना की. उनमें से छह कहानियों का हिंदी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है. अनुवादक वेत्सा पांडुरंगा राव यों तो 40 वर्ष एलुरु [आंध्र प्रदेश] में ग्रामीण सहकारी बैंक की सेवा में रहे, लेकिन दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के प्रमाणित प्रचारक और उनके एक संगठन ‘हिंदी प्रचार रुचिकर्म प्रमाणित प्रचारक’ के अध्यक्ष के रूप में निरंतर हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में भी लगे रहे. उनकी हिंदी-निष्ठा का इससे सहज अनुमान किया जा सकता है कि आज 79 वर्ष की आयु में भी उन्होंने अनथक श्रम करके यह अनुवाद तैयार किया है ताकि हिंदी के पाठक गढ़ों और मठों से दूर स्थित एक मौन साहित्य-साधक के रचनाकर्म से परिचित हो सकें.

नरसिम्हा राजु की ये तेलुगु कहानियाँ इस अर्थ में विशेष मानी जा सकती हैं कि इनमें प्रस्तुत तेलुगु लोक जीवन लेखक का जिया और भोगा हुआ, अतः पूर्णतः विश्वसनीय और प्रामाणिक, है. इनका रचनाकाल लगभग तीन दशकों तक फैला है और इन्हें इस कालावधि में आंध्र-जीवन में उपस्थित हुए बदलावों के संदर्भ में भी देखा जा सकता है. आंध्र लोक की सुंदरता और सहजता को अभिव्यंजित करने के साथ-साथ लेखक ने उसकी कुरूप होती शक्ल को भी उघाड़कर सामने रखा है. 

इन कहानियों का परिवेश अधिकतर ग्रामीण है. लेखक को गाँवों से प्यार है. उनका मन बार-बार गाँव की ओर जाना चाहता है. जाता भी है; लेकिन सब कुछ बदला-बदला देखकर अपने पूर्व-परिचित, अतीत के अथवा बचपन के गाँव को खोजने लगता है. यही कारण है कि ये कहानियाँ अनेक स्थलों पर पूर्वदीप्ति शैली और गर्भकथा सुनाने की तकनीक को अपनाती दिखाई देती हैं. लोक संस्कृति में ग्रामदेवता की आराधना, लोकगाथाओं, लोककथाओं, लोकगीतों और लोकशैलियों के जो प्रसंग इन कहानियों में गूँथे गए हैं, उनसे हिंदी पाठक तेलुगु लोक के बारे में जानकारी तो प्राप्त करता ही है, उसके मन में इस भाषा-समाज के विश्वासों और अनुष्ठानों के बारे में नई जिज्ञासाएँ भी करवटें बदलती हैं. यह चिता केवल तेलुगु समाज की ही नहीं है बल्कि पूरे देश की है कि मनुष्य और मनुष्य के बीच सहज संबंध टूट रहे हैं और व्यावसायिक तथा औपचारिक रिश्ते भर बचे रह गए हैं. लेखक ने ध्यान दिलाया है कि पारंपरिक समाज में धर्म और जाति की मर्यादाओं के बावजूद जाति-द्वेष नहीं था जबकि वर्तमान परिदृश्य इसके एकदम उलट है. 

इस संग्रह की कहानियों में आपको लेखक की मूल्य-चिंता बार-बार झकझोरेगी. ग्रामीण स्वभाव की निश्छलता, कर्म सिद्धांत में विश्वास, नगण्य व्यक्ति का बलिदान, तथाकथित भद्रजन की स्वार्थपरता और क्रूरता, ग्रामीण पंचायत का न्याय, गम होता हुआ बचपन, शिक्षा और परीक्षा तंत्र की हृदयहीनता, संवेदनशील व्यक्ति की सहृदयता, आंचलिक भूगोल और प्राकृतिक पर्यावरण, बाल मनोविज्ञान, ग्रामाधिकारी की निरंकुशता, बाढ़ की विनाशक विकरालता, निर्धन का स्वाभिमान, पौराणिक प्रसंग, लोभ जनित भष्टाचार और संयोग की संभावना इन कहानियों में कहीं आधिकारिक तो कहीं प्रासंगिक कथासूत्रों के रूप में विद्यमान हैं. 

सभी कहानियाँ रोचक और पठनीय बन पडी हैं. साथ ही, लोक शब्दावली, लोकोक्तियों और मुहावरों का समावेश इस पुस्तक की रोचकता और पठनीयता बढ़ाने में विशेष भूमिका निभाता है. अनुवादक ने नामों के अलावा भी तेलुगु के बहुत से सांस्कृतिक शब्दों को ज्यों का त्यों रखते हुए उनका अर्थ भी साथ में सूचित किया है. जैसे - मदुरु दीवार [ताड़ के पत्तों से बनी छप्परदार ऊँची दीवार, गाजुल मुसलय्या [कंगन बूढा], मुसलम्मा [बुढ़िया], गोल्लसुद्दलु [ग्वालों के लोकगीत], रागाल सत्ति [गानेवाला सत्ति], गुंडिगा [पीतल का बड़ा बरतन]. निश्चय ही, इससे हिंदी पाठक की शब्द-संपदा और समृद्ध होगी, तेलुगु-हिंदी-सेतु और सुदृढ़ होगा तथा हिंदी भारत की सामासिक संस्कृति के अनुरूप नए स्वरूप में ढल सकेगी.

पुस्तक के प्रकाशन के अवसर पर लेखक और अनुवादक को हार्दिक बधाई! 

30 नवंबर, 2016.                                                                                                      ऋषभदेव शर्मा 

[पूर्व आचार्य-अध्यक्ष,
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद]

आवास : 208 -ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स,
गणेश नगर, रामंतापुर, हैदराबाद - 500013.
मोबाइल : 08121435033 / 0807474257

बुधवार, 2 नवंबर 2016

[व्याख्यान] देश और उसकी भाषा


भाषा देश की चेतनाधारा को व्यक्त करती है : ऋषभदेव शर्मा

[मिश्र धातु निगम लिमिटेड में हिंदी दिवस पर मुख्य अतिथि का संबोधन]


http://bit.ly/2cCZLYU

मिश्र धातु निगम लिमिटेड कंचनबाग़ हैदराबाद के हिंदी पक्षोत्सव समारोह 2016 के समापन कार्यक्रम के अध्यक्ष आदरणीय डॉ. दिनेश कुमार लेखी जी (अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक), श्री पी. वी. राज (निदेशक : वित्त), श्री एस. के. झा साहब (निदेशक : उत्पादन एवं विपणन ), हिंदी सेल की देख-रेख करनेवाले आदरणीय श्री ओम बिहारी श्रीवास्तव जी (कर्नल ), प्रिय भाई डॉ. बी. बालाजी, इस समारोह में समुपस्थित समस्त अधिकारीगण, डी.ए.वी. के छात्रगण और उनके अध्यापक–अध्यापिकाएँ या अभिभावक जो भी यहाँ हों – आप सबको हिंदी दिवस के अवसर पर शुभकामनाएँ समर्पित करता हूँ। 

दुनिया भर में हम हिंदुस्तानी लोग उत्सवधर्मी देश के रूप में जाने जाते हैं। कुछ और करें न करें, मौका-बेमौका हम उत्सव ज़रूर मनाते रहते हैं। कई बार इस बात को लेकर मज़ाक किया जाता है लेकिन इसका संबंध इस देश की मानसिकता से है। इस देश की मानसिकता सकारात्मकता और आनंद से जुड़ी हुई है। हम अपनी ज़िम्मेदारियों को, अपने कर्तव्यों को, आनंद के साथ जोड़कर दायित्व को बोझ न मानकर खेल की तरह लीलाभाव से संपन्न करें! शायद हमारे पर्वोत्सवों के पीछे भी यह बात जुडी हुई है और जब हम हिंदी दिवस मनाते हैं, तब भी बार-बार यह बात रेखांकित करते चलते हैं कि यह केवल उत्सव मनाना नहीं है! यह केवल पर्व नहीं है! यह केवल पुरस्कार लेने-देने व इन्क्रीमेंट वगैरह प्राप्त करने का ही एक अवसर या माध्यम या कारण नहीँ है !बल्कि अपने आपको, इस देश का ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते, इस देश के संविधान द्वारा सौंपे गए एक दायित्व के प्रति समर्पित करने की भावना इस पर्व या उत्सव के साथ जुड़ीं हुई है। इस विषय में, माननीय रक्षामंत्री एवं गृहमंत्री के संदेशों के माध्यम से जो बातें कही गईं, मैं उन्हीं बातों को इस देश के एक साधारण नागरिक की तरह आपके समक्ष फिर से रेखांकित करता हूँ। साधारण नागरिक के तौर पर मैं यह बात इसलिए कह रहा हूँ कि इस सारे-के–सारे भाषा संबंधी आचरण का, या आचार का, प्रभाव जिस पर पड़ता है वह इस देश का ‘कॉमन मैन’ यानी ‘साधारण आदमी’ है। उस आम आदमी की हैसियतसे इस देश के हर दूरस्थ गाँव के हर किसान के प्रतिनिधि के रूप में मैं यहाँ खड़ा होकर आपसे यह बात कह रहा हूँ कि मुझे, इस देश के आम आदमी को, आप अपनी उपलब्धियों की जानकारी कृपया मेरी भाषा में दीजिए। आप बहुत काम कर रहे हैं ! देश के लिए काम कर रहे हैं, विश्व के लिए काम कर रहे हैं, मनुष्यता के लिए काम कर रहे हैं; पर मेरे देश का किसान आत्महत्या कर रहा है! कहीं कुछ दूरी है! जो विकास हो रहा है और जिस व्यक्ति तक यह विकास पहुँचना है – उसके बीच में कहीं दूरी है। यहाँ मैं अमर्त्य सेन की पुस्तक ‘डेवलपमेंट ऐज़ फ्रीडम’ का उल्लेख करना चाहूँगा। अपनी पुस्तक के माध्यम से उन्होंने एक बहुत अच्छी बात उठाई है – वह यह कि स्वतंत्रता सबके लिए समान अर्थ नहीँ रखती। व्यक्ति अपनी ‘कैपेबिलिटी’ के अनुसार स्वतंत्रता का उपभोग कर पाता है। मेरा ‘सामर्थ्य’ यदि कम है तो स्वतंत्रता मेरे लिए कुछ और अर्थ रखती है और मेरा ‘सामर्थ्य’ अगर अधिक है तो स्वतंत्रता मेरे लिए अधिक अर्थ रखती है। अविकसित को ध्यान में रखकर जो विकास की बातें की जाती हैं, वे वास्तव में सामर्थ्य बढ़ाने के लिए की जाती है, ताकि मेरे लिए स्वराज्य या स्वतंत्रता का वही अर्थ हो सके जो उनके लिए है जो सामर्थ्यवान हैं। 

मैं यहाँ महात्मा गांधी का नाम लेना चाहूँगा जो रक्षा मंत्री और गृह मंत्री के संदेशों में भी लिया गया है। आज से 98 वर्ष पूर्व सन 1918 में उन्होंने अपने संदेश में इस देश की राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को प्रस्तावित किया था। आगामी 2018 में उनके इस संदेश को पूरे 100 साल हो जाएँगे। उससे पहले तक कांग्रेस के सारे कामकाज अंग्रेज़ी में ही होते थे, लेकिन 1918 से वे हिंदी में होने शुरू हो गए। कारण कि गांधी जी चाहते थे कि हमारे आंदोलन की सारी गतिविधियों में पूरा देश भाग ले सके। इसके लिए उन्होंने दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा जैसी संस्था की स्थापना मद्रास में की थी। जब इस देश ने अपना संविधान बनाया और हिंदी संबंधी नीति का निर्धारण किया, तब भी महात्मा गांधी की इसी बात को ध्यान में रखा गया। यह अलग बात है कि किन्हीं दवाबों के तहत ‘राष्ट्रभाषा’ शब्द से बचा गया और ‘राजभाषा’ शब्द आ गया। मैं आज यह कह रहा हूँ – राष्ट्रभाषा और राजभाषा दोनों ही शब्दों की नारेबाज़ी को छोड़िए। मुझे इस राष्ट्र के नागरिक की भाषा दे दीजिए – वह चाहे हिंदी हो, चाहे तमिल – तेलुगु हो, चाहे बांग्ला हो, असमिया या मणिपुरी हो। मुझे मेरे देश की भाषा में- मेरी भाषा में संबोधित कीजिए। यह चुनौती हम सबके सामने है। उनके लिए भी यह चुनौती है जो आम आदमी के लाभार्थ काम कर रहे हैं। आप जानते ही हैं कि मिश्र धातु निगम लिमिटेड जैसी संस्थाएँ मूलतः उत्पादक संगठन हैं जिन्हें बाज़ार में खरा उतरना होता है। इस संदर्भ में मैं याद दिलाना चाहता हूँ कि आनेवाले समय में दुनिया में भाषाओं के सामने जो स्थितियाँ हैं, जो चुनौतियाँ हैं, उनमें ‘बाज़ार’ और ‘कंप्यूटर’ ही दो बड़ी चुनौतियाँ हैं। 

मैं आपसे यह नहीं कहने जा रहा हूँ कि हिंदी पूरी दुनिया में कैसे और कितनी फैली है, स्टेटिस्टिक्स लगाने वाले लोगों के लिए भले ही यह विवाद का विषय हो! ‘मंदारिन बोलने-समझने वाले लोग अधिक हैं कि हिंदी बोलने-समझने वाले लोग’ - विवाद तो इस पर भी होता है। परंतु यह तय है कि पहले और दूसरे स्थान पर यही दोनों भाषाएँ हैं। अंग्रेज़ी आदि भाषाएँ इसके बाद के स्थानों पर आती हैं। मैं आपको बताना चाहता हूँ कि दो वर्ष पहले मैं यहाँ आया था, पिछले वर्ष नहीं आ सका कारण कि चीनी विद्यार्थियों की कक्षा लेने हेतु मैं ‘महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा‘ गया था। सभी इस बात को जानते हैं कि वहाँ 11 या 12 या शायद इससे अधिक देशों के विद्यार्थी पढ़ने आते हैं। मेरी कक्षा में 15 या 16 चीनी विद्यार्थी थे। मैंने उनसे पूछा,” हमारे यहाँ अनेक भाषाएँ हैं और उनके नाम अलग-अलग हैं; क्या आपके यहाँ एक ही भाषा बोली जाती?” उन्होंने कहा, ”हम जो दो लड़कियाँ बराबर में बैठी हुई हैं अगर हम अपनी-अपनी मातृभाषा में बोलने लगें तो हम एक दूसरे की बात को नहीं समझ सकतीं, बावजूद इसके हम सभी मंदारिन भाषी हैं।” गड़बड़ यही है कि ‘हम सब’ ‘भारतीय भाषी’ नहीं हैं ! माफ़ करेंगे – जब गणित पढ़ते थे तब मास्टर जी ने बताया था कि स्टेटिस्टिक्स इज थ द साइंस ऑफ फ़ूल्स - आँकड़ों का खेल तो बेवकूफ बनाने का खेल है। फिर भी, इसे नकारा नहीं जा सकता कि संख्या-बल की दृष्टि से हमारे पास बहुत बड़ी शक्ति है। इस ग्लोबलाइज़्ड विश्व की उदारीकृत अर्थव्यवस्था में यह शक्ति, यह जनसंख्या एक बहुत बड़े ‘बाज़ार’ का सृजन करती है। इस बाज़ार में केवल हमें हिंदुस्तान की ही चीजें नहीं बेचनी हैं। हिंदुस्तान रूपी बाज़ार में दुनिया को अपनी तमाम चीजें बेचनी हैं। इसलिए आप परवाह करें या न करें, लेकिन विदेशों को इस बात की परवाह होने लगी है कि भारत को एक बाज़ार के रूप में संबोधित करना है तो भारत की भाषा में, और उसकी अपनी हिंदी में, संबोधित करना पड़ेगा। यहाँ मैं प्रसिद्ध मैनेजमेंट गुरु प्रह्लाद के सिद्धांत का उल्लेख करना चाहूँगा। उन्होंने कहा है कि भारत की जनता का जो पिरामिड है उसके उपरी हिस्से में इसकी क्रय शक्ति की दृष्टि से ‘सैचुरेशन आ चुका है, वह संतृप्त है अब; और आज का जो बाज़ार है वह इस पिरामिड के निचले हिस्से में है जिसे संबोधित करने के लिए हिंदी से अधिक कारगर भाषा कोई और नहीं है। इसका कारण भी आँकड़े हैं। इस देश के कम-से-कम 55% लोगों की मातृभाषा किसी-न-किसी रूप में हिंदी है चाहे आप उसे कोई बोली कहें - राजस्थानी कहें, खड़ीबोली कहें, ब्रजभाषा कहें या मैथिली कहें! क्षमा करें संविधान ने अब मैथिली को एक अलग भाषा का नाम दे दिया है और भी ऐसे नाम संविधान की आठवीं अनुसूची में जुड़ सकते हैं, तथापि ये सब हिंदी की भौगोलिक शैलियाँ ही हैं। इसके अलावा शेष क्षेत्रों का भी हिसाब लगाया जाय तो कम-से-कम 90% या उससे अधिक इस देश की जनता हिंदी समझती है। इसलिए हिंदी का विज्ञापन इस देश की जनता के सर्वाधिक प्रतिशत तक पहुँचता है। व्यापार-व्यावसाय एवं उसकी भाषा के लिए विज्ञापन तो केवल एक पक्ष है। पहला पक्ष उत्पादन (प्रोडकशन) का है और दूसरा पक्ष है विपणन (मार्केटिंग) का। इससे संबंधित जितनी भी संप्रेषण गतिविधियाँ हैं; जैसे किसी कारखाने में काम करने वाले कारगर से लेकर उसके प्रबंध-निदेशक तक के बीच का जो संवाद है और फिर इस संगठन या जहाँ भी कोई चीज उत्पादित हो रही है, उसका जनता से जो संवाद है – इस संवाद के लिए आज हमें हिंदी को अपनाने और समर्थ बनाने की ज़रूरत है। अगर हमने इसे समर्थ नहीं बनाया तो यह सारी स्वतंत्रता हमारी भाषा के लिए भी घातक हो सकती है। इसलिए बार-बार हिंदी के प्रयोग पर जोर दिया जा रहा है। हमें अपने उत्पादों से संबंधित साहित्य को भी मूलतः हिंदी में ही तैयार करना चाहिए, न कि मूलतः अंग्रेज़ी में तैयार करके उसका हिंदी अनुवाद करना चाहिए। ऐसा करने से भाषा में एक नकलीपन आ जाता है।

पिछली बार आदरणीय डॉ. लेखी का व्याख्यान मैंने सुना। उनकी भाषा संबंधी अनुभवजनित धारणाओं एवं खुले विचारों से मैं बहुत प्रभावित हूँ। इसलिए बहुत संकोच के साथ मैं ये सारी बातें कह रहा हूँ। डॉ. बी. बालाजी ने मुझे इस कैंपस में लगाए गए उन 10-12 बोर्डों के बारे में बताया जिन पर संदेशात्मक स्लोगन्स लिखे गए हैं। ये स्लोगन्स कितने पारदर्शी (ट्रांस्परेंट) हैं! असली चीज़ यही है। भाषा को स्वीकार्य बनाने के लिए हम प्रायः ‘सरलता’ की माँग करते हैं। यह गलत है। भाषा ‘सरल’ और ‘कठिन’ नहीँ होती। भाषा ‘परिचित’ और ‘अपरिचित’ होती है। जब तक हम किसी भाषा से परिचित नहीं होते, तब तक वह हमें कठिन लगती है। जैसे ही हमारा परिचय बढ़ता है, आत्मीयता भी बढ़ जाती है। जब चार बार आप किसी शब्द को सुनेंगे, छह बार उसे लिखेंगे तो धीरे-धीरे उसकी आदत पड़ जाएगी। हिंदी का हाजमा तो बहुत ही बढ़िया है, बिल्कुल भारतीय संस्कृति की तरह – अनेक प्रवाह आकर इसमें समा गए, न जाने कितनी धाराएँ आकर इस धारा में मिल गईं और एक हो गईं! कोई ज़बरदस्ती अपने आपको अलग बनाए रखे तो अलग बात है; नहीं तो यह देश सारी संस्कृतियों को समा लेने वाला देश है। ऐसी ही हमारी भाषा हिंदी है। चाहे जो शब्द ले आइए – थोड़ सा कहीं से उसको रद्दा लगाकर, कहीं से रगड़कर, कहीं ज्यों-का-त्यों लेकर – कहीं हम उसे अंगीकार कर लेते हैं, कहीं स्वीकार कर लेते हैं, कहीं ज्यों-का-त्यों उसका अनुवाद कर लेते हैं, कहीं थोड़ा सा अदल-बदल लेते हैं – अनुकूल कर लेते हैं! बहुत सारी अंतरराष्ट्रीय शब्दावली हमने ज्यों-की-त्यों ग्रहण की है। हिंदी कठिन नहीं है; जो लोग प्रयोग नहीं करते उन्हें वह अपरिचित लगती है। इस अपरिचय से बाहर निकलने का एक ही रास्ता है कि परिचय बढ़ाया जाय। यदि मैं 25 साल से एक अपार्टमेंट में रहता हूँ और मैंने अपने पड़ोसी से परिचय नहीं किया तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह और मैं जन्मजात शत्रु होंगे। अचानक किसी एक दिन किसी एक कारण से हम दोनों की बात होती है और हम बड़े अच्छे दोस्त बन जाते हैं। अन्यथा हम बस एक –दूसरे के बारे में अनुमान ही लगाते रहते। मेरे कहने का अर्थ है कि भाषा का प्रयोग करते रहना चाहिए। 

गृहमंत्री का जो संदेश यहाँ प्रस्तुत किया गया, उसमें अंत में उन्होंने दो सुझाव दिए हैं – एक तो यह कि किसी बदलाव को स्वीकार्य बनाने में अधिकारीगण महत्वपूर्ण होते हैं। अधिकारी किसी भी संगठन का रोल मॉडल होता है। अन्य कामकाज के साथ ही वार्तालाप से टिप्पणी लिखने तक जब अधिकारी हिंदी का प्रयोग करेंगे तब सबकी वह हीन भावना टूटेगी जिसके तहत यह माना जाता है कि अंग्रेज़ी लिखने-बोलने से ही आप बौद्धिक होते हैं, इंटेलेक्चुअल होते हैं। यह धारणा टूट रही है। इसे टूटना ही चाहिए। इसे तोड़िए। अगर यह नहीं टूटती है तो जबरदस्ती तोड़िए, अधिक-से-अधिक साधारण और भारतीय बनकर दिखाइए। ऐसे अवसर पर जब तथाकथित सभ्यता यह सिखाती हो कि हिंदी बोलना असभ्यता है, जमकर अक्खड़ भाषा हिंदी बोलिए। हिंदी, तमिल, तेलुगु, मलयालम या अन्य भारतीय भाषा बोलना अशिष्टता या असभ्यता नहीं है। अंग्रेज भले ही हमारे देश की भाषा को वर्नाक्यूलर अर्थात गँवारू भाषा कहते रहे हों; लेकिन आज समय आ गया है कि दुनिया को हम बताएँ कि दुनिया के समस्त ज्ञान - चाहे वह आधुनिक ज्ञान-विज्ञान हो या प्राचीन ज्ञान-विज्ञान, को हमारी भाषा में व्यक्त करने का सामर्थ्य हमारी भाषा के भीतर है। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान को आधुनिक ढंग से व्यक्त करना भी जरूरी है। इसके लिए कुछ आवश्यक बातें मैं उदाहरण सहित कहना चाहूँगा। बहुधा जब हम सिस्टम खरीदते हैं या सॉफ्टवेयर लेते हैं तब हम इस बात पर ध्यान नहीँ देते कि इसमें हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लिए सुविधाएँ उपलब्ध हैं या नहीं जबकि उपभोक्ता होने के नाते हमें ध्यान देना चाहिए। हमें माइक्रोसॉफ्ट से कहना चाहिए कि अभी तक भी आपने माइक्रोसॉफ्ट के पब्लिकेशन वाले सॉफ्टवेयर में भारतीय भाषाओं के लिए यूनिकोड का समर्थन नहीं दिया है । हम ऑफिस में यूनिकोड में काम कर रहे हैं परंतु जब हमें अपनी पत्रिका छपवानी होती है तब हमारा सारा काम बेकार हो जाता है। फिर किसी चाणक्य या शिवा या कृतिदेव फॉन्ट में टाइप कराना होता है! यूनिकोड में काम करने का क्या फायदा हुआ? यदि इस देश के तमाम उपभोक्ता हाथ उठाकर कह दें कि कल से हम आपके सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल नहीं करेंगे अगर आप हमें पब्लिकेशन में हिंदी समर्थन नहीं देते तो ऐसे में माइक्रोसॉफ्ट और गूगल एवं अन्य सब भी हिंदी समर्थन अवश्य प्रदान करेंगे। केवल यही नहीं ऐसी बहुत सारी सेवाएँ हैं। सबसे पहले हमें स्वयं अपनी भाषा हिंदी और भारतीय भाषाओं के प्रति जागरूक होना पड़ेगा। मशीन पर काम करना सीखने की दृष्टि से छोटी कक्षा से ही कंप्यूटर पर काम करना सिखाया जाता है। कक्षा 2-3-4 का बच्चा कंप्यूटर पर सब काम कर रहा है लेकिन जरा सोचिए, “क्या यही काम वह हिंदी या अपनी भाषा में कर सकता है?” जब आप उसे अंग्रेज़ी में पक्का करके 20 साल बाद किसी ऑफिस में लाएँगे और कहेंगे कि बेटा, इस कंप्यूटर पर हिंदी में काम करो। यह सोचने की ज़रूरत है कि, वह ऐसा क्यों करेगा और कैसे करेगा? कंप्यूटर प्रशिक्षण के कार्यक्रमों में हिंदी और भारतीय भाषाओं की उपस्थिति अनिवार्यतः होनी चाहिए। मैं बार-बार हिंदी के साथ भारतीय भाषा शब्द पर जोर दे रहा हूँ क्योंकि हिंदी अकेले कुछ नहीं कर सकती। हिंदी और भारतीय भाषाएँ मिलकर ही वास्तव में हिंदी बनती है। इस देश की ‘भारत-भारती’ बनती है । 

हिंदी और भारतीय भाषाओं को बाजार की भाषा बनाना और इन्हें कंप्यूटर की सर्वसमर्थ भाषा के रूप में स्थापित करना आने वाले समय की हमारी चुनौतियाँ हैं जिन्हें हमें पार करना ही है। मनोरंजन के क्षेत्र की, प्रकाशन के क्षेत्र की, मीडिया के क्षेत्र की चुनौतियों को हमने पार कर लिया है। मीडिया में सब जगह हिंदी छाई हुई है। मनोरंजन में फिल्म इंडस्ट्री इतनी व्यापक है जहाँ सब जगह हिंदी छाई हुई है। लेकिन जो फिल्म इंडस्ट्री के देवी-देवता कहे जाते हैं, आइकॉन्स कहे जाते हैं, हम उनका कॉलर कब पकड़ेंगे कि तुम भी हिंदी बोलना सीखो। स्क्रीन पर हिंदी बोल लेते हो लेकिन जब कोई तुमसे बात करने आता है तब अंग्रेज़ बन जाते हो! ये बातें एक्टिविज़्म की हो सकती हैं। आपको लग सकता है कि इन बातों से क्या लेना-देना है! हमें इन सबसे लेना-देना है। भाषा संबंधी शोध करने वाले लोगों का कहना है कि दुनिया की 6000 भाषाओं में से आधी से ज्यादा भाषाएँ गायब होने के कगार पर हैं। हालाँकि हिंदी और तेलुगु को कोई ऐसा खतरा नहीं है लेकिन हमें चेत जाना चाहिए। बाजार की तलवार दोधारी है। इस बाज़ार का लाभ उठाकर हम हिंदी को विश्वव्यापी बना सकते हैं। अगर हम जागरूक नहीं हुए तो हमारी हिंदी के ऊपर अंग्रेज़ी या कोई अन्य भाषा जो पहले ही लदी हुई है, और भी ऐसे ही लद जाएगी। इस स्थिति में हम टूटी-फूटी विदेशी भाषा सीखकर अपने बाज़ार को चलाने की कोशिश करते रहेंगे और हास्यास्पद बनते रहेंगे। बाज़ार, शिक्षा, न्याय और प्रशासन में हिंदी आएगी, तभी सच्चे अर्थ में हमारी राष्ट्र भाषा बनने पर उसकी विश्व भाषा की दावेदारी ईमानदार दावेदारी होगी। 

मित्रो, बहुत सारी बातें कही जा सकती हैं लेकिन मैं समझता हूँ कि रक्षामंत्री और गृहमंत्री के संदेशों में मुख्य बातें कही जा चुकीं हैं। आप सबको विश्राम देने के लिए बीच में मैं थोड़ी देर के लिए यहाँ आकर खड़ा हो गया। ‘मिधानी राजभाषा शील्ड’ आरंभ करने के लिए मैं आप सबको शुभकामनाएँ देता हूँ। मैं विशेष रूप से प्रबंध निदेशक महोदय को और आप सबको बधाई देता हूँ कि आपकी यह सोच उदाहरण बने। हैदराबाद के ही सभी सरकारी कार्यालयों एवं उपक्रमों में इसका समावेश करने से हम और विद्यार्थियों एवं लोगों को साथ जोड़ सकेंगे। एक द्वीप, एक आइलैंड, बनकर नहीं रह जाएँगे। बड़ी अच्छी बात है कि लगभग 150 अधिकारियों, कार्यकर्ताओं एवं अनेक विद्यार्थियों ने इन प्रतियोगिताओं में भाग लिया। शायद 24-25 विद्यार्थियों को पुरस्कृत भी किया जा रहा है। यह आँकड़ा बहुत ही प्रसन्न करने वाला आँकड़ा है।

अंत में, मैं उन बच्चों की विशेष प्रशंसा करना चाहता हूँ जिन्होंने यहाँ सरस्वती-वंदना प्रस्तुत की। मैं उनके अध्यापकों की भी विशेष प्रशंसा करता हूँ। उन्होंने वाणी की वंदना की। वाणी भाषा है। सरस्वती और कुछ नहीं, यह भाषा है। यही भाषा विभिन्न रूपों में प्रकट होती है। इस देश में यह माना जाता है कि सृष्टि नाद से उत्पन्न हुई है। सबसे पहले आकाश था। आकाश में नाद था। यह नाद ही, यह वाणी ही पहला तत्व है। बाकी जितने तत्व हैं वह उसके बाद उत्पन्न हुए हैं । जब हम कहते हैं ,‘ हे हिंदी तू हंस है , हे वाणी तू हंसवाहिनी और जगद्व्यापिनी है।’ तो हमारे इस कथन में हमारी एक कामना व्यंजित होती है! हंस विद्वान लोगों को कहा जाता है। यहाँ हमारी कामना है कि विद्वत्ता के ऊपर एक ज्ञान-आधारित समाज का निर्माण करते हुए भारत की भाषा जगद्व्यापिनी हो। हमारी कामना है कि हम ‘ग्लोबल’ बनें। जब हम कहते हैं – ‘हे माँ, तू हमें उजाला दे’, ‘हे माँ, तू हमें प्रेम दे’, ‘हे माँ, तू करुणामयी है’, ‘हे माँ, तू हमारा कल्याण कर’ तो इस प्रार्थना के माध्यम से इस देश की संस्कृति व्यक्त होती है। इस देश का सांस्कृतिक मूल्य व्यक्त होता है। भाषा केवल विचारों के आदान-प्रदान का, केवल बाजार चलाने का या केवल कंप्यूटर चलाने का ही माध्यम नहीं है। भाषा देश की पूरी-की-पूरी चेतना-धारा को व्यक्त करने और जोड़ने का माध्यम है। 1918 के व्याख्यान में महात्मा गाँधी ने कहा था कि इस देश के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, प्रशासनिक इत्यादि कार्यों के साथ, यदि कोई एक भाषा ऐसी हो सकती है, जो पूरे देश की सांस्कृतिक विरासत को व्यक्त कर सके, तो वह हिंदी ही हो सकती है । यह बात 1918 में भी सच थी और 2018 में भी सच रहेगी। आपने मुझे यहाँ आने का यह अवसर प्रदान किया इसके लिए बहुत-बहुत-बहुत कृतज्ञ हूँ। नमस्कार। 

(लिप्यंकन : डॉ. चंदन कुमारी, पटना)