नहि
नहि रक्षति डुकृञ करणे
अस्तित्ववादी
दार्शनिक सिमोन द बुआ (9 जनवरी, 1908 -14 अप्रैल, 1986) को स्त्री-विमर्शकार के रूप में विशेष ख्याति प्राप्त है। उन्होंने उपन्यास, निबंध,
जीवनी, आत्मकथा और व्यक्तिचित्र आदि विधाओं में दार्शनिक, राजनैतिक और सामाजिक
विमर्शमूलक प्रभूत लेखन किया। 1949 में प्रकाशित ‘द सेकंड सेक्स’ (स्त्री :
उपेक्षिता) ने उन्हें वैश्विक स्त्री मुक्ति आंदोलन का पुरोधा बना
दिया। इस कृति के प्रभामंडल ने उनके शेष कृतित्व को मानो अंतर्धान कर रखा है।
अन्यथा 1970 में प्रकाशित उनकी शोधपूर्ण कृति ‘ला विएलेस्से’ (फ्रेंच) भी उतनी ही
महत्वपूर्ण है। ‘ला विएलेस्से’ का अंग्रेजी अनुवाद ‘ओल्ड एज’ 1977 में आया। यह
कृति वस्तुतः सिमोन की भविष्योन्मुखी विश्वदृष्टि का प्रमाण है और ‘वृद्धावस्था
विमर्श’ की गीता है। इसके प्रकाशित होते ही दार्शनिक और सामाजिक हलकों में
‘वृद्धावस्था’ पर सर्वथा नई दृष्टि से बहस छिड़ गई। यह भी कहा जाता है कि सिमोन द
बुआ के लेखन में आयु और लिंग विषयक विमर्श परस्पर संबंधित हैं। अथवा ‘सेकंड सेक्स’
और ‘ओल्ड एज’ ऊपर से भिन्न प्रतीत होते हुए भी मूलतः सिमोन के अस्तित्ववादी चिंतन
के दो परस्पर गुंथे हुए आयाम हैं जिनका संबंध क्रमशः ‘स्त्री’ और ‘वृद्ध’ को
परिवार और समाज की प्राथमिक नागरिकता से वंचित रखने के षड्यंत्र के प्रत्याख्यान
से है जबकि ये दोनों ही समाज के अस्तित्व की धुरी हैं। इन दोनों कृतियों के माध्यम
से सिमोन ने क्रमशः स्त्री और वृद्ध से जुड़े मिथों की शल्य परीक्षा की है क्योंकि
इन मिथों के कारण ही आज भी बड़ी सीमा तक स्त्री और वृद्ध सामाजिक पराएपन के शिकार
हैं।
सिमोन
ने विश्व भर के विभिन्न समाजों में वृद्धावस्था से संबंधित रूढ़ियों और वृद्धों की
दशा तथा उनके प्रति व्यवहार का अलग-अलग दृष्टियों से अध्ययन किया। उन्होंने यह भी
देखा कि इन ‘वरिष्ठ नागरिकों’ की शारीरिक और मानसिक क्षमताओं तथा इच्छाओँ,
आकांक्षाओं और सपनों की दशा और दिशा क्या होती है। दरअसल वरिष्ठ नागरिकों अथवा
वृद्धों के संबंध में समाज का चरित्र व्यापक स्तर पर दोगलेपन का शिकार रहा है। एक
ओर तो नित्य उनका आशीर्वाद लेने की बात की जाती है तथा दूसरी ओर उन्हें बोझ समझा
जाता है। समाज, साहित्य और संस्कृति में सदा उपस्थित रहने के बावजूद वृद्धों की
अवस्थिति केंद्र की अपेक्षा परिधि पर ही अधिक रही है। बुढ़ापा आने का अर्थ ही है
व्यक्ति का केंद्र से उखड़कर परिधि की ओर जाने के लिए विवश होना। केंद्र से अपदस्थ
होते ही व्यक्ति समाज की उपेक्षा का पात्र बन जाता है और यदि उसका सही ‘पुनर्वास’
न हो तो उसे अपना अस्तित्व ही अभिशाप लगने लगता है। इस प्रकार परिधि पर धकेले गए
एक समुदाय के रूप में वृद्ध समुदाय दुनिया का बहुत बड़ा उपेक्षित जन समुदाय है
जिसकी जनसंख्या में 20वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में तीव्रता से वृद्धि हुई है और
21वीं शताब्दी में और भी वृद्धि सुनिश्चित है क्योंकि इधर जन्म दर और मृत्यु दर दोनों
ही घट रही हैं तथा चिकित्सा विज्ञान ने आदमी की औसत आयु बढ़ा दी है। वृद्धावस्था
विमर्श इस उपेक्षित समुदाय की दृष्टि से - अथवा वृद्धावस्था को केंद्र में रखते
हुए – समाज, साहित्य और संस्कृति की नई व्याख्या करने वाला विमर्श है। वृद्ध होने
पर वानप्रस्थ और संन्यास की व्यवस्था की पुनर्व्याख्या की आज बड़ी जरूरत है ताकि
वरिष्ठ नागरिकों के समुदाय को अपना अस्तित्व अनुपयोगी और अभिशाप प्रतीत न हो।
वृद्धावस्था विमर्श वस्तुतः सामाजिक संबंधों को इन बदली हुई परिस्थितियों में नए
ढंग से समझने की जरूरत पर बल देता है। शारीरिक अशक्यता, मानसिक समस्याएँ,
परनिर्भरता, मूल्य परिवर्तन, आर्थिक संकोच, जीवनसाथी की मृत्यु, निराश्रित होने की
आशंका, भविष्य की अनिश्चितता, संबंधों की निरर्थकता का बोध, राग-विराग का द्वंद्व,
पराएपन और अलगाव की स्थिति, बचपन और युवावस्था की यादों से जुड़ा अतीत प्रेम, काम
और क्रोध जैसी वृत्तियों का उदात्तीकरण न कर पाने से जुड़ी समस्याएँ और आध्यात्मिक
विभ्रम जैसे अनेक पक्ष वृद्धावस्था विमर्श के विचारणीय बिंदु हैं।
दरअसल
सिमोन द बुआ की अंतश्चेतना में कहीं-न-कहीं वृद्धावस्था और मृत्यु से जुड़े हुए
प्रश्न बराबर उपस्थित थे। यही कारण है कि वे अपने सृजन और चिंतन दोनों में
अस्तित्व की नश्वरता पर विचार करती दिखाई देती हैं। 1946 में आए अपने उपन्यास ‘ऑल
मेन आर मोर्टल’ में उन्होंने फोस्का नामक अपने कथानायक की अमर होने की इच्छा के
माध्यम से मनुष्य की नश्वरता और मरणशीलता की अनिवार्यता पर अस्तित्ववादी नजरिए से
विचार किया। इसके बाद 1964 में ‘ए वेरी ईजी डेथ’ में उन्होंने मरने की प्रक्रिया
का खुलासा तो जोर देकर किया ही, अपनी माँ की मृत्यु का भी चित्रण किया। ‘ओल्ड एज’
(1970) में तो यह विषय उठाया ही गया है – वृद्धावस्था मृत्यु की तैयारी का समय है!
यही नहीं 1981 में अपने संस्मरण लिखते हुए भी उन्होंने ज्याँ पाल सार्त्र के अंतिम
दस वर्षों का जो यथार्थ अंकन किया है उसमें उनकी बीमारी, दैहिक क्षरण और
वृद्धावस्था का वर्णन शामिल है। अभिप्राय यह है कि सिमोन ने वृद्धावस्था पर केवल
सैद्धांतिक चिंतन नहीं किया बल्कि अनुभूति के गहन धरातल पर उन्होंने उसे लंबे समय
तक जिया भी। किसी को भले ही अविश्वसनीय और विस्मयकारी लगे मगर यह सच है कि मात्र
36 वर्ष की आयु में युवती सिमोन द बुआ ने अपने आपको वृद्ध होते महसूसना शुरू कर
दिया था। इतना ही नहीं इस संवेनशील विदुषी ने 13 वर्ष की आयु से ही यह महसूस करना
शुरू कर दिया था कि ‘समय गुजर रहा है’। काल की सापेक्षता में आयु का गुजरना महसूस
करने के कारण ही वे अस्तित्व विषयक दर्शन की ओर मुड़ीं। बुढ़ापा शारीरिक है या
मानसिक अथवा दोनों – मनोदैहिक? यह प्रश्न अपनी जगह है। लेकिन यह सच है कि मृत्यु
और बुढ़ापे का साक्षात्कार मनुष्य को किसी भी आयु में नचिकेता, विदेह और तथागत
बनाने के लिए पर्याप्त है। उसी ने सिमोन को सिमोन बनाया।
हमारे
यहाँ यों तो वृद्धावस्था से जुड़े प्रश्नों पर विचार की पुरानी परंपरा रही है लेकिन
इस अवस्था से जुड़ी समस्या का जो रूप आज हमारे सामने है वह पहले कभी ऐसा न था। भारत
में जरा-चिकित्सा (जेरियाट्रिक्स) के अध्ययन का इतिहास अभी आरंभिक अवस्था में है।
अध्येता वार्धक्य और आयु संबंधी समस्याओं के पहलुओं को आधुनिक, उत्तरआधुनिक,
स्त्रीवादी, राजनैतिक और आर्थिक दृष्टियों से समझने-समझाने की कोशिश कर रहे हैं।
आज हमारी चिंता का विषय विशाल वृद्ध जन समुदाय के जीवन को सुखमय बनाने से संबंधित
है – चाहे वे पुरुष हों या स्त्री। यही कारण है कि वृद्धावस्था से जुड़े सेवामुक्ति
से लेकर वृद्धाश्रम तक के, अथवा देह से लेकर आयु तक के क्षीण होने के, मुद्दे
चिंतन और सृजन के विविध मंचों पर छाए हुए हैं। यदि यह कहा जाए कि आज का मनुष्य
बुढ़ापे और मौत से कुछ ज्यादा ही आतंकित है तो भी शायद गलत न होगा।
सिमोन
द बुआ कृत ‘ओल्ड एज’ को पहली बार देखने-पढ़ने का मौक़ा मुझे 2010 में मिला और मैं
दीवानों की तरह अपने सब दोस्तों से इस किताब का जिक्र करने लगा। मेरे अभिभावकतुल्य
वरिष्ठ मित्र श्री चंद्रमौलेश्वर प्रसाद (7 अप्रैल, 1942 - 13 सितंबर, 2012) ने
मेरी यह दीवानगी देखी तो ‘ओल्ड एज’ उठा ले गए। उन दिनों वे ब्लॉग लेखन की दुनिया
में बहुत सक्रिय थे। मुझसे चर्चा करने के बाद उन्होंने अपने ब्लॉग ‘कलम’ (cmpershad.blogspot.in) पर उस पुस्तक का सार-संक्षेप लिखना आरंभ किया। इस सार-संक्षेप की पहली
किस्त 18 अगस्त, 2010 को तथा अंतिम (दसवीं) किस्त 30 दिसंबर, 2010 को प्रकाशित हुई।
‘कलम’ ब्लॉग के पाठकों ने इसे बहुत पसंद किया; सराहा। अभी हम लोग इसे पुस्तकाकार
प्रकाशित करने की योजना बना ही रहे थे कि काल ने अकाल ही चंद्रमौलेश्वर जी को हमसे
छीन लिया!
इस
पुस्तक को कई वर्ष पूर्व प्रकाशित हो जाना था, पर यह अब आ पा रही है। इसके लिए
मेरा प्रमाद ही उत्तरदायी है। अब भी यदि श्री अमन कुमार त्यागी (परिलेख प्रकाशन)
और डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा ने न जगाया होता, तो मैं तो सोता ही रहता।
सिमोन
की तो हम नहीं जानते, लेकिन चंद्रमौलेश्वर प्रसाद आत्मा की अमरता में विश्वास रखते
थे। यह पुस्तक – उनकी अपनी पुस्तक – श्रद्धांजलि के रूप में उन्हें समर्पित है।
1
जनवरी, 2016
- ऋषभदेव शर्मा