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गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

प्रीति की रीति

तुलसी का साहित्य जीवन और जगत के तमाम अनुभवों के सार से लबालब भरा है। भक्ति और अध्यात्म का नीति और व्यावहारिकता के साथ समन्वय तुलसी की एक बड़ी विषेषता है जो उन्हें जनता का हृदयहार बनाए हुए है। उन्होंने लोकरंजन और लोकरक्षण का अपना कविधर्म निभाते हुए अनेक ऐसे सूत्रवाक्य लिखे हैं जो मूल्याधारित और संतुष्ट जीवन के आधार बन सकते हैं। सारे संबंध चाहे लौकिक हों या पारमार्थिक ,तभी चरितार्थता प्राप्त करते हैं जब उनमें निष्कपटता हो। तुलसी के राम को कपट और छलछिद्र नहीं भाते। निष्कपट प्रेम चाहिए बस! तुलसी भी निर्भरा भक्ति की ही कामना करते हैं। यह प्रेम जिसे मिल गया, यह भक्ति जिसने पा ली, उसी का जीवन मूल्यवान है, सार्थक है। पे्रम हमारा मूल्य बढ़ा देता है! पे्रम दूध है, पानी में भी मिल जाए तो पानी भी दूध के मोल बिक जाता है। यही प्रीति की रीति है। पर निष्कपटता इसकी बुनियादी शर्त है। कपट यदि आया - भक्त और भगवान के बीच, मित्रों के बीच, परिवारीजन के बीच, समाज के सदस्यों के बीच, तो बस समिझए कि जीवन का रस चला गया। सब विरस हो जाता है। संबंध टूट जाते हैं। शंकाए¡ जन्म लेती हैं। अविष्वास पनपता है। दूरिया¡ बढ़ती हैं। सुख तिरोहित हो जाता है। तनाव और द्वंद्व अषांति को उपजाते हैं। रस जाता रहता है। दूध में तनिक सी खटाई पड़ जाए, तो पानी फिर पानी पानी हो जाता है - दूध तो ऐसा फटता है कि फिर जोड़े नहीं जुड़ता। तनिक सा दुराव इतना सब उपद्रव कर देता है। षिव और सती तक का संबंध इस तनिक से दुराव से खतरे में पड़ जाता है और उदासीन षिव क्षुब्ध होकर समाधि लगा लेते हैं, अवसाद ग्रस्त सती अंतत: योगाग्नि में स्वयं को भस्म कर लेती है। प्रीति का रस न रहे तो जीवन जीने योग्य नहीं रह जाता - चाहे षिव और सती का जीवन हो, या हमारा और आपका।
बाबा के शब्दों में -
सोरठा :
जलु पय सरिस बिकाइ, देखहु प्रीति कि रीति भलि।
बिलग होइ रसु जाइ, कपट खटाई परत पुनि ।।

(मानस, बालकांड, 57 ख)
- संपादक
वर्ष : 23 माघ शुक्ल पक्ष 9, संवत् 2064 अंक : 5 15 फरवरी 2008

1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

आभार इस आलेख के लिए.