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गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

भाषा-प्रयोक्ता की स्वायत्तता का सम्मान

इसमें संदेह नहीं कि हिन्दी भाषा के क्षेत्रीय, अक्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सदर्भों की विविधता और विराटता के कारण इसमें अनेक शैली - वैविध्य विद्यमान और सम्भव हैं. इसे भाषा की शक्ति माना जाना चाहिए,न कि दुर्बलता या दरिद्रता.

राष्ट्रप्रेम अच्छी वस्तु है, लेकिन कट्टर शुद्धतावाद उसे दुराग्रह द्वारा प्रदूषित करता रहता है. 

भाषाविकास और राष्ट्रीयता का संतुलन क्षुर-धार पर दौड़ने जैसा है - किंचित असावधानी से भाषा जोड़ने के स्थान पर तोड़ने का माध्यम बन सकती है [जो सर्वथा अवांछनीय है] ! 

स्मरण रहे कि प्रत्येक प्रतिभाशाली लेखक की अपनी निजी भाषा अथवा व्यक्तिबोली होती है जिसका आधार स्वरुचि-अनुरूप शब्द-चयन से निर्मित होता है. कोई लेखक किसी अन्य की रुचि के अनुसार शब्द-चयन के लिए बाध्य नहीं है.

अपनी रुचि लेखक पर थोपने का यत्न इतिहास में अनेक बार अनेक आचार्यों ने किया है , परन्तु इसे प्रशंसनीय कभी नहीं माना गया. भाषा के किसी भी स्वयम्भू संरक्षक को आज भी यह अधिकार नहीं है कि वह हिन्दी के शैली-वैविध्य को नष्ट करके उसे जड़ और एकरूपी बना दे !

अतः आइये हम भाषा-प्रयोक्ता की स्वायत्तता का सम्मान करें !

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

समाज , भाषा , रंग , कविता और 'निराला'



पुस्त चर्चा : डॉ. ऋषभदेव शर्मा



समाज भाषाविज्ञान : रंग शब्दावली : निराला काव्य*



वाक् और अर्थ की संपृक्तता को स्वीकार करने के बावजूद प्रायः दोनों का अध्ययन अलग-अल खानों में रखकर अलग-अलग कसौटियों पर किया जाता है। इससे अर्थ की, भाषिक कला के रूप
में, साहित्यि
अभिव्यक्ति के रहस्यों को समझने में दिक्कत पेश आती है। संभवतः इसीलिए साहित्य-अध्ययन के
ऐसे प्रतिमानों की खोज पर बल दिया जात है जिनके सहारे अर्थ की अभिव्यक्ति में निहित वाक् के सौंदर्य को उद्घाटित किया जा सके। इसके लिए अंतरविद्यावर्ती दृष्टिकोण को विकसित करना आवश्यक है। समाज भाषाविज्ञान के अनुप्रयोग द्वारा साहित्यिक कृतियों का विश्लेषण करना भी इस प्रकार की अध्ययन दृष्टि का एक उदाहरण है।


समाज भाषाविज्ञान भाषा को सामाजिक प्रतीकों की ऐसी व्यवस्था के रूप में देखता है जिसमें निहित समाज और संस्कृति के तत्व उसके प्रयोक्ता की अस्मिता का निर्धारण करते हैं। भाषा का सर्वाधिक सर्जनात्मक और संश्लिष्ट प्रयोग साहित्य में मिलता है। अतः समाज भाषाविज्ञान की दृष्टि से
किसी कृति के पाठ विश्लेषण द्वारा उसके संबंध में सर्वाधिक सटीक निष्कर्ष प्राप्त किए जा सकते हैं। समाज भाषाविज्ञान एक प्रकार से भाषाविज्ञान को मानक भाषा की बँधी-बँधाई लीक से निकालकर समाज-सांस्कृतिक सच्चाइयों के आकाश में मुक्त उड़ान के लिए स्वतंत्र करता है। जैसा कि हिंदी के प्रतिष्ठित समाज- भाषाविज्ञानी प्रो। दिलीप सिंह कहते हैं, भाषा के समाजकेंद्रित अध्ययन द्वारा यह संभव हुआ कि ‘‘अब नाते-रिश्ते के शब्द, सर्वनाम और संबोधन प्रयोगों, शिष्ट और विनम्र अभिव्यक्तियों के साथ-साथ आशीष देने, सरापने, विरोध प्रकट करने, सहमत-असहमत होने, यहाँ तक कि गरियाने और अश्लील प्रयोगों तक को समाज की संर
चना और उसके लोगों की मनोवैज्ञानिक बनावट के संदर्भ में देखा-परखा जाने लगा। स्वाभाविक ही है कि इस शृंखला में रंग शब्द भी चौतरफा विचारों के घेरे में आते चले गए। मूल रंग शब्दों की परिकल्पना ने भिन्न समाजों में इनकी प्रतीकवत्ता को देखने से अध्ययन की शुरुआत की थी। हिंदी में ही लाल के साथ अनुराग, हरे के साथ खुशहाली, पीले के साथ शुभ जैसे सामाजिक अर्थों का जुड़ते चले जाना हमारी लोक-संस्कृति का ही नहीं, जीवन को देखने की एक खास दृष्टि का भी परिचायक है।’’ ये विचार उन्होंने डॉ। कविता वाचक्नवी (1963) की पुस्तक ‘‘समाज भाषाविज्ञान : रंग शब्दावली
: निराला काव्य’’ (2009) के प्राक्कथन के तौर पर व्यक्त किए हैं और बताया है कि इस पुस्तक में हिंदी रंग-शब्दों की समाज-सांस्कृतिक संबद्धता को देखने का सराहनीय प्रयास किया गया है।


डॉ. कविता वाचक्नवी की यह कृति समाज भाषाविज्ञान के सैद्धांतिक पहलुओं की हिंदी भाषासमाज के संदर्भ में व्याख्या करते हुए रंग शब्दावली के सर्जनात्मक प्रयोग के निकष पर निराला के काव्य का विश्लेषण प्रस्तुत करती है। इस विश्लेषण की ओर बढ़ने से पहले विस्तारपूर्वक भाषा-अध्ययन की समाज- भाषावैज्ञानिक दृष्टि की व्याख्या की गई हैं। इस व्याख्या
की विशेषता यह है कि लेखिका ने विविध समाज भाषिक स्थापनाओं की पुष्टि रंग शब्दावली के मौलिक दृष्टांतों द्वारा की हैं। जैसे ‘‘भाषा, समाज में ही बनती है’’ कि व्याख्या करते हुए यह बताया गया है कि नाते-रिश्तों के शब्दों की भाँति रंग शब्द भी सामाजिक संरचना के अनुसार निर्मित होते हैं। यही कारण है कि एक ही रंग को कहीं जोगिया, कहीं भगवा, कहीं केसरिया, कहीं बसंती तो कहीं वासंती कहा जाता है। इनमें जोगिया / भगवा का संबंध वैराग्य संन्यास से है तो केसरिया / बसंती / वासंती का बलिदान और राष्ट्रप्रेम से। इसी प्रकार ‘‘भाषा और समाज का अन्योन्याश्रय संबंध बताते हुए रंगों के लिंग और वचन बदलने को व्याकरण की अपेक्षा लोक व्यवहार पर आधारित दि
खाया गया है। यहीं ललछौंही और हरियर जैसे तद्भव रंग-शब्दों के सहारे यह दिखाया गया है कि समाज में यह शक्ति होती है कि वह व्याकरणिक रूपों का भी व्यवहार के स्तर पर अतिक्रमण कर सकता है। यह भी दर्शाया गया है कि भाषा में विविध प्रकार के विकल्प समाज द्वारा पैदा किए जाते हैं जैसे दूध से दूधिया, फालसा से फालसाई और किशमिश से किशमिशी रंग-शब्द समाज ने बनाए हंै, व्याकरण ने नहीं। ऐसे अनेक उदाहरण समाज भाषाविज्ञान के सिद्धांतों की पुष्टि के स्तर पर इस कृति को सर्वथा मौलिक सिद्ध करने में समर्थ है।


प्रयोक्ता, क्षेत्र और परिवेश के अनुसार भाषा प्रयोग में भिन्नता के अनेक दृष्टांत साहित्यिक लेखन में भी प्राप्त होते हैं। उनकी भी एक अच्छी खासी सूची लेखिका ने दी है। काले हर्फ, गुलाबी गरमी, नीलोत्पल चरण, साँप के पेट जैसी सफेदी, काले पत्थर की प्याली में दही की याद दिलानेवाली सघन और सफेद दंत-पंक्ति, उजले हरे अँखुवे, रक्तकलंकित, हल्दी रंगी पियरी और लोहित चंदन जैसे प्रयोग इसके उदाहरण हैं । यह भाषा का संस्कृति से संबंध नहीं तो और क्या है कि भारतीय संस्कृति में देवताओं के स्वरूप, वस्त्र और पुष्प तक के रंग निर्धारित हैं। विष्णु और उनके अवतार नीलवर्ण के हैं , पीतांबर और वैजयंती धारण करते हैं तो शिव कर्पूर गौर हैं, गला नीला, ऊपर सफेद चंद्रमा, गंगा का धवल जल, शिव पत्नी का गोरा रंग और शिव का वस्त्र बाघम्बर ! देवियों के साथ भी सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण वाचक रंग जुड़े हैं। यह रंग का सांस्कृतिक संदर्भ ही है कि भारत में मृत्यु पर श्वेत तो पश्चिमी देशों में काले वस्त्र पहने जाते हैं। ईसाई दुल्हन श्वेत परिधान पहनती है और हिंदू विधवा श्वेत वस्त्र। लेखिका के अनुसार संस्कृति में रंग और भाषा में उनकी अभिव्यक्ति जिस सांस्कृतिक चेतना का दिग्दर्शन कराती है वह लोक जीवन और साहित्य में सर्वत्र व्याप्त है।



लेखिका ने सामाजिक संरचना में शब्द अध्ययन की पद्धति और प्रकारों का विवेचन करते हुए पहले तो शब्द अध्ययन की अवधारणा को स्पष्ट किया है। इसके अनंतर किसी समाज की भाषाई सामाजिकता की परख के तीन आधार प्रस्तुत किए हैं - ये हैं संबोधन शब्द, वर्जित शब्द और रंग शब्द। इतना ही नहीं, उन्होंने हिंदी भाषासमाज में प्रयुक्त होने वाले रंग शब्दों की सूची देते हुए यह दर्शाया है कि ये शब्द समाज, संस्कृति और परिवेश से किस प्रकार संबद्ध है। लेखिका की यह स्थापना द्रष्टव्य है कि ‘‘कोई भी भाषा समुदाय एक विशिष्ट सांस्कृतिक भावबोध से परिपूर्ण भाषासमाज होता है। हिंदी भाषा के वैविध्यपूर्ण समाज की सांस्कृतिकता में महत्वपूर्ण है - उसकी शैलीगत विशिष्टता और लोक बोलियों से उसकी संबद्धता। रंग शब्दों को भी हिंदी भाषासमाज ने नए व्यावहारिक संदर्भ दिए हैं और इन्हें अपनी संप्रेषण - व्यवस्था का अनिवार्य अंग बनाया है।’’



कहने की आवश्यकता नहीं कि आधुनिक साहित्य में छायावादी काव्य प्रकृतिचेतस काव्य के रूप में स्वीकृत है तथा रंगों के प्रति अत्यंत जागरूक है। इस संदर्भ में निराला की भाषाई अद्वितीयता को उनके रंगशब्दों के आधार पर विवेचित करने वाली यह पुस्तक अपनी तरह की पहली पुस्तक है। इसमें संदेह नहीं कि निराला ने अपने काव्य में रंगशब्दों का अनेकानेक अर्थछवियों के साथ सर्जनात्मक उपयोग किया है। शब्द, अर्थ और प्रोक्ति के स्तर पर उनकी अभिव्यक्ति का यह विश्लेषण सर्वथा मौलिक और मार्गदर्शक है, इसमें भी दो राय नहीं। ‘‘रंगों का जीवन और शब्दों का जीवन इस अध्ययन में एकरस हो गए हैं। हिंदी भाषा की शब्द संपदा और इस संपदा में आबद्ध लोकजनित, मिथकीय और सांस्कृतिक अर्थवत्ता की पकड़ से यह सिद्ध होता है कि भाषा की व्यंजनाशक्ति का कोई ओर-छोर नहीं है। इस फैलाव को पुस्तक में मानो चिमटी से पकड़कर सही जगह पर रख दिया गया है। भाषा अध्ययन को बदरंग समझने वालों के लिए रंगों की मनोहारी छटा बिखेरने वाला कविताकेंद्रित यह अध्ययन किसी चुनौती से कम नहीं।’’ (प्रो. दिलीप सिंह)।



इस पुस्तक में निराला के काव्य की रंग शब्दावली का विवेचन करते हुए रंगशब्दों के प्रत्यक्ष प्रयोग के साथ-साथ प्रकृति और मनोभावों को प्रकट करने के लिए उनके अप्रत्यक्ष प्रयोगों का भी विश्लेषण किया गया है। मूल रंगशब्दों में लाल, हरा, नीला और पीला निराला के प्रिय है। श्वेत और काले का द्वंद्व भी उनके यहाँ खूब उभरकर आया है। पुस्तक में यह प्रतिपादित किया गया है कि अप्रत्यक्ष रंग प्रयोग के संदर्भ में निराला अद्वितीय हैं ; जैसे वे स्वर्णपलाश और कनक से माध्यम से सुनहले रंग के अर्थ को अनेक प्रकार से प्रकट करते हैं। काले रंग के माध्यम से अंधकार और रात्रि ही नहीं, मनोदशाएँ भी व्यक्त की गई है। निराला द्वारा व्यवहृत अंधकार, अंधतम, तिमिर, निशि, अँधेरा, छाया, श्याम, मलिन, अंजन, तम जैसे अंधकार के अनेक प्रर्याय इसका प्रमाण हैं। यहाँ लेखिका की यह स्थापना द्रष्टव्य है कि ये सभी रंग-संदर्भ कवि ने अपने अनुभव - संसार से निर्मित किए हैं तथा इनके संयोजन से वे प्रकृति, मानव और मानसिक स्थितियों से उन परिवर्तनों को भी दिखा पाने में समर्थ हुए है जो अत्यंत धीमीगति से या किसी विशिष्ट प्रभाव से घटित होती हैं।



वस्तुतः रंगशब्दों के प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रयोग, रंगाभास और रंगाक्षेप की स्थिति, सादृश्य विधान में रंगों का संयोजन, रंग आधारित मुहावरों के नियोजन तथा कवि की विश्वदृष्टि के प्रस्तुतीकरण में रंगावली के आलंबन के सोदाहरण विवेचन से परिपुष्ट यह कृति हिंदी काव्य-समीक्षा के क्षेत्र में समाज-भाषाविज्ञान के अनुप्रयोग का अनुपम उदाहरण है। इतना ही नहीं, परिशिष्ट में डॉ. विद्यानिवास मिश्र के रंग संबंधी दो निबंधों ‘छायातप’ और ‘रंगबिरंग’ तथा वास्तुविचार में रंगों की भूमिका से संबंधित सामग्री के साथ डॉ. रघुवीर के कोश (ए कम्प्रेहेंसिव इंग्लिश हिंदी डिक्शनरी आफ गवर्नमेंटल एंड एजूकेशन वर्ड्स एण्ड फ्रेजिस ,1955) के रंग संबंधी खंड की अविकल प्रस्तुति भी इस पुस्तक को संग्रहणीय और संदर्भयोग्य पुस्तक बनाने में समर्थ है।




*समाज-भाषाविज्ञान : रंग शब्दावली : निराला काव्य,
डॉ. कविता वाचक्नवी,
हिंदुस्तानी एकेडेमी,12-डी, कमला नेहरू मार्ग,
इलाहाबाद-211001,उत्तर प्रदेश (भारत)
2009,
150 रु.,
232 पृष्ठ (सजिल्द)
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Posted By कविता वाचक्नवी to
"हिन्दी भारत" at 2/08/2009 08:41:00 PM



सोमवार, 2 फ़रवरी 2009

उच्च शिक्षा और शोध संस्थान में निराला जयंती आयोजित


निराला आधुनिक हिन्दी कविता के शीर्ष पुरुष हैं -- कविता वाचक्नवी
 
वसंत पंचमी सृजनशीलता की आराधना का  उत्सव है -- राधेश्याम शुक्ल


 
हैदराबाद , २ फरवरी  [प्रेस विज्ञप्ति].
वसंत पंचमी के अवसर पर दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के विश्वविद्यालय विभाग,उच्च शिक्षा और शोध संस्थान में महाप्राण निराला की ११३ वीं जयंती मनाई गई तथा ''वसंत पंचमी - निराला जयन्ती व्याख्यानमाला '' का आयोजन किया गया जिसकी अध्यक्षता डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने की.
 
 

सरस्वती पूजन और ''वर दे वीणावादिनी'' के गायन के साथ कार्यक्रम आरम्भ हुआ. आंध्र - सभा के सचिव के. विजयन ने अतिथियों का स्वागत किया. पीएच डी  शोधार्थी अंजली मेहता और अर्पणा दीप्ति ने निराला के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डाला तथा अखिलेश हठीला ने निराला की कविताओं का वाचन किया. डॉ. बलविंदर कौर ने अतिथि व्याख्यानकर्ताओं  का परिचय दिया.
 

 
उद्घाटन भाषण करते हुए 'स्वतंत्र वार्त्ता' के संपादक डॉ. राधेश्याम शुक्ला ने वसंत पंचमी को सरस्वती के जन्मदिन के रूप में सम्पूर्ण सृष्टि की सृजनशीलता की शक्ति की आराधना का उत्सव मानते हुए यह स्पष्ट किया कि सर्जना की आराधना में सत्य,शिव और सुंदर की साधना निहित है और प्रेम इसका आधारतत्व है.उन्होंने सरस्वती के मिथकीय स्वरुप की व्याख्या करते हुए कहा कि विचार-रूप में सरस्वती विधाता की संगिनी अर्थात पत्नी है तथा रचना अथवा सृष्टि-रूप में पुत्री भी है , उन्होंने निराला को स्रष्टा और सृष्टि की विराट और उदात्त संभावनाओं को व्यक्त करने वाले कवि के रूप में भारतीय कविता के गौरव की संज्ञा दी.
 
 

इस अवसर पर ''महाप्राण निराला की सर्जनात्मकता'' की व्याख्या करते हुए मुख्यवक्ता डॉ. कविता वाचक्नवी ने कहा कि निराला आधुनिक हिन्दी कविता के शीर्ष पुरुष और विरल कवि हैं. प्रकृति, प्रेम, प्रगति और पौरुष को निराला के साहित्य के मूलबिंदु बताते हुए उन्होंने निराला को व्यक्तिगत लगाव और हुंकार के ऐसे कवि बताया जिनकी बहु-आयामी और विलक्षण रचनाशीलता निरंतर मौलिक चुनौतियाँ प्रस्तुत करती है.निराला की रचनाओं को प्रतिभा के विस्फोट का  प्रतीक  मानते हुए डॉ.कविता ने कहा कि उन्हें किसी एक विचारधारा तक सीमित करना उचित नहीं है, बल्कि उनका पाठ-विश्लेषण नई-पुरानी आलोचना दृष्टियों से करने पर ही सरोकार की व्यापकता और विश्व-दृष्टि की विराटता को समझा जा सकता है.   उल्लेखनीय है कि डॉ. कविता वाचक्नवी ने ''हिन्दुस्तानी एकेडेमी'' द्वारा प्रकाशित अपनी शोधपूर्ण कृति ''समाज भाषाविज्ञान : रंग शब्दावली : निराला काव्य'' में निराला की काव्य भाषा का समाज भाषावैज्ञानिक दृष्टि से विवेचन करते हुए रंग-शब्दावली के आधार पर उनकी काव्य-चेतना का विश्लेषण किया है.
 
 

अध्यक्षासन  से संबोधित करते हुए प्रो.ऋषभ देव शर्मा ने निराला की रचनाओं में निहित उदात्त-तत्त्व पर प्रकाश डालने के साथ-साथ ''जागो फिर एक बार'' जैसी कविताओं की कालजयी प्रासंगिकता को रेखांकित किया. इस अवसर पर चंद्रमौलेश्वर प्रसाद, डॉ.जी. नीरजा, डॉ.मृत्युंजय सिंह तथा भगवंत गौड़र भी मंचासीन थे.
 
 

संस्थान के पीएच डी, एम फिल,एम ए ,अनुवाद और पत्रकारिता पाठ्यक्रम के जिन छात्रों , शोधार्थियों  और प्रतिभागियों  ने चर्चा -परिचर्चा द्वारा प्रश्नोत्तर सत्र को जीवंत बनाया उनमें  डॉ. शक्ति कुमार द्विवेदी, डॉ.सुषमा देवी , डॉ.बी. बालाजी, शिव कुमार राजौरिया, श्रद्धा तिवारी, कैलाशवती,सलमा कौसर, रीना झा, पी ज्योति, वंदना पाटिल, ,पुष्प कुमारी, निशा सोनी, वेंकट रमन, अशोक तिवारी, एस वंदना, सीमा मिश्रा, गणाचारी  श्रीनिवास राव, आकाश, राजेंद्र गौड़ ,मुहम्मद कुतुबुद्दीन ,पूनम पंवार,के नागेश्वर राव, प्रियंका रथ, राम कृष्ण, अनुराधा पाण्डेय और रेखा के नाम उल्लेखनीय हैं.शिव कुमार राजौरिया ने धन्यवाद प्रकट किया.
 

रविवार, 1 फ़रवरी 2009

अन्धकार को हम क्यों धिक्कारें? अच्छा है, एक दीप जलाएँ!


पुस्तक चर्चा : 
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अन्धकार को हम क्यों धिक्कारें? अच्छा है, एक दीप जलाएँ!
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पत्रकारिता ने सूचना और मनोरंजन के अलावा सामाजिक परिवर्तन में अग्रणी भूमिका निभाई है. आज की व्यावसायिक पत्रकारिता की अनेक विकृतियों के बावजूद इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता. बल्कि तथ्य तो यह है कि पूरी तरह बाजारीकरण के आज के दौर में भी ऐसे पत्रकार और सम्पादक विद्यमान हैं जो लाभ और लोभ के लिए नहीं वरन समाज और राष्ट्र के लिए पत्रकारिता करते हैं.राष्ट्रीय चेतना के ऐसे पक्षधर और मूल्यों के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित ऐसे पत्रकारों का लेखन तात्कालिक प्रासंगिकता के बावजूद व्यावसायिक लेखन  जैसा क्षणजीवी नहीं होता, बल्कि उसका मूल्य काल की कसौटी पर चढ़कर और भी खरा साबित होता है. यही कारण है कि किसी भी सामाजिक - राष्ट्रीय चेतना संपन्न सजग पत्रकार का लेखन समाज को नेतृत्व प्रदान करने में समर्थ होता है और इसीलिये प त्र - पत्रिका के स्तम्भ की सामग्री के ही नहीं वरन स्थायी महत्त्व की पुस्तकीय सामग्री के रूप में भी उसकी उपादेयता असंदिग्ध होती है.





''समकालीन सम्पादकीय''* सिद्धेश्वर के ऐसे ही लेखन का प्रमाण है. वरिष्ठ पत्रकार सिद्धेश्वर अपने सुदीर्घ पत्रकार-जीवन में 'प्रहरी','संघमित्रा',राष्ट्रीय विचार पत्रिका' और 'विचार दृष्टि' जैसी सोद्देश्य पत्रिकाओं के सम्पादक रह चुके हैं / हैं. अपने सम्पादकीय दायित्व का निर्वाह करते हुए समय-समय पर लिखित उनके सम्पादकीय अब एक स्थान पर सकलित होकर इस पुस्तक के रूप में आए हैं. सम्पादकीयों का यह संकलन लेखक के व्यक्तित्व और चिंतन की कई सारी तहों से परिचित तो कराता ही है ,नई पीढी में राष्ट्रीय चेतना के संस्कारों का संचार करने में उनके लेखन के सामर्थ्य को भी उजागर करने वाला है.




इसमें संदेह नहीं कि सिद्धेश्वर ने ३८२ पृष्ठ के इस ग्रन्थ में संकलित सम्पादकीय आलेखों / टिप्पणियों / निबंधों में बीसवीं शताब्दी के आख़िरी दशक और इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भिक दशक भारतीय परिदृश्य में समाज,साहित्य,संस्कृति और राजनीति का सटीक विवेचन- विश्लेषण किया है क्योंकि ये चारों ही उनके प्रिय विषय रहे हैं.जैसा कि लेखक ने स्वयं स्पष्ट किया है, इन सम्पादकीयों पर किसी प्रकार के दार्शनिक भावः वाद की अपेक्षा सामाजिक दृष्टिकोण का प्रभाव स्पष्ट लक्षित किया जा सकता है. सामाजिक प्रश्नों को संबोधित ये लेख जनसाधारण के जीवन-यथार्थ से अनुप्राणित हैं ;और उसे ही संबोधित भी.लेखक की मान्यता है कि आज हमारे समाज को भूमंडलीकरण और उत्तर-आधुनिकता के नाम पर वैचारिक शून्यता के गर्त में धकेला जा रहा है.निश्चय ही इस स्थिति से उबरने के लिए वैचारिक स्वराज्य का निर्माण अत्यावश्यक है.यही हमारे विचार से  आज के समय जागरूक लेखन का भी दायित्व है. इसके लिए लेखक ने सरदार वल्लभ भाई पटेल के चरित्र को अनुकरणीय राष्ट्रीय आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया है और राष्ट्रीय अखण्डता को अपने सम्पादकीय लेखन का सर्वोपरि सरोकार बनाया है.




छः खंडों में नियोजित इस ग्रन्थ में अनेक स्थलों पर लेखक की यह चिंता व्यक्त हुई है कि स्वातंत्र्योत्तर काल में भारतीयों की ''भारतीयता'' की चेतना का निरंतर ह्रास हुआ है और 'भारतीयम' पर तरह-तरह के'अहम्' हावी होते चले गए हैं.सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि हमारा समाज इतने टुकडों में बँट गया है कि एक सम्पूर्ण राष्ट्र की संकल्पना व्यर्थ प्रतीत होने लगी है.अलगाव वादियों,देश द्रोहियों और आतंक वादियों के हाथ इतने लंबे हो चुके हैं कि खासोआम सब एक जैसी असुरक्षा झेलने को अभिशप्त हैं.प्राय: ऐसा लगने लगा है जैसे यह देश व्यवास्थाविहीन होकर अब उग्रवादियों के रहमोकरम पर जिंदा है! इस स्थिति के लिए लेखक ने स्वार्थी राजनीति को मुख्य रूप से जिम्मेदार माना है.





इन परिस्थितियों में सामाजिक-राष्ट्रीय जागरण का अपना प्रारूप प्रस्तुत करते हुए सिद्धेश्वर का यह कथन अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि '' विचारवान,समझदार भले मानुषों और विचार शील बुद्धिजीवियों को पहल्कारी कदम बढाकर आगे आना होगा.वे आख़िर कब तक हाथ पर हाथ धरे बैठे मूक दर्शक बने रहेंगे? अँधेरा सिर्फ़ इसलिए तो नहीं छंट जायेगा कि कोई नेक आदमी उजाले की प्रतीक्षा में बैठा है.अतएव समाज और देश में व्याप्त घटाटोप अन्धकार को हटाने के लिए हमें प्राचीन सूत्र अप्प दीपो भव के अनुसार शब्दशः स्वयं दीपक बन कर प्रकाशित होने का पुरुषार्थ करना होगा.अन्धकार को हम क्यों धिक्कारें? अच्छा है , एक दीप जलाएं.''



राष्ट्रीयता के विचार रूपी इस दीप को जलाये रखने के प्रयास के साकार रूप के तौर पर सिद्धेश्वर के इस ग्रन्थ
का देश भर में व्यापक हार्दिक स्वागत होगा ,इसमें संदेह नहीं.

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* समकालीन सम्पादकीय / सिद्धेश्वर / सरदार पटेल साहित्य प्रकाशन,यू-२०७, शकरपुर , विकास मार्ग , दिल्ली - ११००९२/ २००८ / रु. ४०० मात्र / ३८४ पृष्ठ [सजिल्द]