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शुक्रवार, 20 जून 2014

खिलना ‘जंगल जुही’ का आक्षितिज अभ्रभेदी शिलाओं के कुंज में

पुस्तक चर्चा : ऋषभ देव शर्मा

खिलना ‘जंगल जुही’ का
आक्षितिज अभ्रभेदी शिलाओं के कुंज में

हैदराबाद. आप यहाँ आएँ, रहें, घूमे-फिरें, लौट जाएँ. और कुछ याद रहे न रहे भीतर बाहर सर्वत्र फैला चट्टानों का म्युज़ियम जरूर याद रहेगा. कई बार तो ऐसा लगता है कि तमाम प्राणिजगत इन प्रस्तर शिलाओं की गोद में खेल रहा है यहाँ. कवि-कथाकार-चिंतक रमेशचंद्र शाह इसीलिए इस शहर को अलविदा कहते वक्त बस इतना ही कह पाते हैं – ‘अलविदा आक्षितिज अभ्रभेदी शिलाओं के पुंज हैदराबाद!’
                                                            
रमेशचंद्र शाह (1937) के दर्शन दो दशक पूर्व भोपाल में आदरणीय कैलाशचंद्र पंत की कृपा से हुए थे. गांधी पर उनके व्याख्यान ने प्रभावित ही नहीं आतंकित भी किया था. पिछले दिनों (2012) में उनके दर्शन का फिर से सौभाग्य मिला – वे केंद्रीय हैदराबाद विश्वविद्यालय में एस. राधाकृष्णन पीठ के बहाने कुछ महीनों के लिए यहाँ आए थे. विद्वानों और बड़े लेखकों से मुझे बचपन से ही डर लगता रहा है – कस्बाई मानसिकता से आज भी ग्रस्त हूँ न! सो, जब प्रो. एम. वेंकटेश्वर और डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने गेस्ट हाउस में उनसे मिलने जाने का कार्यक्रम बनाया तो मैं हीले हवाले करने लगा. पर वेंकटेश्वर जी के आगे किसी की चली है? दिन ढले हम लोग पहुँचे. घंटे भर दुनिया जहान की बातें हुईं – लगा यह कोई गोमुख है जिससे निरंतर ज्ञान की गंगा झरती है. पर यह ग्लेशियर उतना भी ठंडा नहीं था – बल्कि बिल्कुम भी ठंडा नहीं : गरमाहट से भरा हुआ, ऊर्जा से भरपूर. खुद उन्होंने अपने हाथों से चाय बनाकर पिलाई, फोटो खींचे-खिंचवाए. अरे! ये तो बिल्कुल आदमी निकले – हाड मांस वाले; मैं तो ज्ञान की पाषाणमूर्ति समझकर आया था. अस्तु! हैदराबाद के अपने उस प्रवास को रमेशचंद्र शाह ने अपनी डायरी में टाँककर अमर कर दिया है.

किताबघर ने उनकी डायरी के चतुर्थ भाग और यात्रावृत्त को ‘जंगल जुही’ (2014) के नाम से प्रकाशित किया है. प्रो. सुवास कुमार सहित हैदराबाद के तीन सहचरों को समर्पित यह डायरी प्रकारांतर से हैदराबाद को ही समर्पित है. 2 खंड हैं : पहले में डायरी – जंगल जुही, हैदराबाद (जुलाई-दिसंबर 2012). दूसरे में यात्रावृत्त - हैदराबाद और प्राग प्रवास के.

डायरी हो या यात्रावृत्त - मूलतः रचनाकार ने दोनों में स्मृति में अंकित हो गए अनुभवों को शब्दों में पुनः जिया है. यह ग्रहण किए हुए का, भावन किए हुए का, व्यक्तिगत अनुभवों का, निजता की सीमाओं को लांघकर सार्वजनीकरण है. जो देखा, भोगा, महसूसा उसे अपनी सौंदर्यदृष्टि से अभिमंडित करके सारे समाज को वापस लौटा दिया. इसे आत्मदान कहें या प्रतिदान! खैर, कुछ भी हो, पर इसमें दो राय नहीं कि इस अकाल्पनिक गद्य में लेखक का अंतस सहज अनावृत्त हुआ है. बड़ी ललक से, इसीलिए, यह गद्य पाठक की ओर बढ़ता है और उसे अपने औदात्य के आभाचक्र में समेट लेता है. यानि ‘जंगल जुही’ का गद्य सहज-प्रसन्न-उदात्त गद्य है : उत्फुल्ल भी, प्रशमित भी. गज़ब का संतुलन. गज़ब का सम्मोहन.

‘जंगल जुही’ को संदर्भ संबलित और प्रसंग गर्भित अच्छे गद्य की तरह पढ़ने का अपना मजा है. विधा का नाम कुछ भी हो लेकिन कवित्व और लालित्य इस गद्य में सर्वत्र विद्यमान है – दर्शन, चिंतन और आत्मोद्घाटन के साथ. यही कारण है कि यह कृति जीवन के अर्थ की खोज की लेखकीय व्याकुलता का भी पूरा बोध कराती है. अरविंद और गुर्जिएफ़ जैसे संत इस यात्रा में लेखक के साथ साथ चलते हैं – और पाठक के भी. इसी कारण अंत तक पहुँचते पहुँचते यह बात पुख्ता हो जाती है कि अपने प्रति और मानवीय बिरादरी के प्रति जवाबदेही के निर्वाह से प्राप्य कृतार्थता का संतोष इस कृति से लेखक को अवश्य ही मिला होगा.

देखे गए देश और काल के विवरण तो सभी डायरियों और यात्रावृत्तों में होते हैं, लेकिन डायरी और यात्रावृत्त को टूरिस्ट गाइड नहीं बनना होता है. इसलिए इन विवरणों की तुलना में वे पक्ष अधिक महत्वपूर्ण होते हैं जहाँ लेखक की निजता और संवेदनशीलता, वैचारिकता और भावुकता रमणीय अर्थ के साथ व्यंजित होती है. इसी भावाभिव्यंजना के कारण ‘जंगल जुही’ का गद्य पठनीय, मर्मस्पर्शी और प्रीतिकर बन सका है. अनेक स्थलों पर अपने विचार प्रवाह में रमेशचंद्र शाह पाठक को बहाए ले जाते हैं. उदाहरण के लिए जब किसी अंतरराष्ट्रीय काव्योत्सव के बाहने वे पूछते हैं कि ‘पृथ्वी पर इतने देश हैं. सभी में कविता होती है. पर सबको तो ऐसा चाव नहीं जगता *** क्या हमें सचमुच कविता पर, उसकी आह्लादिनी शक्ति पर ही नहीं – उसकी ज्ञानदायिनी शक्ति पर भी इतना विश्वास है?’ तो हमारे मन में भी यह सवाल उठता है कि ‘क्या यह महज हमारी उत्सवधर्मी और प्रदर्शनप्रिय मानसिकता की ही एक और अभिव्यक्ति है? या कि इसके पीछे कोई गहरी सृजनधर्मी सत्यान्वेषिणी चेतना सक्रिय है?’

यह जानना भी अच्छा लगा कि लेखक रमेशचंद्र शाह शास्त्र पर अंतिम विश्वास नहीं करते. लोक में उनकी बड़ी आस्था है. रामटेक में अगस्त्य मुनि का आश्रम होने की लोक मान्यता पर वे विस्मय अवश्य व्यक्त करते हैं, लेकिन अविश्वास नहीं. वाग्देवी से कालिदास को प्रतिभा का वरदान मिलने की मान्यता भी ऐसी ही है. अन्यत्र, वे बड़ी पते की बात कहते हैं ‘और किंवदंतियाँ हमारे देश में यूँ ही नहीं बन जातीं. उनके पीछे कोई न कोई आधार अवश्य होता है.’ दशावतारों की कल्पना को वे इवोल्यूशन की द्योतक मानते हैं. आंध्र प्रदेश भर में नृसिंह अवतार की प्रसन्न और उग्र मूर्तियों की बड़ी महिमा है. यादगिरीगुट्टा की यात्रा में लेखक ने इस महिमा की विवेचना का अवसर निकाल लिया – ‘नृसिंह अवतार तो विशेष रूप से हमारी मानवीय संरचना के आदिम और परवर्ती विकास-स्तरों को आपस में जोड़ने वाला है और यह एक बात इस अवतार की विलक्षण लोकप्रियता के रहस्य के मूल में है. हमारे यहाँ लोक और शास्त्र अन्योन्याश्रित रहे हैं. लोकानुभव ही कालांतर में शास्त्र में रूपांतरित और उन्नीत होता रहा है.’ यह लोक लेखक की धमनियों में निरंतर बजता रहता है. यही कारण है कि प्राग (चेक गणराज्य की राजधानी) में ग्याकोमो पुसीनी के विश्वविख्यात ऑपेरा ‘ला बोहेमे’ को देखते समय उनके भीतर अचानक लड़कपन की रामलीला और नौटंकियों के भूले बिसरे संस्मरण जाग उठते हैं और संबोधि का यह पूर्वप्रश्न उभरता है – ‘तो क्या कला की दुनिया विचारधारा या धर्म विश्वास की दुनिया की तुलना में कहीं अधिक व्यापक-मानवीय और कहीं अधिक सर्वनिष्ठ दुनिया है?’

और अंत में बिना टिप्पणी के, 77 वर्षीय साहित्यकार की ये टिप्पणियाँ -– 
  • इस प्रतीति तक पहुँचने में ही एक पूरा जन्म खप गया./ 
  • समकालीनों से मुझे क्या मिला है? सिवा एक निहायत औपचारिक अंतःकरण की नुमाइशी यारबाशी और उतनी ही ‘समझदार चुप्पियों’ के?/ 
  • आजकल भूल जाता हूँ सब *** क्या यही वृद्धावस्था का पहला लक्षण है?/ 
  • मैं तो इस जंगल जुही की प्राणशक्ति देखकर दंग हूँ./ 
  • असुविधाजनक सत्य बोलना ही चाहिए सार्वजनिक स्थलों पर.

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Ø  रमेशचंद्र शाह/ जंगल जुही/ 
किताब घर, नई दिल्ली/ 2014/
 पृष्ठ 182/ मूल्य – रु. 320/-

-ऋषभ देव शर्मा 

भास्वर भारत / जून 2014 / पृष्ठ 59

गुरुवार, 5 जून 2014

‘सहरा की धड़कनें’ अर्थात अरबी कविता हजार साल पहले

भूमिका

संतोष अलेक्स कई भाषाओं के जानकार हैं तथा कवि और अनुवादक के रूप में इन्होंने अच्छी प्रतिष्ठा अर्जित की है. इस अनूदित कविता संग्रह ‘सहरा की धड़कनें’ के माध्यम से ये हिंदी पाठकों को हजार साल पुरानी अरबी कविताओं से रू-ब-रू करा रहे हैं. बेशक, इनका यह प्रयास स्तुत्य और स्वागतेय है. 

दरअसल यहाँ जिन कविताओं का अनुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है इनका संबंध एंडालूसिया से है. (एंडालूसिया में 10वीं से 15वीं शताब्दी के बीच फली-फूली अरब सभ्यता ‘मूर’ अब इतिहास के गर्भ में समा चुकी है.) हिंदी में ये कविताएँ मलयालम और अंग्रेजी के रास्ते आ रही हैं. अंग्रेजी में स्पेनी से आईं जबकि स्पेनी में अरबी से अनुवाद होकर. मूल अरबी पाठ तो संभवतः आज भी अप्रकाशित है और हिंदी का लक्ष्य पाठ गठित होने से पहले इन कविताओं को स्पेनी, अंग्रेजी और मलयालम के तीन तीन फिल्टरों से गुजरना पड़ा है. कहते हैं, अनुवाद में कविता खो जाती है. इसलिए यदि इस लंबी छनाई के बावजूद यहाँ कुछ कविता बची रह गई है तो मानना ही पड़ेगा कि मूल पाठ बहुत सशक्त रहा होगा और अनुवादक भी बेहद सतर्क रहे होंगे. 

प्राचीन मूर सभ्यता उत्तर पश्चिमी अफ्रीका के बरबर और अरब के रेगिस्तान के मुसलमानों ने स्पेन के एंडालूसिया में खड़ी की थी. कालांतर में इसके कालकवलित हो जाने पर इसकी उपलब्धियाँ भी खो गईं. इसे संयोग ही कहा जाएगा कि 1928 में काहिरा की एक दूकान में महान स्पेनी अरब इतिहासकार एमिलियो गार्सिया गोमेज़ ने पुरानी किताबों के ढेर में 1243 की एक छोटी सी पांडुलिपि देखी और वे इसमें एंडालूसिया की अरब सभ्यता के दौरान रची गई इन कविताओं को देखकर चमत्कृत रह गए. गोमेज़ ने इन कविताओं को स्पेनिश में अनुवाद करके प्रकाशित कराया और यह दावा किया कि इन कविताओं के माध्यम से उस सभ्यता की आत्मा और प्रकृति को इतिहास की मोटी किताबों की तुलना में ज्यादा अच्छी तरह समझा जा सकता है. उस समय शायद गोमेज़ ने कल्पना भी न की होगी कि इन कविताओं का स्पेनी की अपनी कविता के ऊपर बड़ा प्रभाव पड़ सकता है. लेकिन ऐसा हुआ. इन कविताओं ने केवल पाठकों को ही मंत्रमुग्ध नहीं किया बल्कि स्पेनी कविता की ‘सत्ताईस की पीढ़ी’ के कवियों पर भी गहरी छाप छोड़ी. इस आंदोलन के रफेल अलबर्टी और फेडरिको गार्सिया लोर्का (1898-1936) जैसे कवियों ने स्वयं को इस कविता का ऋणी माना है. लोर्का ने तो खुद को इस कविता में गहरे डुबोकर इसकी आत्मा का साक्षात्कार करके उसे ही अपनी कविता में पुनर्जीवित किया है. कहा तो यहाँ तक जाता है कि इस कविता में निहित अध्यात्म, मौलिक रूपकों और अनछुए बिंबों ने समग्र स्पेनी काव्य को झकझोर कर रख दिया था. 

उल्लेखनीय है कि इन कविताओं के मूल संग्रहकर्ता इब्न सईद की मान्यता थी कि कविता को शीतल मंद सुंगंध बयार से ज्यादा नाजुकख़याल और काव्यभाषा को अप्सरा के मुख से ज्यादा खूबसूरत होना चाहिए. कहना न होगा कि अरब एंडालूसिया की ये कविताएँ इस कसौटी पर खरी उतरती हैं. इसीलिए गार्सिया गोमेज़ की यह स्थापना अत्यंत सटीक है कि ये कविताएँ भले ही समग्र और संपूर्ण न हों, टुकड़ों टुकड़ों में बिखरी होने के बावजूद इनमें हीरे की कणिकाओं जैसी दिव्य आभा है. (विस्तृत खोह के साँवले तल में/ तिमिर को भेदकर चमकते हैं पत्थर/ मणि तेजस्क्रिय रेडियो एक्टिव रत्न भी बिखरे. – अंधेरे में, मुक्तिबोध). हीरे की ये कणिकाएँ जिन कवियों के हस्ताक्षरों से चमकी हैं उनमें उस जमाने के बादशाहों, वज़ीरों, शहजादों, खलीफाओं, हकीमों से लेकर आम जन तक शामिल हैं. वह ऐसा दौर था जब सेविल्ला राज्य का साधारण सा गाड़ीवान भी काव्य रचना और समस्यापूर्ति में सिद्धहस्त हुआ करता था. यही नहीं, उस दौर में दावतनामे, माफीनामे, शिकायतें और सामान्य पत्राचार भी कवितात्मक हुआ करते थे. इसीलिए इन कविताओं में उस दौर के खासोआम के सुख-दुःख, राग-विराग तथा प्रकृति-परिवेश का ही अंकन नहीं हुआ है बल्कि सुंदरियों से लेकर घोड़ों, युद्धों और पानी तक को काव्य का विषय बनाया गया है. 

‘सेहरा की धड़कनें’ में संकलित कविताओं के अवलोकन से कम से कम यह तो साफ़ हो ही जाता है कि हजार वर्ष पुरानी इन अरबी कविताओं का मूल चरित्र मुख्यतः प्रतीकात्मक है, इनमें रंगीन दृश्यबंध सम्मिलित हैं और इनमें मरुस्थल के रूप की प्राकृतिक आभा है. ये कविताएँ प्रेम के दोनों पक्षों और विविध मनोदशाओं को तो उकेरती हैं ही, उसे देह के उत्सव के साथ आत्मा का पर्व भी बनाती हैं. इतना ही नहीं, ये कविताएँ मनुष्य और प्रकृति के सहज स्वच्छंद संबंध का भी आइना है जिसमें बगीचे, फूल, पर्वत, नदी और झरने अपनी स्वाभाविक छटा बिखेर रहे हैं. सौंदर्यविधान, उपमान योजना, बिंब गठन और मानवीकरण की दृष्टि से भी ये कविताएँ मर्मस्पर्शी बन पड़ी हैं. आप पाएंगे कि इब्न अब्द रब्बीही (860-940), इब्न ज़ाख, अबुल हसन अली इब्न हिस्न (11वीं शती), इब्न फराज (10वीं शती), इब्राहिम इब्न उस्मान (12वीं शती), इब्न इयाद (12वीं शती), इदरिस इब्न अल यमनी (11वीं शती), मोहम्मद इब्न ग़ालिब अल रुसफी (11वीं शती), अबू अमीर इब्न अल हमराह (12वीं शती) तथा यूसुफ इब्न हारुन अल रमदी (917-1122) जैसे कवियों की रचनाएँ अनुभूति और अभिव्यक्ति के धरातल पर अत्यंत मर्मस्पर्शी और सहज संप्रेषणीय हैं. 

अनुवादक डॉ. संतोष अलेक्स और प्रकाशक माया मृग ने इस कविता संग्रह को हिंदी में लाने का चुनौती भरा काम बड़ी निष्ठा से संपन्न किया है. इस हेतु ये दोनों साधुवाद के पात्र हैं. 


5 जून 2014                                                                         - ऋषभ देव शर्मा

विश्व पर्यावरण दिवस                                                          rishabhadsharma@gmail.com

बुधवार, 4 जून 2014

परमप्रेम रूपा है भक्ति

भक्ति प्रेम की उच्चतम स्थिति का नाम है. वह परमप्रेम रूपा है. यों भी कहा जाता है कि प्रेम के साथ जब श्रद्धा का योग हो जाता है तो प्रेमी भक्ति की ओर अग्रसर होने लगता है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसकी व्याख्या करते हुए ठीक ही कहा है कि “जब पूज्य भाव की वृद्धि के साथ श्रद्धाभाजन से सामीप्यलाभ की प्रवृत्ति हो, उसकी सत्ता के कई रूपों के साक्षात्कार की वासना हो, तब ह्रदय में भक्ति का प्रादुर्भाव समझना चाहिए. जब श्रद्धेय के दर्शन, श्रवण, कीर्तन, ध्यान आदि से ही आनंद का अनुभव न हो, जब उससे संबंध रखने वाले श्रद्धा के विषयों के अतिरिक्त बातों की ओर भी मन आकर्षित होने लगे, तब भक्ति रस का संचार समझना चाहिए. जब श्रद्धेय का उठाना, चलना, फिरना, हँसना, बोलना, क्रोध करना आदि भी हमें अच्छा लगने लगे तब हम समझ लें कि हम उसके भक्त हो गए.”

श्रद्धा और प्रेम का यह दुर्लभ संयोग जिसके अनुभव में आ गया वह ही सच्चा भक्त है. कबीर हों या मीरा, आंडाल हों या रामदासु – उनका जीवन भक्ति के इसी परम प्रेममय स्वरूप का दर्शन कराता है. कबीर के वचन इस परमप्रेम को तरह तरह से समझाने की कोशिश करते प्रतीत होते हैं. कबीर के लिए प्रेम ऐसी ज्योति है जिसके प्रकाशित होने से अनंत योग का जागरण हो जाता है. यह प्रकाश संशय को जड़ से मिटा देता है क्योंकि प्रेम और संशय एक साथ रह नहीं सकते. संशय मिटा तो समझो कि प्रिय आन मिला. यह प्रिय कबीर के लिए दुलहिन आत्मा का कंत राजाराम भरतार है. उसके आने की सूचना मिलते ही भक्त का मन नाचने लगता है, मंगलाचरण गूँजने लगते हैं.

कैसे पाता है कोई कबीर अपने इस भरतार को? प्रेम से. क्या है प्रेम? कबीर बताते हैं कि प्रिय के हिय में प्रवेश के लिए बस एक शर्त है. प्रेमी को केवल इतना करना होगा कि अपने सिर को उतार कर धरती पर रख दे. बहुत नीचा है इस घर का दरवाज़ा, सिर उठा कर आप इसमें घुस नहीं सकते. सिर ज़मीन पर रखा, अहं रहित हुए तो यह दरवाज़ा खुद ब खुद खुल जाता है. विचित्र दरवाज़ा है. सांकल भीतर की तरफ लगी है और खुलता बाहर से है. बाहर से खोलने के लिए ज्ञान काम नहीं आता, पांडित्य का वश नहीं चलता. समर्पण काम आता है, प्रेम के ढाई आखर का एकमात्र मंत्र चलता है.

पंडित-ज्ञानी भला क्या प्रेम करेंगे? वे तो ज्ञान के रास्ते चलते हैं और अज्ञात तत्व को खोजते हैं. कबीर जैसे भक्त प्रेम के रास्ते चलते हैं और खुद को खोकर प्रिय को पाते हैं. भक्ति का मोती डूबने से मिलता है, गहरे पैठने से मिलता है, किनारे बैठे रहने से नहीं. गहरे पैठोगे, तो ही साक्षात्कार संभव होगा. इस साक्षात्कार का रहस्य भी कबीर संकेत से समझा गए हैं. बस इतना करना है कि अपने अंतर्चक्षुओं को प्रिय मिलन का कक्ष बना लेना है. पुतलियाँ सेज बन जाएँगी. पलकें आप से आप पर्दे गिरा देंगी. इस एकाग्र मनोदशा में ही उस प्रिय को रिझाना है –
पिंजर प्रेम प्रकासिया, जाग्या जोग अनंत
संसा खूटा सुख भया, मिल्या पियारा कंत
 
यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं
शीश उतारे भुईं धरे, सो पैठे इहि माहि
 
पोथी पढि-पढि जग मुआ, पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय
 
जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ
मैं बपुरी बूड़न डरी, रही किनारे बैठ
 
नयनन की कर कोठरी, पुतली पलंग बिछाय
पलकों की चिक डारिके, पिय को लियो रिझाय

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